सामाजिक कार्यकर्ताओं के शिक्षक अनिल चौधरी का निधन 14 अप्रैल को हुआ। उनकी स्मृति में दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में 18 अप्रैल को एक श्रद्धांजलि सभा का आयोजन हुआ, जो शोक सभा नहीं थी बल्कि उनके जीवन और कामों का उत्सव मनाने का एक बहाना थी। इस सभा की संचालक और सामाजिक कार्यकर्ता श्वेता त्रिपाठी का वहां दिया वक्तव्य जनपथ पर अविकल प्रकाशित है : संपादक

Good evening Everybody!
We’re all here to celebrate the life of Anil Chaudhary, our cherished friend, guide, Comrade!
अनिल जी के परिवार, पीस के साथी, सब यहां मौजूद हैं। सबकी ओर से आप सबके आने का बहुत शुक्रिया। It’s a difficult time, but it’s also a time to celebrate Anil Chaudhary in his own style.
Known for his unseen but steady mind, heart and hand– a person who worked without fanfare and in relative anonymity who’s quiet, calm, critical and smiling presence anchored and held together individuals and groups beyond differing positions and conflict.वे नेपथ्य के नायक थे (a Hero from Behind the Scenes). अनिल चौधरी जिनको बुलाने के कई नाम थे.. अनिल गुरु, अनिल भाई, अनिल दा, अनिल जी… आज यहाँ होते तो पीछे की कतार में एक बेहद दिलासे भरी हालांकि critical मुस्कुराहट के साथ बैठे होते। He never tempted for ‘Mic’ or ‘Front Benches’.
उनके लिए मंच नहीं, सवाल ज़रूरी थे। तुरंती result नहीं, प्रक्रिया ज़रूरी थी। नेपथ्य के इस नायक ने सवालिया संस्कृति को मजबूत करने के अपने प्रयासों में अनगिनत संगठनों, समाजकर्मियों, छात्रों, व्यक्तियों की ज़िंदगियों को छुआ, उनकी मदद की। सैकड़ों आंदोलनों को जिंदा रखा। दर्जनों नेटवर्क और मंच बनाए। INSAF, CNDP, Peace Now, Bhumi Adhikar Andolan जैसे कितने नेटवर्क, platform नेपथ्य के इस नायक की भूमिका के नाते स्थापित हो सके थे।
Would like to read a few lines from Wisława Szymborska’s poetry ‘The Turn of the Century’ शताब्दी का पतन that Anil ji used to quote:
God was at last to believe in man:
good and strong,
but good and strong
are still two different people.
How to live–someone asked me this in a letter,
someone I had wanted
to ask that very thing.
Again and as always,
and as seen above
there are no questions more urgent
than the naive ones.
ईश्वर सोच रहा था अंततः
आदमी अच्छा और मजबूत दोनों है
पर अच्छा और मजबूत
अभी भी दो अलग अलग आदमी हैं.
हम कैसे रहें? किसी ने मुझसे चिट्ठी में पूछा
मैं भी उससे पूछना चाहती थी
वही प्रश्न.
बार-बार, हमेशा की तरह
जैसा कि हमने देखा है
सबसे मुश्किल सवाल
सबसे सीधे होते हैं.

PEACE का motto रहा: ‘’सवालिया संस्कृति को जिंदा रखना और आगे बढ़ाना’’। Keeping the Culture of Questioning Alive and Kicking खुलकर असहमति जताना, चर्चा करना उनके साथ सबसे आसान था। लोकतांत्रिकता की जैसी गहरी समझ उनके पास थी – वो एक कारण था कि कोई भी उनके साथ बेहिचक संवाद-बहस कर लेता था – अपने- अपने difference of opinions के साथ। He would always be ready and encouraging to listen to different view-points.
अनिल गुरु के नाम से भी मशहूर वो एक ऐसे facilitator रहे, जिनका dialogue का, discourse का, सवालों को आगे बढ़ाते हुये सोचने की ओर प्रेरित करने का facilitation कहीं भी-कभी भी संभव था। उसको किसी format की ज़रूरत नहीं थी। सत्ता संरचनाओं के इर्द-गिर्द उनके सवाल Freire की critical consciousness की सोच के तहत अपने ज़िंदगियों के ही भीतर बनते power-structures को समझने की ओर प्रेरित करते थे। औरत-मर्द, बच्चे-बड़े, शिक्षक-छात्र, मालिक-मजदूर से लेकर नागरिक-राज्य तक के सत्ता-सम्बन्धों पर चर्चा के साथ वे अपने ही तरीके से political consciousness के निर्माण की ओर facilitate करते थे।
उनके बार-बार याद दिलाने वाले तीन मंत्र याद आ रहे हैं;
- जिसका मुद्दा उसकी लड़ाई, जिसकी लड़ाई उसकी अगुवाई।
- जिन संगठनों का मक़सद सामाजिक बदलाव और जन आंदोलनों का साथ देना है, अगर वो ये काम नहीं कर रहे तो सिर्फ़ बने रहने के लिए बने रहना ठीक नहीं है।
- वत्स, तुम इतिहास की धरोहर हो और भविष्य के प्रति उत्तरदाई हो।
He continued to work as a collaborator, facilitator, trainer, supporter with this ideological clarity through his life.
उनकी चिंता थी – Shrinking democratic and public spaces– देश में लोकतांत्रिक ज़मीन लगातार सिकुड़ रही है और आलोचनात्मक सार्वजनिक संवाद धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है। यही कारण रहा People’s Council for Shrinking Democratic Spaces (PCSDS) हो या Committee Against Assault on Journalists (CAAJ) जैसे अपने समय के उनके initiatives का। लोकतन्त्र और सवालिया संस्कृति को लेकर वो बेहद चौकस थे और अपने निडर, गहरी राजनीतिक समझ और सरोकारों के साथ हमेशा मौजूद थे।
पीस के हमारे साथी विजय ने अनिल जी के अस्पताल में भर्ती रहने के दौरान कहा था – अनिल जी के दिल और दिमाग का कोई अंत नहीं है। जितनी गहरी उनकी राजनीतिक समझ थी, उतने ही गहरी इंसानियत भी थी। उनका फोन सबके लिए सुलभ था। कभी भी। उनके पास सबके लिए कुछ न कुछ था। वो एक साथ घर, स्कूल और लाइब्ररी सब थे। उनके पास जाना ऐसे अभिभावक के पास जाना था, जिससे जिरह करते हुए आपको किसी format के बारे में नहीं सोचना था, आप अपने जैसे ही रहकर उनसे सवाल, बहस, चर्चा कर सकते थे। और इस बहस के बीच आपका खाना-पीना-सोना सब उनकी ही ज़िम्मेदारी होती थी।

There were no barriers, barricades in interpersonal relationship.
हमारे एक साथी ने अनिल जी की याद में आलेख में बिलकुल सही लिखा है – वे एक ही सांस में आपकी आलोचना भी कर सकते थे और सहारा भी दे सकते थे। वे हर किसी के लिए वक़्त निकालते थे, चाहे आप कोई नए इंटर्न या छात्र हों जो अभी रास्ता ढूंढ रहे हैं या फिर कोई अनुभवी कार्यकर्ता जो मुश्किल हालात से जूझ रहे हों।
25 वर्ष के स्टूडेंट से लेकर 85 वर्ष के वरिष्ठ साथी तक – सब उनके साथ उतनी ही सहजता से बात कर लेते थे। मेरी अपनी पहली मुलाक़ात अनिल जी से छात्र दिनों की ही थी। वो संकट के समय का सबसे बड़ा आसरा थे।
He was critical, but never imposing. He was a guardian friend – supported as guardian, but treated like a friend. Losing him is losing a guardian in Delhi.
MAY WE BECOME LIKE HIM!
MAY WE CONTINUE TO KEEP THE CULTURE OF QUESTIONING ALIVE AND KICKING!
MAY WE WORK TOGETHER TO CREATE A MORE EQUITABLE WORLD!
Today, we celebrate his enduring legacy and the incredible impact he made in striving to create a better world for all. It is an evening to share stories, memories, love to celebrate our very own Anil Chaudhary.
श्रद्धांजलि सभा में अनिल चौधरी के जीवन पर दिखाई गई फिल्म की झलकियां