कोरोना अपने साथ केवल स्वास्थ्य से सम्बंधित विकट समस्या को ही नहीं लेकर आया है, वरन् आर्थिक, सामाजिक, और राजनीतिक अस्थिरता के रूप में लोगों के सामने खड़ा है। पिछले कुछ महीने में पूरा विश्व डर, असुरक्षा, और अराजकता के माहौल में रह रहा है। कोरोना रूपी संकट के वजह से भारत ने सम्भावित सामुदायिक संक्रमण से बचने के उद्देश्य से २२ मार्च से लॉकडाउन की घोषणा की। परिणामस्वरूप, सम्पूर्ण भारत में लोग कोरोना से उपजी स्वास्थ समस्या से कम बल्कि आर्थिक समस्या से ज़्यादा परेशान दिखायी दे रहे है।
परेशान सब हैं, लेकिन सबकी परेशानी समान नहीं है, बल्कि काफ़ी आसमान है। इसी क्रम में, उदाहरण के तौर पर प्रवासी मज़दूरों की त्रासदी भरी ज़िंदगी को देखा जाए तो ‘कोरोना’ और उससे उपजी आर्थिक चुनौतियों को काफ़ी आसानी से समझा जा सकता है। अचानक हुए लॉकडाउन के वजह से, प्रवासी मजदूर और ग़रीब इतने बुरे तौर पर प्रभावित हैं कि उनके पास शहरों से अपने गाँव तक पैदल वापस चल कर जाने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा है। प्रवासी मज़दूरों की त्रासद ज़िंदगी और उनके पैदल घर जाने के समाचारों से पिछले एक महीने के अख़बार भरे पड़े है, जो ये बताने के लिए काफ़ी है कि किस प्रकार ‘राज्य, समुदाय और समाज’ उन्हें देखता है।
इस वैश्विक महामारी के दौर में, प्रवासी मज़दूरों की व्यथा और पीड़ा को ‘राज्य, समुदाय, और समाज’ के व्यवहार से अच्छी तरह से समझा जा सकता है। इतना ही नहीं, इस महामारी ने प्रवासी मज़दूरों की अमानवीय ज़िंदगी और असंगठित क्षेत्र के मनमानी को सतह पर ला दिया है।
इस स्वास्थ्य, आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक संकट के दौर में और मज़दूरों के जर्जर हालात के मद्देनज़र मुझे बाबासाहेब अम्बेडकर सहसा याद आ गए और उनके द्वारा मज़दूरों के ज़िंदगी में लाए गए आमूलचूल परिवर्तन भी। मज़दूरों के अधिकार और श्रम सुधार में उनके द्वारा किया गया योगदान ऐसा है जिसे केवल मज़दूरों को ही नहीं बल्कि ‘हम भारत के लोगों’ को भी संजो कर रखना चाहिए। एक मई को पूरे विश्व के साथ साथ भारत श्रमिक वर्ग को याद करता है और इसे ‘मज़दूर दिवस’ की संज्ञा दी है, लेकिन क्या हम मज़दूर वर्ग की ज़िंदगी में बाबासाहेब अम्बेडकर के द्वारा किए किए गए योगदान को पर्याप्त रूप से जानते हैं? और ये जानना ख़ासकर एक मई को और भी ज़्यादा आवश्यक हो जाता है जबकि विश्वव्यापी महामारी में मज़दूर अपने वजूद को बचाने के लिए संघर्षरत हैं।
बाबासाहेब अम्बेडकर के द्वारा मज़दूरों के लिए किए गए योगदान को उनके सड़क से लेकर संसद तक के संघर्षो से ही नहीं बल्कि उनके राज्य विधायिका से लेकर संविधान सभा के संसदीय भाषणों से भी समझा जा सकता है। वे लंदन में हुए तीनों गोलमेज़ सम्मेलनों में ‘दमित वर्ग’ के प्रतिनिधि के तौर पर सहभागिता कर के मज़दूरों के मज़दूरी, उनके काम करने के वातावरण, खेतिहरों को ज़मींदारों से आज़ादी की बात को मज़बूती से उठाये थे। वे सन 1936 में स्वतंत्र मज़दूर पार्टी की स्थापना के साथ ही अपने आपको ‘मज़दूर नेता’ के तौर पर मज़बूती से स्थापित किए। उनकी पार्टी के मुखपत्र के प्रमुख बिंदुओं में मज़दूरों के लिए नीति बनाना प्रमुख था जिसमें रोज़गार नियंत्रण, पदोच्यती, कारख़ानों में काम करने वाले कर्मचारियों का प्रोन्नति, काम करने का निर्धारित समय/घंटा, और पर्याप्त मजदूरी विशेष थे।
मजदूरों के अधिकार के संदर्भ में, स्वतंत्र मजदूर पार्टी ने बॉम्बे विधानसभा में 17 सीटों पर जीत के साथ अपनी शानदार उपस्थिति दर्ज करायी। जुलाई 1942 में बाबासाहेब अम्बेडकर को वायसराय एग्ज़िक्यूटिव काउन्सिल में श्रमिक सदस्य के तौर पर नियुक्त किया गया जो मजदूर नेता के तौर पर उन्हें एक स्थायी मान्यता देता है। बाबासाहेब अम्बेडकर की मजदूरों के लिए दूरदर्शी सोच उनके राजनीतिक और आर्थिक सोच में लगातार झलकती रही है। उन्होंने हमेशा आर्थिक और सामाजिक परिक्षेत्र में संवैधानिक प्रावधानों द्वारा राज्य के नियंत्रण की वकालत की है जिससे कि किसी भी प्रकार की तानाशाही से बचा जा सके। बाबासाहेब बस पूँजीवाद के ही ख़िलाफ़ नहीं थे बल्कि साम्यवाद के भी उतने ही ख़िलाफ़ थे। इस बात को उनके ही शब्दों में समझा जा सकता हैः
“यह प्रश्न ही नहीं है कि मजदूर को सिर्फ़ समानता की ही ज़रूरत नहीं है, बल्कि उन्हें स्वतंत्रता की भी आवश्यकता है… मजदूर के पास समानता और स्वतंत्रता दोनो होना चाहिए… दूसरे शब्दों में समाज की आर्थिक संरचना जो कि मजदूर के हित को नज़र में रखेगी, वो समाजवाद है”।
उन्होंने खेतिहरों, कामगारों, और भूमिहीनों के अधिकारों के लिए बॉम्बे काउन्सिल के हॉल में एक जुलूस निकाला था। इतना ही नहीं, बल्कि बाबासाहेब पहले विधायक थे जिन्होंने भारत में प्रचलित खेतिहर पट्टेदार के रूप में दास प्रथा (खोती) के उन्मूलन के लिए विधेयक पेश किए थे।
बाबासाहेब अम्बेडकर का मजदूरों के अधिकार के लिए योगदान तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब उन्होंने कई विधेयक और क़ानून को अमलीजामा पहनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया, जो कि सीधे तौर पर मज़दूरों के कल्याण से सम्बंधित थे। जिन क़ानून और विधेयकों के प्रारूप को धरातल पर लाने में उनका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से योगदान था वो इस प्रकार है: कोयला श्रमिकों के कल्याण के लिए खान अधिनियम-1944, भारतीय व्यापार संघ (संशोधन) विधेयक-1943, खान मातृत्व लाभ (संशोधन) विधेयक- खदानों में काम करने वाली महिला श्रमिकों के कल्याण के लिए, कामगार मुआवजा अधिनियम-1923, कारख़ाना अधिनियम-1934, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम विधेयक 1948 और औद्योगिक रोजगार (स्थायी आदेश) विधेयक।
इतना ही नहीं, बाबासाहेब ने संविधान में श्रमिक को ‘समवर्ती सूची’ में जगह दी जिससे कि मज़दूरों का हित समान क़ानूनों के द्वारा सारे प्रदेश और केंद्र शासित प्रदेशों में एक समान व्यवस्था के तौर पर लागू हो सके। इन सब विधेयक और क़ानूनों के अलावा बाबासाहेब अम्बेडकर ही वह व्यक्ति थे जिन्होंने एक सप्ताह में 48 घंटे काम करने और अर्जित छुट्टियों की वकालत की थी। हालांकि इस वैश्विक महामारी से उपजी जनस्वास्थ्य और आर्थिक समस्या के बीच में ही केंद्र सरकार द्वारा इस एक दिन में 8 घंटे काम करने की अवधि को बढ़ा कर 12 घंटे करने की तैयारी इस बात का पुख़्ता सुबूत है कि ‘मजदूर का शरीर बस श्रम के दोहन का एक ज़रिया मात्र है’। जिस तरीक़े से इस श्रम अवधि को बढ़ाने के प्रयास को आम जन मानस और विपक्ष की मौन सहमति मिल रही है वह हमारी मजदूरों के प्रति मरती हुई संवेदनाओं का प्रतीक है। यहीं बाबासाहेब अम्बेडकर फिर से प्रासंगिक हो जाते है, जिनकी कमी ‘मजदूरों’ की जिंदगी में हमेशा रहेगी।
हम लोग एक ऐसे दौर में जी रहे हैं, जहां पूँजीपति, राज्य, और समाज अक्सर मज़दूरों के अधिकारों, चिंताओं, और ज़रूरतों को अनदेखा कर देते हैं। इस बात को हाल ही के दिनों में कोरोना की वजह से उत्तपन्न प्रवासी मज़दूरों की दुर्दशा से समझा जा सकता है। राज्य और समाज की अनदेखी से उत्पन्न मजदूरों की आर्थिक,सामाजिक, और राजनीतिक दुर्दशा को एक बहुत उत्कृष्ट उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है जो कि मज़दूरों के भूत, वर्तमान, और भविष्य को दर्शाने के लिए काफ़ी है।
इसलिए सिर्फ़ मज़दूरों को ही नहीं बाबासाहेब अम्बेडकर को याद रखने की ज़रूरत है बल्कि ‘हम भारत के लोगों’ को भी उन्हें याद रखना चाहिए, ख़ासकर तब जब मजदूर की जान हमेशा जोखिम में रहती है और उसका सम्मान हाशिये पर है।
लेखक इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय के मणिपुर में स्थित क्षेत्रीय परिसर में सहायक प्राध्यापक के तौर पर कार्यरत हैं