केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा हर सुबह आठ बजे जारी आंकड़ों के मुताबिक देश में देश में अब तक कोरोना के कुल मामलों की संख्या 1,45,26,609 पर पहुंच गई है और इस महामारी से मरने वाले लोगों की संख्या बढ़कर 1,75,649 हो गई है. एक दिन में कोरोना संक्रमितों की संख्या दो लाख पार कर गई है और 24 घंटे में इस संक्रमण से मरने वालों की संख्या 1341 है.
ये हालात तब हैं जब इस वैश्विक महामारी ने लोगों की जीवनशैली में बड़ा बदलाव किया है और लोगों ने इसके लिए पूर्ण लॉकडाउन की स्थिति को भी झेला है. इसके बावजूद न तो स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार होता दिख रहा है, न अस्पतालों में मरीजों के साथ व्यवहार में सुधार होता दिख रहा है. न तो बाजारों में लोगों को कोरोना नियमों का पालन करने की हिदायत दी गई और न ही कोरोना संक्रमण को देखते हुए चुनावी प्रक्रियाओँ में सुधार को जारी रखा गया. सरकारें और स्वास्थ्य विशेषज्ञ लोगों से कोविड एप्रोपिएट बिहेवियर का पालन करने को कह रहे हैं, लेकिन व्यवस्था में सुधार लाने के जो प्रयास लॉकडाउन लगाने के तर्क में दिए गए थे उनका हिसाब किसी के पास नहीं है.
चलिए मान लेते हैं कि स्वास्थ्य व्यवस्था में सुधार एक लंबी प्रक्रिया हो सकती है, लेकिन चुनाव प्रक्रिया में सुधार के लिए तो महज चुनाव आयोग ही काफी है. और जब देश में सभी परीक्षाएं स्थगित हैं, योजनाएं स्थगित हैं, तो फिर चुनाव स्थगित करने में किसी का क्या बिगड़ रहा है?
मौत के ‘तांडव’ के बीच शासकों का निर्मम चुनावी स्नान?
स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की थ्योरी पर हम एक अरसे से रायशुमारी करते रहे हैं. लोकतंत्र में लोगों की आस्था और विश्वास को मज़बूत बनाए रखने के लिए चुनाव आयोग की कोशिशों का सबने समर्थन किया है. इस सिलसिले में 1995 में बिहार विधानसभा चुनावों के दौरान तत्कालीन मुख्य चुनाव आयोग टीएन सेशन को हम खूब याद करते हैं. तब से सांस्कृतिक और सामाजिक तौर पर एक शानदार देश का सभ्य समाज लोकतंत्र के इस उत्सव को हर बार कुछ बेहतर ढंग से मनाता रहा है. इस देश की जनता स्वतंत्र होकर चुनाव में भाग ले सके इसके लिए राजनीति के अपराधीकरण पर भी लगातार विमर्श होते रहे और धीरे-धीरे बूथ कैप्चरिंग और फर्जी वोटर की ख़बरें मन मस्तिष्क के पटल से गायब हो गईं.
1990 से लेकर 2000 तक के बीच जन्मी पीढी को ये पता भी नहीं होगा कि बूथ कैप्चरिंग क्या होती है, लेकिन सबने चुनाव सुधारों के लिए टीएन सेशन का नाम जरूर सुना होगा. कोरोना महामारी के इस भयावह दौर में चुनावों के होने न होने पर चर्चा छिड गई है तो स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुधार के बाद स्वतंत्र, निष्पक्ष और सुरक्षित चुनाव पर जनता के अधिकार पर सहमति बननी चाहिए. कोरोना संक्रमण के इस भयावह हालात में चुनावों का जारी रहना बेशक लोकतंत्र का उत्सव हो सकता है, लेकिन जनता के जीवन का सम्मान तो नहीं है.
चुनाव सुधारों के लिए टीएन सेशन की जिद की चर्चा आज इसलिए जरूरी है क्योंकि 27 वर्षों बाद यदि हमारा देश अपनी जनता को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के हालात उपलब्ध करा रहा है तो सवाल उठना लाजिमी है कि इस वैश्विक महामारी के दौरान सुरक्षित चुनाव क्यों नहीं कराया जा सकता?
देश में चुनाव सुधारों के लिए 1995 का बिहार विधानसभा चुनाव मील का पत्थर साबित हुआ था. तब बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव पर विपक्ष ने भ्रष्टाचार और अधिकारियों के साथ मिलकर चुनावी घालमेल करने के गंभीर आरोप लगाए थे, जिन्हें लेकर टीएन सेशन बहुत गंभीर थे. तब बिहार को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव का कब्रिस्तान माना जाता था, लेकिन चुनाव आयोग हाथी का दांत नहीं है ये साबित करने वाले जिद्दी टीएन सेशन भी अड़े हुए थे और लालू उन्हें पगला सांड़ कहने लगे थे.
टीएन सेशन खुद पटना पहुंचे थे और पांच घंटे तक राज्य के तत्कालीन मुख्य सचिव एके बसाक, पुलिस महानिदेशक वीपी जैन, गृह सचिव जेएल आर्या, सभी मंडलायुक्त और आइजी रेंज के साथ चुनावी तैयारियों की उन्होंने समीक्षा की. इस बैठक में राज्य के 55 जिलों में से 35 जिलों के डीएम ने बिना पर्याप्त पुलिस बल के स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव होने में संदेह जाहिर किया. तत्कालीन डीजीपी वीपी जैन ने उनसे 1050 कंपनी अर्धसैनिक बलों की जरूरत बताई जबकि केन्द्र ने सिर्फ 450 कंपनियां ही उपल्ब्ध करायी थीं. इस पर टीएन सेशन का पारा चढ गया.
राज्य में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए सेशन तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव से मिले, फिर राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा से. वह बिना पर्याप्त सुरक्षा बल के चुनाव कराना नहीं चाहते थे. लालू प्रसाद और सेशन में तनातनी बढ गई. इसके बावजूद सेशन ने चार बार चुनावों की तारीख बदल दी. चुनाव तभी हुए जब राज्य में बड़े पैमाने पर अर्द्धसैनिक बलों की तैनाती की गई और देश में पहली बार कई चरणों में चुनाव कराए गए.
लालू प्रसाद यादव बार-बार चुनाव स्थगित होने से तमतमाए हुए थे और टीएन सेशन पर अपने अंदाज में बरसते थे जो अखबारों की सुर्खियों में होता था. एक बार लालू यादव ने बिहार के तत्कालीन मुख्य निर्वाचन अधिकारी आरजेएम पिल्लई को फोन कर के यहां तक कह दिया था कि चुनाव हो जाने दो, फैक्स-वैक्स सब उड़ा देंगे. दरअसल, तब चुनाव के कुछ दिन पहले ही सेशन ने फैक्स कर चुनाव स्थगित कर दिया था. चुनाव स्थगित कराने को लेकर टीएन सेशन का ये फैक्स बहुत बाद तक चुनाव सुधार प्रक्रिया में मिसाल के तौर पर दिया जाता रहा है.
अजीब संयोग है कि वैश्विक महामारी के दौर में जब लाखों लोग संक्रमित हो रहे हैं तो चुनाव आयोग सुरक्षित चुनाव के लिए एक अदद ट्वीट करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है कि चुनाव स्थगित हो या ना हो, इस पर हम जिलाधिकारियों और जनता से रायशुमारी कर रहे हैं!
भारत न तो किसी अन्य देश से जंग लड़ रहा है, न ही देश में गृहयुद्ध की स्थिति है और न ही हमारे देश में भुखमरी के हालात हैं. ऐसे में एक लाख पचहत्तर लाख छह सौ उनचास भाग्यहीन लोग इस वायरस की जद में आकर मारे जा चुके हैं, ऐसा लिखने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए क्योंकि ये बहुत संवेदनशील मसला होता तो शायद चुनाव आयोग चुनाव और चुनाव प्रचार पर कोई ठोस निर्णय ले लेता. जिस चुनाव आयोग ने स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की लकीर खींची हो, उस चुनाव आयोग के पास आज सुरक्षित चुनाव की लकीर खींचने की हिम्मत नहीं है.
अपने चुनाव सुधार अभियान के दौरान टीएन सेशन कहा करते थे चुनाव में शहनाई बजाकर शांति नहीं लाई जा सकती है. उनके पूरे कार्यकाल के दौरान किसी भी राज्य में चुनाव हो, चुनाव आयोग की हनक जनता को पोलिंग बूथ पर लाने के लिए काफी थी. तब के अखबारों में खबरें छपा करती थीं कि फलां लोगों ने पहली बार वोट डाले. फलाने दलित मुहल्ले में आजादी के बाद पहली बार वोट डालने का अवसर मिला. उसके बाद से ही लोकतंत्र का उत्सव और उत्साह देखा गया था. उस चुनाव की खास बात यह थी कि इस चुनाव में आजादी के बाद दलित और पिछड़ी जाति के सबसे अधिक विधायक चुनकर विधानसभा में पहुंचे थे.
स्वतंत्र, निष्पक्ष और सुरक्षित चुनाव के बहाने ये आपदा एक बेहतर अवसर है जब चुनाव आयोग ये साबित करता कि वह आज जनता के मत और जीवन का सम्मान करता है. चुनाव आयोग ऐसा करता है तो जान लीजिए कि लोकतंत्र में लोगों की आस्था और बढेगी.