आंदोलन उम्मीद जगाता है कि बैलों की तरह मनुष्य खेती से चुपचाप बेदखल नहीं किए जा सकते!


कितने खूबसूरत लगते थे लंबी-लंबी सींगों वाले हृष्टपुष्ट बैल, जिन्हें अपने बथान की नादी में सिर-पूंछ हिलाते हुए खाते देख कर किसानों के मन में वैसा ही नेह उमड़ता था जो किसी अपने को देख कर होता है। वे प्यार से उनका नाम रखते थे…”मैना, करिया, हरिया। प्रेमचंद की ‘दो बैलों की कथा’ के हीरा और मोती की कहानी कई पीढ़ियों की पाठ्य पुस्तकों में शामिल रही।

तब बैल हमारे आर्थिक-सामाजिक जीवन के अनिवार्य अंग थे। बीजों की बुआई से लेकर अन्न को घर लाने तक, वे हर प्रक्रिया के साझीदार थे। वे हल जोतते थे, खेतों की मिट्टी को चौरस करते थे, फसल कटने के बाद उसकी दौनी करते थे, तेल पेरते थे, सजी हुई बैलगाड़ी में ओहार के नीचे बैठी दुल्हिनों को नैहर-ससुराल ले जाते थे, दादा-दादियों, चाचा-चाचियों को गंगा नहाने ले जाते थे।

फिर, वे गुम होने लगे। हमारे जीवन में उनकी उपस्थिति कम होने लगी। कृषि में तकनीक ने क्रांति लानी शुरू की। ट्रैक्टर ने हल और बैलगाड़ियों को बेदखल करना शुरू किया। मशीनों ने कटाई के बाद फसल को तैयार करना अधिक आसान कर दिया।

विकास की तेज गति के सामने बैलगाड़ियां पीछे पड़ती गईं।

कृषि में क्रांति हुई जिसने बैलों की भूमिकाओं पर पूर्ण विराम लगा दिया। उनका दिखना बन्द होने लगा। पता नहीं, वे कहां चले गए। दुग्ध उत्पादन में क्रांति के बाद नई तरह की गायें हम देखने लगे, जो अलग तरह के ही बछड़ों को जन्म देती हैं, जो बैल तो नहीं ही बन सकते। तकनीक ने सब कुछ बदल दिया। नस्लों को भी।

अब मनुष्य भी बैलों की तरह कृषि उत्पादन की प्रक्रिया से अलग होते जाएंगे। ‘मास इन प्रोडक्शन’ से ‘मास प्रोडक्शन’ की ओर बढ़ता हमारा देश अगली कृषि क्रांति के रास्ते पर है। बड़े-बड़े भूखंडों में मशीनों से खेती होगी। खेत के मालिकों की परिभाषाएं पहले से अधिक जटिल होंगी क्योंकि उनकी भूमिकाएं बदलेंगी। ‘कारपोरेट फार्मिंग’ बहुत कुछ बदल देगा। जो किसान हैं, वे मजदूर बनेंगे, जो मजदूर हैं, उनसे काम छिनेंगे। नए-नए मालिक आएंगे जिनकी जमीनें तो नहीं होंगी, लेकिन, जिनकी पूंजी होगी। जाहिर है, जिनकी पूंजी उनके पास ताकत… दुनिया पलट देने की।

हमारी कृषि संस्कृति से पहले जानवर बेदखल हुए, अब मनुष्य बेदखल होंगे। कोई चाहे, न चाहे…यह होना ही है, क्योंकि सत्ता-संरचना मनुष्य विरोधी है, विकास की प्रक्रिया मनुष्य सापेक्ष नहीं, मुनाफा सापेक्ष है। जब तक यह सोच नहीं बदलेगी, मनुष्य पीछे होते जाएंगे, उनकी छातियों पर चढ़ कर मुनाफा के सौदागर आगे बढ़ते जाएंगे।

अब बुआई से लेकर अन्न की बिक्री तक करने वाली ताकत एक ही होगी। सब कुछ वही तय करेगी। कीमत भी। मनमाफिक मुनाफे के लिए कीमतों के निर्धारण पर नियंत्रण होना जरूरी है। तो, ये नए कृषि कानून मुनाफे के खिलाड़ियों को वह ताकत देते हैं कि वे अपने हिसाब से अन्न की कीमत बढ़ाएं-घटाएं।

मुनाफा की संस्कृति का सब कुछ पर हावी होना मनुष्य को और मनुष्यता को नेपथ्य में धकेलेगा ही। बैल खुद को अप्रासंगिक बनाए जाने के खिलाफ आन्दोलन नहीं कर सकते थे, मनुष्य कर सकते हैं। वे कर भी रहे हैं।

लेकिन, कितना विचित्र साम्य है! मनुष्य भी बैलों के झुंड की तरह होते जा रहे हैं। बल्कि, हो चुके हैं। उनके मानस का ऐसा सुनियोजित निर्माण किया जा रहा है कि मनुष्यों का समूह बैलों के झुंड की तरह होता जा रहा है। बेकार बना दिये जाने के बाद बैलों को काट दिया जाना ही विकल्प रह गया था। उनकी प्रजाति ने कोई विरोध नहीं किया। वे कर भी नहीं सकते थे, क्योंकि वे बैल थे।

मनुष्य बैल नहीं हैं, लेकिन, चेतनाओं की सुनियोजित कंडीशनिंग उन्हें बैल बना रही है। वे दूसरे मनुष्यों को मुनाफा की संस्कृति पर बलि दिये जाने को देख कर उसी तरह अपने सिर तक नहीं हिनहिनाते, जैसे बैल नहीं हिनहिनाते थे। किसानों के आंदोलन पर शहरी मध्य वर्ग की प्रतिक्रिया हो या बिहार-पूर्वी यूपी के गांवों के अर्द्ध पढ़े-लिखे नौजवानों की टिप्पणियां… आप उनमें उनके ‘कंडीशंड’ मानस को पढ़ सकते हैं।

शहरी मध्य वर्ग की जेब पर डाका डाला जा रहा है, ग्रामीण-कस्बाई नौजवानों के हितों और अधिकारों पर हमले हो रहे हैं, लेकिन वे चुप ही नहीं हैं, बल्कि जयजयकार में लगे हैं। मुनाफा के सौदागरों को पता है कि मनुष्यों के मानस को बैलों के मानस में कैसे बदला जा सकता है। लेकिन, त्रासदी देखिये… इन्हें पता ही नहीं कि वे किस तरह ठस दिमागी बैलों में तब्दील किये जा रहे हैं।

आंदोलन उम्मीदें जगाते हैं, मनुष्यों की चेतना का परिष्कार करते हैं। किसान आंदोलन भी उम्मीदें जगा रहा है, चेतनाओं का परिष्कार कर रहा है। तभी तो, बेरोजगारों के मानस में भी उथल-पुथल के संकेत नजर आने लगे हैं, छात्रों का जुड़ाव भी आंदोलित किसानों से होता जा रहा है, कामगारों के बीच भी हलचल मच रही है।

उन्होंने मुनाफा की संस्कृति के विस्तार के लिए जनमानस की सामूहिकता को नष्ट किया। अब यह सामूहिकता फिर से आकार लेने लगी है। द्वंद्व बढ़ रहा है। स्टेट की शक्ति मुनाफा के खिलाड़ियों के हित में कदमताल कर रही है, चेतनाओं की सामूहिकता के खिलाफ नित नए षड्यंत्र रच रही है।

एक ओर मनुष्य हैं, मनुष्यता को बचाए रखने का उनका संघर्ष है। दूसरी ओर मनुष्य विरोधी मुनाफा की संस्कृति के ठेकेदार हैं।

इतिहास देख रहा है…खुद को बनते हुए, बदलते हुए। आने वाली पीढियां आज के दौर का इतिहास अपनी पाठ्यपुस्तकों में पढ़ेंगी…कि मनुष्यों ने कैसे खुद को बचाने के लिए, मनुष्यता के सिद्धांतों को बचाने के लिये संघर्ष किया था, कि मनुष्यों ने कैसे साबित किया था कि उनमें और बैलों में अंतर है।


यह लेख हेमंत कुमार झा के फ़ेसबुक से साभार प्रकाशित है


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