हम उस दौर में जी रहे हैं जब बाहरी आवरण और स्वरूप, भीतरी गुण और भाव से अधिक महत्व पाते हैं। महान क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल को उनकी समस्त राजनैतिक विरासत को परे रख, तिलकधारी आक्रामक युवा के रूप में देखा जाता है। गहराई से देखने पर हम बिस्मिल को उनकी हिन्दुत्ववादी छवि के विपरीत वास्तविक रूप में देख पाते हैं। अक्सर ही उनकी धर्मनिरपेक्ष छवि दिखाने हेतु, उन्हें अशफाकुल्लाह के अभिन्न मित्र के स्वरूप मे पेश किया जाता है, परन्तु यह भी दोनों क्रांतिकारियों की विरासत को दरकिनार कर सिर्फ ऊपरी तौर पर उन्हें याद रखना है। यह बिस्मिल को गहराई से समझने का एक प्रयास मात्र है।
राम प्रसाद बिस्मिल का जन्म 11 जुलाई को मौजूदा उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के एक गरीब परिवार में हुआ। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही पिता द्वारा हुई और उर्दू की शिक्षा एक मौलवी से प्राप्त की। सामाजिक रूढ़िवाद से खिन्न होकर बिस्मिल कम उम्र में ही आर्य समाज से जुड़ गए और अपने गुरु सोमदेव की प्रेरणा से साम्राज्यवादी ब्रिटिश सरकार के संघर्ष में शामिल हो गए। 1926 में लखनऊ में हुए कांग्रेस के अधिवेशन के दौरान उनकी पहचान क्रान्तिकारी संगठन मातृवेदी से हुई। इस संगठन में रहते ही उन्होंने ‘अमेरिका को स्वाधीनता कैसे मिली’ नामक अपनी पहली पुस्तक लिखी, जिसमें भारत की आज़ादी हेतु हथियारबंद विद्रोह पर ज़ोर दिया।
1918 में मैनपुरी षडयंत्र में भगोड़ा घोषित रहने के दौरान ‘देशवासियों के नाम संदेश’ नामक पर्चा लिखा, जिसमें आज़ादी के लिए सभी समुदायों को साथ आने के लिए अपील की गई। 1920 में सभी राजनैतिक कैदियों को छूट और माफ़ी मिलने के साथ ही बिस्मिल पुनः खुल कर काम करने लगे और रूसी क्रांति पर पुस्तक ‘बोल्शेविकों की करतूत’ लिखी। जल्दी ही वे हिंदुस्तान रिपब्लिकन असोसिएशन से जुड़ गए और 1925 की काकोरी डकैती में अहम भूमिका में रहे, जिसके लिए ही उन्हें 19 दिसंबर 1927 को फांसी हुई। जेल में रहते हुए उन्होंने अपनी आत्मकथा एवं क्रान्तिकारी आंदोलन और उसके भविष्य पर कई महत्वपूर्ण लेख व पर्चे लिखे।
साम्राज्यवाद और बिस्मिल
आर्य समाज का सदस्य होते हुए भी उनके विचार एवं राजनीति पूर्ण रूप से धर्मनिरपेक्ष थी। 1920 में संयुक्त प्रान्त (मौजूदा उत्तर प्रदेश) के राजनैतिक परिवेश में तीन मुख्य धाराएं थीं- हिंदूवादी, धर्मनिरपेक्ष (स्वराज पार्टी) और ‘एच.आर.ए’. रूपी क्रान्तिकारी दल। 1925 के नगरपालिका चुनाव में हिंदूवादी खेमे के विजयी रहने से क्षेत्र में साम्प्रदायिक तनाव में बढ़ोतरी हुई। बिस्मिल स्वराज पार्टी की तरफ से सहारनपुर के उम्मीदवार थे। तत्पश्चात उन्होंने अपने मित्र अशफ़ाक़ुल्लाह खान के साथ दंगा पीड़ित रोहिलखण्ड इलाके का दौरा कर लोगों से शांति और आपसी सौहार्द बनाये रखने की अपील की।
बिस्मिल अपने राजनैतिक जीवन में एक साम्प्रदायिकता विरोधी एवं धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति के रूप में उभर कर आते हैं। अपने एक लेख में वे साम्प्रदायिक राजनीति करने वालों को मृत्युदंड देने की बात तक करते हैं। अपनी आत्मकथा में वे अपने प्रारंभिक साम्प्रदायिक विचारों को सहजता से स्वीकारते हुए खुद में लाये बदलाव एवं सुधार का ज़िक्र करते हैं।
जातिभेद और लिंगभेद पर बिस्मिल के विचार
बिस्मिल राजनैतिक सूझबूझ के साथ ही काफी प्रगतिशील विचारों वाले व्यक्ति थे। जाति एवं लिंगभेद पर बिस्मिल की सोच आर्य समाज की शिक्षा और उनके अपने परिवार से उपजी थी, खासकर अपनी माँ एवं दादी से। रूसी क्रांति और उसमें रहे महिलाओं के योगदान की समझ बिस्मिल के लिए भारत के सामाजिक परिवेश को समझने में सहायक रही। अपनी आत्मकथा में बिस्मिल कन्या भ्रूण हत्या, विधवाओं के साथ दुर्व्यवहार, पर्दा प्रथा और जाति हिंसा की भर्त्सना करते हैं। उनके अनुसार इस हिंसा का उद्भव ज़मींदारों में जातिगत श्रेष्ठता के भाव से था। बिस्मिल अपने लेख में एक मार्मिक प्रश्न सामने रखते हैं कि, “जिस देश में लाखों लोग अछूत हों वो कैसी आज़ादी की कामना करता है?”
वे अछूत समझे जाने वाले लोगों को शिक्षित करने और उन्हें आर्थिक सामाजिक बराबरी प्रदान करने के ठोस कदम उठाने की बात कहते हैं। वे उन सभी मान्यताओं को खारिज करते हैं जो महिलाओं को दोयम दर्जे पर कायम रखती हैं। यहाँ बिस्मिल रशियन नेत्री कैथरीन ब्रेशोवस्की से प्रभावित दिखते हैं। उन्होंने उनकी पुस्तक द लिटिल ग्रैंडमदर ऑफ रशियन रेवोल्यूशन का अनुवाद किया और उससे प्रेरित तरीके भारत में जन आंदोलन खड़ा करने हेतु प्रयोग करने की बात लिखी।
क्रांति और बिस्मिल
हमारे लिए यह जानना आवश्यक है कि बिस्मिल के लिए आज़ादी का क्या अर्थ था। उनके अनुसार सरकार को अमीर ज़मींदारों का समर्थन प्राप्त रहता है। चूंकि क्रांति द्वारा लाए गए समाजिक परिवर्तन से उनकी ताकत छिन जाती इसलिए ब्रिटिश सरकार और जमींदार क्रांति विरोधी थे। बिस्मिल के लिए क्रांति का अर्थ सामाजिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन लाना था।
फाँसी-माफी पर बिस्मिल और सावरकर की तुलना
अक्सर हिंदुत्व समर्थक सावरकर के अंग्रेज़ों को लिखे माफीनामे को उचित सिद्ध ठहराने हेतु बिस्मिल के पत्र को उल्लेखित करते हैं। यह सही है कि बिस्मिल ने काकोरी केस के दौरान माफीनामे लिखे, जिसका अशफाकुल्लाह ने काफी विरोध किया, परंतु अपने परम मित्र के सामने उन्हें झुकना पड़ा। यहां सावरकर और बिस्मिल में एक फर्क यह है कि जहाँ सावरकर माफीनामा स्वीकार होने के पश्चात सरकार विरोधी गतिविधियों से दूर रहे, बिस्मिल मैनपुरी षड्यंत्र से मुक्त होने के पश्चात और भी तेज़ी से क्रांतिकारी आंदोलन में जुट गए। ऐसा ही हमें शचीन्द्रनाथ सान्याल के साथ भी देखने मिलता है। वे भी अपने खिलाफ केस बन्द होने के बाद क्रांतिकारी संगठन में लगे रहे।
काकोरी केस में गिरफ्तार होने के पश्चात ऐसे कई मौके रहे जब पुलिसिया लापरवाही के चलते उनके पास भागने के मौके थे। वे अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि उन्होंने ऐसा इसलिए नहीं किया क्योंकि उन निरीह सिपाहियों को सरकार के कोपभाजन का शिकार बनना पड़ता।
बिस्मिल और क्रांतिकारियों की तरह ही अपना जीवन रहने तक निरन्तर अंग्रेजी सरकार की मुखालफ़त में लिखते रहे। उन्होंने क्रांति का रास्ता छोड़ जीवन जीने की लालसा नहीं रखी।
लेखकद्वय जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के शोधार्थी हैं