ओलिंपिक में हॉकी की महिला और पुरुष दोनों ही टीमों ने दिल जीत लिया है। मेरा और मेरे प्रिय देशवासियों का भी। फुल वॉल्युम में ‘चक दे’ से लेकर ‘जय हो’ बजा। प्रधानमंत्री ने देश की भावनाओं को समझते हुए ऐन मौके पर राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार का नाम बदल कर मेजर ध्यानचंद राष्ट्रीय खेल रत्न पुरस्कार कर दिया। लोग खुश हो गए। जो विरोधी हैं वे पिछड़े समाज के ध्यानचंद के नाम पर कुछ बोल नहीं सके। जो चिर विरोधी हैं वे कुछ-कुछ बोलें लेकिन किसी ने उन्हें सुना नहीं। ये बात अलग है कि आज भी देश का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न ध्यानचंद को मिलने की बस उम्मीद ही है।
देश में हॉकी का इतिहास मेजर ध्यानचंद के किस्सों से भरा पड़ा है। कैसे उन्होंने बर्लिन ओलिंपिक में तानाशाह हिटलर के सामने जर्मनी को चित कर दिया था, इस वाकये का आंखों देखा हाल कई वेबसाइटों पर पढ़ने को मिल जाएगा। 1936 के ओलिंपिक में भारत ने जर्मनी को 8-1 से हराया था। 1928 में भारतीय ह़ॉकी टीम पहली बार ओलिंपिक खेलों में शामिल हुई और पहली बार ही गोल्ड मेडल जीता। उसके बाद 1932 और 1936 में भी ओलिंपिक में गोल्ड मेडल जीता। 1932 के ओलिंपिक में हुए 37 मैचों में भारतीय टीम ने 330 गोल किये जिनमें ध्यानचंद ने अकेले 133 गोल किये थे। 1932 में लॉस एंजिल्स ओलिंपिक में भारतीय टीम ने मेज़बान अमेरिकी टीम को 24-1 से हराया था। तब से आज तक सर्वाधिक अंतर की जीत का यह रिकॉर्ड आज तक नहीं टूटा है।
ध्यानचंद की लोकप्रियता का अंदाजा केवल इस बात से लगाइए कि वे आज से करीब सौ साल पहले 1928 के दौर के खिलाड़ी हैं। उनके बाद दारा सिंह, पीटी उषा, सुनील गावस्कर, कपिल देव और क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले सचिन तेंदुलकर जैसे बहुत से नाम आये, लेकिन वो अदब और वो सम्मान किसी को नहीं मिला दो दद्दा को मिला। सौ साल बाद भी जिसका जादू बरकरार है उसे भारत का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न कब का मिल जाना चाहिए था, लेकिन नहीं मिला क्योंकि राजनीति में भावनाओं को सही वक्त पर इस्तेमाल किया जाता है। ध्यानचंद के मामले में भावनाओं को भुनाने का सही मौका आया ही नहीं था। तेंदुलकर के जीवन में अतिशीघ्र आ गया था। अब जाकर प्रधानमंत्री ने खेल जगत के सर्वोच्च सम्मान का नाम ध्यानचंद को समर्पित करके राजनीतिक मास्टरस्ट्रोक मार दिया है।
हर संघी की सोच गिरी हुई होती है..पर संघी मोदी गिरने की पराकाष्ठा है..घृणित सोच, विकृत व्यक्तित्व या शायद इससे भी कुछ…
Posted by Shahnawaz Alam on Friday, August 6, 2021
बहुत लोगों को भारत रत्न और खेल रत्न के गुणा-भाग में ये भी ध्यान नहीं रहा कि भारत में खेल दिवस मेजर ध्यानचंद के जन्मदिवस के मौके पर ही मनाया जाता है। खेल के प्रति उनका समर्पण और देश को दिलाये गए गौरव के लिए खेल दिवस के तौर पर मनाया जाना सुकून देता है। 2012 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने लंदन ओलंपिक में रिकार्ड 6 पदक जीतने पर देश में बने भावनात्मक माहौल का फायदा उठाते हुए 29 अगस्त को खेल दिवस मनाने का ऐलान कर दिया था। 29 अगस्त दद्दा का जन्मदिवस है। दुर्भाग्य से 2012 लंदन ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम अपने ग्रुप का सभी मैच हार गयी थी, लेकिन पहलवान सुशील कुमार के जलवे में हॉकी के जादूगर की याद कांग्रेस को आ गयी। हो सकता है कुश्ती और हॉकी के कंफ्यूजन से ही कांग्रेस 2014 का चुनाव हार गयी हो।
भावनाओं को समझने में गलती हो ही जाती है। चूंकि भारत रत्न देने की मांग ध्यानचंद के लिए थी लेकिन कांग्रेस ने दे दिया क्रिकेट के भगवान को, इसी कंफ्यूजन को दूर करने के लिए कुश्ती के मेडल पर हॉकी की भावना तर गयी। कांग्रेस को कभी समझ ही नहीं आया कि इस देश की जनता का इमोशनल अटैचमेंट हॉकी से है, क्रिकेट तो वो टाइमपास के लिए देखती है। इस लिहाज से अपने प्रधानमंत्री जनता की नब्ज़ पकड़ने में तेज हैं, बल्कि भावनाओं को समझने में उनसे बेहतर कोई नहीं। इंदिरा गांधी हो सकता है रही हों, लेकिन तब अपनी उम्र बहुत छोटी थी।
मोदी जी की संसदीय सीट बनारस में हॉकी आज भी सबसे लोकप्रिय खेल है। शहर का एक इलाका, जिसे वहां लोग वरुणापार कहकर बुलाते हैं, हॉकी के सुपर सितारों का गढ़ रहा है लेकिन किसी ने उसे मांजा नहीं। ललित उपाध्याय बनारस वरुणापार से ही आते हैं। नब्बे के दशक में बनारस से हॉकी में मो. शाहिद का जलवा था, जिन्हें सरकार ने पद्मश्री से नवाजा है। वरुणापार के ढेरों खिलाड़ी अर्जुन अवार्ड विजेता हैं। शाहिद भाई और खेल जगत की भारी मांग पर 1995 में बड़ा लालपुर में स्टेडियम बना लेकिन एस्ट्रो टर्फ लगते-लगते जमाना बीत गया। हॉकी ए ग्रेड का नेशनल टूर्नामेंट भी 2018 में पहली बार तब शुरू हुआ जब शाहिद भाई की पत्नी ने पद्मश्री लौटाने की धमकी दी।
भारतीय हॉकी संघ ने 1927 में वैश्विक संबद्धता अर्जित की और अंतरराष्ट्रीय हॉकी महासंघ (एफआईएच) की सदस्यता प्राप्त की। 1908 में सबसे पहले कलकत्ता में बंगाल हॉकी एसोसिएशन की स्थापना हुई। 1919 में आर्मी स्पोर्ट्स कंट्रोल बोर्ड,1920 में कराची हॉकी एसोसिएशन, 1923 में बिहार, ग्वालियर, दिल्ली और उड़ीसा में हॉकी एसोसिएशन बने। फिर 7 सितम्बर, 1925 को ग्वालियर में भारतीय हॉकी संघ की स्थापना हुई। इसका अध्यक्ष कर्नल ब्रुस टर्नबुल को बनाया गया और सचिव एनएस अंसारी।
फेडरेशन की स्थापना के बाद भारतीय हॉकी टीम न्यूजीलैण्ड के दौरे पर गई। इस टीम में ध्यानचंद भी थे। भारत और न्यूजीलैण्ड के बीच 21 मैच हुए जिनमें भारत ने 18 मैच जीते, एक मैच हारा और दो मैच टाइ हुए। न्यूजीलैण्ड में इस प्रदर्शन के दम पर भारत को 1928 में एम्सटर्डम ओलम्पिक खेलों में शामिल किया गया था।
1927 में भारतीय हॉकी फेडरेशन के मुख्यालय को ग्वालियर से हटाकर दिल्ली लाया गया। भारतीय हॉकी के इस पूरे सफर में कई उतार-चढ़ाव आए लेकिन सबसे ज्यादा आश्चर्य रहा जब पहली बार भारत की हॉकी टीम बीजिंग ओलिंपिक में क्वालिफाइ तक नहीं कर सकी। इसकी सबसे बड़ी वजह भारत में खेलों में अत्यधिक राजनीति का हस्तक्षेप रहा है। खैर, आज राजनीति की वजह से ही हॉकी की चर्चा हो रही है वरना ओलिंपिक में मेडल लाने वाले दो और खेल कुश्ती और बैडमिंटन भी पूरे लय में प्रदर्शन कर रहे हैं।
अप्रैल 2008 में भारतीय ओलिंपिक एसोसिएशन ने भारतीय हॉकी फेडरेशन की मान्यता रद् कर दी। तब इस एसोसिएशन के अध्यक्ष पंजाब के सुपर कॉप आइपीएस केपीएस गिल थे और महासचिव ज्योतिकुमारन थे। ज्योतिकुमारन पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा। एक न्यूज चैनल ने उनका स्टिंग कर लिया था। जाहिर है भारत की हॉकी का सुनहरा इतिहास इसी घटना के साथ दफन हो गया था। इसके बाद 2009 में हॉकी इंडिया की स्थापना हुई और 2014 में खेल एवं युवा कल्याण मंत्रालय ने हॉकी इंडिया को मान्यता दी। इस तरह देखिए तो हॉकी का सत्यानाश खिलाड़ियों ने नहीं, खेल प्रशासकों ने किया है। सरकार को इस व्यवस्था पर भी कोई मास्टरस्ट्रोक लगाना चाहिए।
ध्यानचंद इस देश के लिए क्या हैं ये प्रधानमंत्री जी मास्टरस्ट्रोक से हम समझ सकते हैं। ध्यानचंद की जादूगरी का कमाल है कि भारत के जनमानस पर हॉकी कब से राष्ट्रीय खेल के तौर पर छाया है ये किसी सरकार को पता नहीं है। जब कभी किसी ने सरकार से पूछा कि भाई देश का राष्ट्रीय खेल क्या है तो सरकार का जवाब आता- कोई नहीं। अखबारों में ख़बरें छपतीं लेकिन तीन दिन बाद भुला दी जाती हैं। इस बार भी देश जज्बात में बहा तो कई लोगों को याद आया कि हॉकी तो राष्ट्रीय खेल है ही नहीं, लेकिन ध्यानचंद देश के राष्ट्रीय खिलाड़ी तो हैं ही भले आप भारत रत्न न दें। फिर भी राजनीति करने के लिए तो आपको दद्दा के पास ही आना पड़ेगा।