नागरिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए ज़रूरी है राज्य के साथ सही मुद्दों पर मोलभाव


अगर आप प्राइवेट सेक्टर में नौकरी करते हैं तो आपको पता होगा कि किसी जगह ज्वाइन करते वक्त आप कम्पनी के एच.आर. से सैलरी के लिए मोलभाव करते हैं (मोलभाव को सभ्य लोग नेगोशियेशन कहते हैं)। आपकी मोलभाव की क्षमता जितनी अधिक होगी आप उतनी ही बेहतर सेलरी पा सकते हैं। मोलभाव की इस प्रक्रिया में नियोक्ता और कर्मचारी दोनों इस बात का ध्यान रखते हैं कि वे लाभ की स्थिति में रहें। ठीक ऐसा ही कुछ राज्य के साथ भी है। राज्य भी अपने नागरिकों को उतने ही अधिकार या सुविधाएं देते हैं जितना कि नागरिक मोलभाव (सामाजिक विज्ञान की भाषा में संघर्ष) कर पाते हैं।

आज हमको जो-जो अधिकार मिले हुए हैं ये आसमान से नहीं आ टपके हैं। इसके लिए दुनिया भर में सदियों से संघर्ष होते रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे। सत्ता का मूल चरित्र ही शोषण करने का है। दुनिया भर के सत्ता में बैठे लोग भरसक शोषण करने का ही प्रयास करते हैं। सत्ता की कोई वाम, दक्षिण, लिबरल, आस्तिक, नास्तिक विचारधारा नहीं होती। वह बस एक ही विचार में यकीं करती है और वह है शोषण। ऐसे में जागरूक नागरिक वह है जो सतत रूप से अपने अधिकारों को बढ़ाने के लिए सत्ता से संघर्ष करता रहे, आंखें मिलाता रहे। जब तक ऐसा होगा उसे अधिकार और सुविधाएं मिलती रहेंगी। जिस दिन संघर्ष कमज़ोर पड़ता है उसी दिन सत्ता का शोषक चेहरा खुलकर सामने आ जाता है।

सत्ता में बैठे लोग भी इस बात को बखूबी जानते हैं और इसलिए समय-समय पर कुछ ऐसी सुविधाएं देते रहते हैं जिससे कि राज्य के नागरिक एकदम से विद्रोह ना कर बैठें। अधिकार या सुविधाएं देते वक्त सत्ता यह भी कोशिश करती है कि नागरिक संघर्ष के लिए खड़े ही ना हो पाएं और इसी के लिए वह तमाम छल छद्म रचती रहती है। जातिगत, धार्मिक, क्षेत्रीय, लैंगिक विभाजन करना भी इन्ही कोशिशों के अलग-अलग स्वरूप हैं क्योंकि वर्गों में बंट जाने पर नागरिक समुदाय की शक्ति क्षीण पड़ जाती है और उनका संघर्ष कमजोर होता है। इसलिए एक तरफ जहां सत्ताधारी तमाम आधारों पर विभाजन करते हैं वही अधिकारों के लिए बने संगठनों को कमजोर भी करते रहते हैं। दुनिया भर में देखें तो मिलेगा कि धीरे-धीरे किसानों, कामगारों के हक़ में आवाज उठाने वाले संगठनों को चुप किया जाता रहा है ताकि वे लोग अपने हक़ में मजबूत आवाज ना उठा सकें।

लॉकडाउन में भारतीय समाज में अभी जो हो रहा है उसने भी सत्ता के क्रूर और शोषक चेहरे को और ज्यादा स्पष्ट किया है। एक तरफ लाखो-लाख मजदूर बेरोजगार होकर पैदल ही सड़कों पर उतरकर ब भूख-प्यासे से मरते हुए अपने-अपने मूल निवास को लौट चले हैं वही विदेशों में काम करने वाले लोगों को हवाई जहाज में बैठाकर लाया जा रहा है। सोचिये अगर इन मजदूरों का कोई देशव्यापी संगठन होता तो क्या सरकार ऐसी हिमाकत कर पाती? क्या सरकार तब भी उन्हें सड़कों पर यूँ ही मरने के लिए छोड़ देती या फिर सरकार का रवैया कुछ दूसरा होता?

इसको आप एक अन्य उदाहरण से भी समझ सकते हैं। राजस्थान में शिक्षक संघों की दबिश के चलते शिक्षकों का एक बड़ा वर्ग अपने-अपने जुगाड़ करके अपने नियुक्ति के जिले को छोड़कर गृह जिले की तरफ निकल गया जबकि राज्य सरकार का स्पष्ट आदेश था कि कोई अपना बेस लोकेशन नहीं छोड़ेगा। आज भी राज्य सरकार इन्हें अपने यहां लौटने को मजबूर नहीं कर पा रही हैं। वहीं मजदूरों को (ज्यादातर असंगठित क्षेत्र के हैं) उद्योगपतियों के हित साधन का पुतला बनाते हुए सरकार ने बहाली की दशा में भी वही रुकने पर मजबूर किया, हालांकि तमाम अन्य दबावों के चलते श्रमिक ट्रेन चलाई जाने लगी पर उनमें भी ज्यादा किराया वसूली और कम सुविधाएं होने की शिकायतें लगातार आ ही रही हैं।

सरकार का शोषक और वीभत्स चेहरा इस बात से भी स्पष्ट होता है कि जब अभी देश की अर्थव्यवस्था गोते खा रही है ठीक उसी समय सांसदों के वेतन भत्तों में बेतरह वृद्धि की गयी है जबकि कोरोना से लड़ने के नाम पर उनकी सांसद निधि (सनद रहे कि सांसद निधि में वह पैसा होता है जिसके सहारे कोई सांसद अपने क्षेत्र में कोई विकास कार्य करा सकता है) और कर्मचारियों के डी.ए. पर रोक लगा दी गयी है।

आम नागरिक को यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि इस देश के प्रधानमन्त्री कई बार खुले मंचों से अपने व्यापारी होने की बात स्वीकार कर चुके हैं और हम सब जानते हैं कि एक व्यापारी सबसे पहले अपने लाभ की बात ही सोचता है। ऐसे में अगर हमें सरकार से ज्यादा से ज्यादा अधिकार और सुविधाएं लेनी हैं तो हमें मोलभाव करना ही होगा। आखिर इस देश का हर नागरिक अपनी जेब ढीली करके सरकार को टैक्स देता है। मोलभाव करने के लिए हमें अपने हितों को समझना पड़ेगा, हमें समझना पड़ेगा कि राष्ट्रवाद, देशभक्ति, ईश्वर, अल्लाह, मंदिर, मस्जिद, सेना आदि के नाम पर हमें बरगलाया जा रहा है।

इस मोलभाव की प्रक्रिया में हमें इन चीजों की सबसे कम जरूरत है। हमें अगर जरूरत है तो वह बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की ताकि हम एक गरिमापूर्ण जीवन जी सकें। हमें जरूरत है एक ऐसे समाज की जिसमें असमानता कम से कम हो और जिसमें फिर किसी मजदूर को प्लास्टिक की बोतल का चप्पल बनाकर नंगी सड़कों पर ना चलना पड़े और ना ही किसी माँ को अपने बच्चे को जन्म देने के बाद घर की तरफ पैदल ही कूच करना पड़े। हमें एक नागरिक के रूप से असली मुद्दों पर आना होगा क्योंकि सरकारें हमेशा से अपने हित के असली मुद्दों यानी शोषण के पक्ष में ही खड़ी होती हैं।


About बिपिन पांडेय

पढ़ाई लिखाई गोरखपुर विश्वविद्यालय से, देश के अलग-अलग शैक्षिक संगठनों के साथ काम करने का अनुभव, यायावरी का शौक, देखना,समझना,लिखना-पढ़ना मुख्य काम । रहनवारी लखनऊ में...

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One Comment on “नागरिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए ज़रूरी है राज्य के साथ सही मुद्दों पर मोलभाव”

  1. वर्तमान परिस्थितयों में मजदूरों के प्रति शासन की बेरुखी पर प्रकाश डालता आलेख।अच्छा लिखा है खैर सरकार है कब नजर पड़ती है इन मजदूरों पर।

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