जरूर कोई है जो सबसे ताकतवर है, जो सबसे ऊपर है- सत्ता से, शासन से, संविधान से, देशों के पीएम से, प्रेसिडेंट से, राष्ट्र प्रमुखों से, नियामक से, शासक से, प्रशासक से भी, सबसे ऊपर. शायद कोई नापाक वैश्विक गठजोड़ या कोई वैश्विक ताकत, जिसके एजेंडे में धीरे-धीरे धरती से जीवन का विनाश और मानवता का अंत करना लिखा हुआ है. ये जल्लादों का कोई वैश्विक गठजोड़ है जो मानवता का सबसे बड़ा दुश्मन है. उसे मानवता से कोई मतलब नहीं है. मगर आश्चर्य है ये जल्लाद कहते हैं कि वो दुनिया को बीमारी से निजात दिलाना चाहते हैं, ये जल्लाद कहते हैं कि हम दुनिया को ज्यादा हरा-भरा देखना चाहते हैं. तो इसका मतलब ये थोड़े ही है कि साफ हवा और बीमारियों से मुक्त दुनिया के लिए आप मानवता का ही गला घोंट दें? मानव जाति की सांसों पर ही पहरा लगा दें? एक-एक सांस के लिए मानव जाति को इतना मजबूर और बीमार कर दें कि उसे लगे कोई अज्ञात बीमारी उसे मार रही है?
कोई बीमारी नहीं! हमें आपको मार रहा है ये जल्लाद! ये जल्लादों का वैश्विक गठजोड़ हमें आपको मारने पर तुला हुआ है ताकि इन जल्लादों को उपभोग करने के लिए ज्यादा हरी-भरी, ज्यादा पवित्र और स्वच्छ हवा वाली दुनिया मिले. एकदम सुगंधित और सुवासित. और वो अपने लक्ष्य को पूरा करने में लगे हुए हैं. यह अंदेशा अब गहराते जा रहा है.
तन मन जन: कोरोना वायरस का नया स्ट्रेन या मौत से डराने का नया धंधा?
मैं किसी भी कंसपिरेसी थ्योरी में यकीन नहीं करता. मेरा भी मानना है कि कोरोना है. और है ही नहीं, बल्कि दूसरे फेज़ में तो और खतरनाक रूप में है. सेकेंड फेज़ में इसकी मारक क्षमता और वीभत्स हो गई है. ब्रिटेन और साउथ अफ्रीका वेरियेंट से भी ज्यादा मारक और कई गुना तेज गति से संक्रमित और प्रसारित होने वाला वेरियेंट है ये. डबल म्यूटेंट वेरिएंट. पश्चिमी दुनिया के वायरोलॉजिस्ट इसे भारत का वायरस कह रहे हैं. ब्रिटेन, न्यूजीलैंड जैसे मुल्क ने इस वेरिएंट के उद्गम वाले मुल्क यानि भारत को रेड लिस्ट में रख दिया है. इन देशों ने अब अपने देश में भारतीयों की एंट्री पर बैन लगा दी है. और तो और पाकिस्तान ने भी अपने मुल्क में भारतीयों की एंट्री पर बैन लगा दी है. नया भारत जो नफरती और कौमी है, उन्हें तो गुस्सा आ रहा होगा कि ये उलटा क्यों हो रहा है. पाकिस्तान के खिलाफ हम कितना ज़हर उगलते हैँ और आज हमारे मुल्क का वायरस ही दुनिया का सबसे ज़हरीला वायरस हो गया है! पाकिस्तान की क्या औकात जो भारतीयों की एंट्री पर बैन लगा दे?
क्यों न लगाए? उनको भी अपने नागरिकों के जीवन की चिंता है। और तबलीगी जमात याद है न आपको? कैसे आप लोग मोहल्लों में आ रहे सब्जी बेचने वाले, अस्पताल के नर्स और वार्ड ब्वॉय का धर्म चेक करने लगे थे? अगर ब्रिटेन और पाकिस्तान का मीडिया और वहां के लोग आज भारतीयों के साथ तबलीगी जमात और एक खास कौम के साथ आपने जैसा दुर्व्यवहार किया था वैसा ही करने लगे तो कैसा लगेगा आपको? इसलिए तो इंसानियत के पैरोकार शायर लोग कह गए हैं कि दुश्मनी भी ऐसी कीजिए कि दोस्ती के लिए संभावना बची रहे. क्या मिलता है नफरत और कौमी ज़हर उगलने से?
समुदाय केन्द्रित कोरोना मैपिंग का प्रश्न? नथिंग ऑफिशियल अबाउट इट!
इस खास भारतीय वेरिएंट को वैज्ञानिक तौर पर B.1.617 नाम दिया गया है, जिसमें दो तरह के म्यूटेशंस हैं- E484Q और L452R म्यूटेशन. आसान भाषा में समझें तो यह वायरस का वह रूप है, जिसके जीनोम में दो बार बदलाव हो चुका है. वैसे वायरस के जीनोमिक वेरिएंट में बदलाव होना आम बात है. दरअसल वायरस खुद को लंबे समय तक प्रभावी रखने के लिए लगातार अपनी जेनेटिक संरचना में बदलाव लाते रहते हैं ताकि उन्हें मारा न जा सके. डबल म्यूटेशन तब होता है जब वायरस के दो म्यूटेटेड स्ट्रेन मिलते हैं और तीसरा स्ट्रेन बनता है. भारत में रिपोर्ट किया गया डबल म्यूटेंट वायरस E484Q और L452R के मिलने के प्रभाव से बना है. 452R स्ट्रेन संयुक्त राज्य अमेरिका में कैलिफोर्निया में पाया जाता है और E484Q स्ट्रेन स्वदेशी है.
नतीजा? मौत ही मौत! अकाल मौतों का क्रंदन! और लाशें ही लाशें, मानो पूरा देश मणिकर्णिका घाट हो गया हो, कब्रिस्तान हो गया हो. नवारुण भट्टाचार्य की एक कविता है-
यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश
यह जल्लादों का उल्लास-मंच नहीं है मेरा देश
यह विस्तीर्ण शमशान नहीं है मेरा देश
यह रक्त रंजित कसाईघर नहीं है मेरा देश
मैं छीन लाऊँगा अपने देश को…
ये कविता कब लिखी गई थी, किस भाव-भूमि और मनोदशा में लिखी गई थी, इस कविता के लिए उस समय क्या उत्प्रेरक रहा होगा पता नहीं, मगर आज यह कविता देश-काल की स्थिति पर जरूर किसी डराने वाले भयावह शोक-संगीत की तरह बज रही है.
मौत के आंकड़ों का गर यही हाल रहा तो एक दिन पूरा मुल्क सांसारिक बाधाओं से मुक्त होकर परम मोक्ष को प्राप्त कर लेगा. शायद यही चाहते हैं हमारे मुल्क के दाढ़ी वाले नये-नये आध्यात्मिक बने शासक. मौत अब हर दिन की रूटीन खबर होती जा रही है. 90 फीसदी मौंतें अभी अकाल हैं. दिन-रात चौबीस घंटे आंखों के सामने से जो खबरें गुज़र रही हैं, दृश्य उभर रहे हैं, उससे तो लगता है कि पूरे देश में हर जगह लाश ही लाश पसरी हुई है- सोशल मीडिया पर सबसे ज्यादा. पता नहीं टीवी पर क्या दिख रहा है, वहां शायद मौत का सौदागर कोई और नया सपना बेच रहा होगा और वोट कमा रहा होगा.
क्या इतनी मौतें सच में बही-खाते में लिखी थीं? क्या ये मौतें पहले से तय थीं (थोड़ा भाग्यवादी होने की छूट लेते हुए)? एकदम से नहीं. जान बूझ कर मौत-मौत का तांडव और भयानक खेल चल रहा है. कौन रच रहा है ये मौत का खेल? ये कोई सुर-असुर संग्राम नहीं है. ये कोई देवता-दानव का संग्राम नहीं है. ये विशुद्ध रुप से मौत का व्यापार है. हां, मौत की वजह कोरोना वायरस हो सकता है मगर 90 फीसदी मौतें ऑक्सीजन नहीं मिलने, दवाई नहीं मिलने, अस्पताल में बेड नहीं मिलने, टेस्ट की रिपोर्ट समय पर नहीं आने, इलाज समय पर नहीं शुरू होने और शायद कुछ हद तक अनाप-शनाप इलाज से भी हो रही हैं.
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) कहता है कि कोरोना के इलाज में रेमीडेसिविर इंजेक्शन की कोई जरूरत नहीं है, ये कोई रामबाण भी नहीं है. बावजूद इसके सरकारी और निजी अस्पताल समेत सभी कोविड सेंटरों में डॉक्टर इस इंजेक्शन को धड़ाधड़ लिख रहे हैं. ये सुई जनरल मेडिकल स्टोर पर आसानी से उपलब्ध नहीं होती है. नतीजा हुआ कि डिमांड बढ़ते ही इसकी ब्लैक मार्केटिंग होने लगी, जमाखोरी होने लगी. एमआरपी से 20 से 30 गुना ज्यादा कीमत पर ब्लैक मार्केट में बिक रही है ये दवा. हालत तो ये हो गई है कि बीजेपी समेत एक-दो और क्षेत्रीय पार्टी के समाजसेवा टाइप के नेता दवाई कंपनी से बल्क में सुई खरीद कर स्टॉक कर लिए हैं और अपने समर्थकों और जनता को बांट कर नेतागीरी चमका रहे हैं. रेमडेसिविर महंगी दवाओं की श्रेणी में आती है. पहले इस सुई की मार्केट प्राइस (एमआरपी) 4000 से 5000 रुपये थी जिसे सरकार ने सब्सिडाइज़ कर 900 रुपये से 1500 रुपये के आसपास ला दिया है. वैसे मजदूर और निम्न मध्यमवर्गीय लोगों के लिए ये सुई अब भी महंगी है. इस सुई को मरीजों को दिया जाए या नहीं दिया जाए इसको लेकर तो बिहार में सरकार और अस्पताल प्रशासन में ही ठन गई है.
कोरोना वायरस को आए एक साल से ज्यादा हो गया और इसके जीनोम स्ट्रक्चर को अभी तक दुनिया के वायरोलॉजिस्ट नहीं समझ सके हैं. क्या ये रामायण में श्रीराम द्वारा असुरों पर, रावण पर प्रहार किए जाने वाले वो बाण हैं जिनके रहस्य को विज्ञान आज तक नहीं भेद सका? अगर ऐसा नहीं है तो फिर इस बाण अर्थात वायरस की काट मेडिकल साइंस अभी तक क्यों नहीं डेलवप कर पायी? ये सवाल अगर अहम नहीं है तो कोरोना वायरस भी अहम नहीं है. कोरोना वायरस है अथवा नहीं है, ये कहीं से भी अहम नहीं है और न ही मैं किसी कंसपिरेसी थ्योरी में यकीन करता, मगर ये तो सच है कि मौतें हो रही हैं और वो भी अकाल मौतें. चाहे वो इलाज सही समय पर नहीं मिलने की वजह से हो रही हों या फिर मेडिकल सुविधा और इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी से या फिर अस्पताल, शासक-प्रशासक की लापरवाही से. मगर मौतें तो हो रही हैं. इन मौतों का जिम्मेवार कौन है?
जब वुहान में मौतें हो रही थीं तो ये दुनिया के लिए पहेली थी। ब्राजील और इटली में जब लाशों का अंबार दिखाया जाने लगा तो ये महामारी बन गई, वैश्विक महामारी. अब जब भारत श्मसान बनता जा रहा है तो इस कोरोना वायरस से हुई मौतों की वाजिब पोल पट्टी खुल रही है. सच ये है कि मौतें हो रही हैं और उससे भी बड़ा सच ये है कि लोगों को जानबूझ कर मरने दिया जा रहा है. भय-अराजकता और हाहाकार का एक ऐसा धुंधलका रचा जा रहा है जिसके अंदर छिपा वीभत्स सच किसी को दिखे नहीं. कोरोना मौत की प्राथमिक वजह नहीं है, हां वो भी एक वजह है, मगर मुख्य वजह है इस बीमारी से लोगों को मरने दिया जाए. और इसकी सहमति पहले से नियामक और प्रशासकों के बीच बन चुकी है. बाकी वैक्सीन, टेस्ट, एंटीबॉडी, म्यूटेंट, डबल म्यूटेंट, ट्रिपल म्यूटेंट ये सब तो हमारे लिए है ही समझने के लिए. समझते रहिए.
हां, जिंदगी बचाने के लिए कुछ लोग जरूर जी जान लगाए हुए हैं, मगर वो गिनती के लोग हैं. कुछेक दस-बीस, पचास-सौ लोग या कुछ इंसानियत को तवज्जो देने वाली संस्थाएं. मगर जिनको वोट देकर हमने अपनी जिंदगी बचाने की जिम्मेवारी दे रखी है वो तो हमें मारने पर तुले हुए हैं. एक-एक कतरा सांस के लिए हमें सरकार-अस्पताल के आगे गिड़गिड़ाना पड़ रहा है. एक-एक सांस के लिए मुल्क को कभी इस तरह तड़पता किसी ने देखा हो तो बताएं. 1918 की भीषण महामारी स्पेनिश फ्लू पर भी तो इसी विज्ञान और मेडिकल साइंस ने काबू पाया था? मगर कोरोना के आगे आज क्यों लाचार दिख रहा है, या फिर लाचार रहने के लिए मजबूर है? इस सवाल का जवाब कभी नहीं मिलेगा क्योंकि यही जल्लादों के रचे विधि का विधान है.
कवर तस्वीर दिल्ली के एक श्मशान स्थल की है, छायाकार दानिश सिद्दीकी, Reuter