तन मन जन: लोगों को दुनिया भर में अंधा बना रही है गरीबी


कोरोना वायरस संक्रमण की महामारी के चलते दुनिया भर में गरीबों की संख्या 100 करोड़ को पार कर जाएगी जिसमें लगभग 39.5 करोड़ लोग तो भूख की वजह से मौत के बेहद करीब होंगे। इसकी सबसे ज्यादा मार भारत पर पड़ेगी। यूनाइटेड नेशंस यूनिर्वसिटी वल्र्ड इन्स्टीच्यूट फॉर डेवलपमेन्ट इकोनोमिक्स रिचर्स की रिपोर्ट में यह खुलासा करते हुए बताया गया है कि दक्षिण एशिया के विकासशील देश फिर से गरीबी का केन्द्र बन सकते हैं जहां लगभग 40 करोड़ अत्यन्त गरीब लोगों में आधे से ज्यादा दक्षिण एशियाई देशों में होंगे। इसमें भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश प्रमुख हैं।

रिपोर्ट के अनुसार चूंकि भारत की आबादी बहुत ज्यादा है और यहां पहले से ही गरीबों की एक बड़ी तादाद है इसलिए भारत में इस गरीबी का सबसे ज्यादा असर देखने को मिलेगा। रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि कोरोनाकाल में लोगों की आय कम होने से भारत के विकास पर नकारात्मक असर होने की आशंका है जिससे लोगों में गरीबी बड़े पैमाने पर बढ़ेगी। इस रिपोर्ट को किंग्स कालेज, लंदन तथा ऑस्‍ट्रेलियन नेशनल यूनि‍वर्सिटी ने मिलकर तैयार किया है। रिपोर्ट के अनुसार विकासशील देशों में मध्य आय वर्ग के लोगों में बड़े पैमाने पर गरीबी बढ़ने वाली है। इसलिए वैश्विक स्तर पर भारत को गरीबी के बड़े झटके झेलने पड़ेंगे।

इसी बीच यूनाइटेड नेशंस के ग्लोबल आइ हेल्थ कमीशन की एक रिपोर्ट ‘‘लैंसेट’’ में छपी है। इसमें कहा गया है कि दुनिया में करीब 110 करोड़ लोग आंखों की बीमारी से इसलिए जूझ रहे हैं क्‍योंकि वे चश्मा खरीदने की स्थिति में नहीं हैं। यह संख्या भारत की आबादी के लगभग बराबर है। इनमें से 59 करोड़ लोगों की दूर की और लगभग 51 करोड़ लोगों की नजदीक की नज़र कमजोर है। लगभग 4 करोड़ से ज्यादा लोग अपनी आंखों की रोशनी खो चुके हैं। रिपोर्ट में यह भी अनुमान लगाया गया है कि आंखों की बीमारी से दुनिया को सालाना 30 लाख करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ता है जो यूएई की जीडीपी से ज्यादा है।

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आंखों के बीमारों को बहाने दुनिया में इन्सानो की हकीकत को समझना मुश्किल नहीं है। यूनाइटेड नेशन्स यूनिवर्सिटी वर्ल्‍ड इन्स्टीच्यूट की रिपोर्ट बताती है कि कोविड-19 महामारी की वजह से वैश्विक स्तर पर रोजाना गरीबों की कमाई में 50 करोड़ डॉलर से ज्यादा का नुकसान हुआ। यदि दैनिक न्यूनतम आय को 1.90 डॉलर का आधार मानें और उसमें 20 फीसद की भी गिरावट आए तो दुनिया में 39.5 करोड़ गरीब और बढ़ जाएंगे। रिपोर्ट यह भी बताती है कि सतत विकास कार्यक्रम 2030 का लक्ष्य पाना अब आसान नहीं होगा। रिपोर्ट में बढ़ती गरीबी की भयावहता से निबटने के लिए साफ कहा गया है कि जी-7 एवं जी-20 देशों के नेताओं को संगठित होकर अभियान चलाना चाहिए नहीं तो स्थिति विस्फोटक होगी और कई देशों में गृहयुद्ध की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।

भारत में वैसे भी लगातार बढ़ते चिकित्सा खर्च के कारण कोई 23 फीसद बीमार लोग अपना समुचित इलाज नहीं करा पाते और लगभग 70 फीसद लोग इलाज पर होने वाले बढ़े खर्च की वजह से गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं। दिलचस्प बात तो यह कि केन्द्र सरकार द्वारा चलायी जा रही आयुष्मान योजना भी कोई बदलाव नहीं ला पायी है। नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2019 के अनुसार देश की आबादी जितने समय में सात गुना बढ़ी है उस दौरान देश में अस्पतालों की तादाद दो गुना भी नहीं बढ़ी। एक अनुमान के मुताबिक देश में फिलहाल छोटे बड़े 70.000 अस्पताल हैं, लेकिन इनमें से 60 फीसद ऐसे अस्पताल हैं जिनमें 25 या इसके कम बिस्तर हैं। 100 या इससे ज्यादा बिस्तर वाले अस्पतालों की तादाद लगभग 3000 के आसपास है। इस लिहाज से आपको हैरानी होगी कि देश में प्रत्येक 700 नागरिकों पर अस्पतालों में एक बिस्तर उपलब्ध है।

नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2019 के मुताबिक भारत आज भी इन देशों में ही है जहां स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकारी खर्च बहुत कम है। यहां वर्ष 2009-10 में स्वास्थ्य सेवाओं पर प्रति व्यक्ति सालाना सरकारी खर्च 621 रुपये था जो बढ़कर 2015-16 में 1.112 रुपये हो गया था। लगभग यही स्थिति आज भी है। यदि हम भारत में स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले खर्च की तुलना दूसरे देशों से करें तो स्वि‍ट्जरलैंड में प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य पर व्‍यय 6.944 रुपये डॉलर तथा ब्रिटेन में 3500 डॉलर है। जाहिर है स्वास्थ्य सेवाओं पर भारत में होने वाले इतने कम सरकारी खर्च की कीमत आम मरीजों को चुकानी पड़ती है। इसकी वजह से देश में 7-8 फीसद आबादी महज इलाज पर होने वाले खर्च की वजह से हर साल गरीबी रेखा के नीचे चली जाती है। ऐसे लोग अपने इलाज के लिए एक बड़ी रकम कर्ज लेते हैं। यही नहीं, कोई 23 फीसद लोग तो धन की कमी के कारण अपना इलाज भी नहीं करा पाते।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की वर्ष 2020 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले खर्च का 68.78 फीसद आम लोगों की जेब से जाता है जबकि इस मामले में दुनिया में आम लोगों का स्वास्थ्य सेवाओं पर अपने जेब से होने वाला खर्च का वैश्विक औसत महज 18.2 फीसद है। पब्लिक हेल्थ फाउन्डेशन आफ इंडिया (पीएचएफ आई) के एक अध्ययन के अनुसार भारत में लोगों को कुछ खास बीमारियों में अपने जेब से ज्यादा खर्च करना पड़ता है, जैसे कैंसर, दुर्घटनाएं, दिल की बीमारियां, आदि।

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अब थोड़ा आंखों की बीमारियों के राजनीतिशास्त्र को समझें। अपने देश में लोगों के आंखों की सबसे बड़ी दुश्मन है प्रदूषण, धूल, धुएं और रेत। देश में ग्रामीण क्षेत्र में धुएं और धूल से लोगों की आंखों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। छोटे शहरों में प्रदूषण लोगों की आंखों को खराब कर रहा है। बड़े शहरों में तेज रोशनी आंखों की दुश्मन है। आजकल एलोपैथिक दवाओं के अंधाधुंध उपयोग से भी आंखों की बीमारियां बढ़ रही हैं। भारत में कुपोषण भी आंखों की बीमारियों के बढ़ने का एक बढ़ा कारण है। वैकल्पिक आर्थिक सर्वेक्षण में 2018 में प्रकाशित मेरे एक लेख में मैंने गरीबी और कुपोषण से होने वाले दुष्‍प्रभावों की पृष्ठभूमि में बढ़ते नेत्र संबंधी रोगों का जिक्र किया है। अध्ययन के अनुसार औसत भारतीयों के नेत्र संबंधी रोगों की काफी उपेक्षा भी होती है, मसलन रोग गम्भीर हो जाते हैं और कम उम्र में ही लोगों की आंखों की रोशनी घटने लगती है। महानगरों में स्कूल जाने वाले बच्चों में 22 फीसद से ज्यादा बच्चे दृष्टि संबंधी विकारों के शिकार हैं। इन्हें समुचित पोषण और देखभाल से बचाया जा सकता है लेकिन ऐसा हो नहीं पाता।

दुनिया भर में पुरुषों की तुलना में स्त्रियां नेत्र संबंधी रोगों से ज्यादा ग्रस्त होती हैं। नेत्र संबंधी रोगों में दृष्टिहीन पुरुषों की 1.44 करोड़ आबादी की तुलना में 2.39 करोड़ महिलाएं प्रभावित हैं। ऐसे ही जहां 27 करोड़ पुरुष दूरदृष्टि के शिकार हैं तो स्त्रियों की संख्या 28 करोड़ है। निकट दृष्टि संबंधी रोगों से 22 करोड़ पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या 20 करोड़ है। इसे जोड़कर देखें तो प्रति 100 पुरुषों पर 108 महिलाएं सालाना अपनी आंखों की रौशनी खो रही हैं। आंख सम्बन्धी रोग में लैंगिक भेद के यह आंकड़े हैरान करने वाले हैं। इन आंकड़ों में महिलाओं की संख्या ज्यादा होने की वजह भी आंखों की देखभाल में कमी, कुपोषण एवं समय पर उपचार नहीं कराना है।

गरीबी और बीमारी का गहरा सम्बन्ध है। वैश्वीकरण के दौर में तो स्थिति और भयावह हो जाती है। स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण एवं महंगी उपचार व्यवस्था ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि आज आदमी अपनी सामान्य बीमारी का उपचार कराने में भी घबराता है। हर साल सरकार के लोक लुभावन नारे और घोषणाओं के बावजूद आम लोगों के लिए स्वास्थ्य एक दूर की कौड़ी की तरह है। वर्ष 2015 में सहस्त्राब्दि‍ विकास लक्ष्य की समीक्षा करते हुए विशेषज्ञों ने पाया कि भारत से गरीबी दूर किए बगैर इस लक्ष्य को प्राप्त करना असम्भव है। यही स्थिति लगभग पूरी दुनिया की है। इसीलिए यह लक्ष्य तो दूर अब 2030 तक टिकाऊ विकास लक्ष्य को निर्धारित किया गया। कहना नहीं होगा कि ‘‘सन् 2000 में सबको स्वास्थ्य’’ का लक्ष्य भी ऐसे ही हवा-हवाई हो गया था।

भारत में बीमारी और गरीबी के रिश्‍ते और उसके प्रभाव को समझने के लिए मौजूदा कृषि कानूनों के मजमून को भी देखना चाहिए। किसानों की चिन्ता है कि कारपोरेटी खेती, निजी कम्पनियों पर निर्भरता, न्यूनतम समर्थन मूल्य के अभाव में खेती-किसानी की बदहाली से देश के 60 फीसद किसानों की आय पर गहरा असर पड़ेगा। जनपक्षीय अर्थशास्त्री, कृषि विशेषज्ञ एवं वैज्ञानिक यह मानते हैं कि मौजूदा कथित कृषि कानून किसानों की जमीन कारपोरेट को सौंप देंगे और किसान अपने ही खेत में मजदूर बन जाएगा। निजीकरण के दौर में बीमारी की हालत में किसान अपनी बीमारी का इलाज भी नहीं करा पाएंगे और उनकी सेहत बदतर होती चली जाएगी। संयुक्त किसान मोर्चा से जुड़े महर्षि दयानन्द विश्व विद्यालय रोहतक के अर्थशास्त्री प्रो. चौधरी के अनुसार नये कृषि कानून किसानों के लिए मौत का फरमान सिद्ध होंगे। महंगे उपचार व दवाओं की वजह से आज भी किसान अपने कई गम्भीर रोगों का इलाज नहीं करा पाता।

कीटनाशकों एवं रासायनिक खाद्य के प्रयोग से ज्यादातर किसानों को श्वास एवं आंख सम्बन्धी बीमारियों से जूझना पड़ता है। कृषि विश्वविद्यालय, हिसार का एक अध्ययन बताता है कि रासायनिक खाद्य एवं कीटनाशकों के उपयोग से ज्यादातर छोटे किसान नेत्र एवं त्वचा सम्बन्ध बीमारियों के गिरफ्त में फंस जाते हैं और महंगे किसान एवं खेत मजदूर महंगे इलाज और दवा की वजह से अपने पुराने चर्म रोगों एवं नेत्र रोगों को चिकित्सा नहीं करा पाते। ऐसे लोगों की संख्या देश में 23 करोड़ से ज्यादा है। मौजूदा सरकार की प्राथमिकताएं भी स्वास्थ्य, शिक्षा से ज्यादा मंदिर एवं तीर्थस्थलों का विकास है। देश के सबसे ज्यादा जनसंख्या वाले राज्य उत्तर प्रदेश का उदाहरण देखें तो विगत वर्षों में प्रदेश सरकार की प्राथमिकता में गरीबी उन्मूलन, शिक्षा और स्वास्थ्य कभी रहा ही नहीं। योगी सरकार ने मंदिर, तीर्थ एवं हिंदुत्व के विकास के लिए जितनी तत्परता दिखाई उतनी स्वास्थ्य सेवाओं को सुदृढ़ बनाने के लिए नहीं। हां विज्ञापनों में उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश के रूप में चित्रित कर सरकार ने अपनी पीठ जरूर ठोकी मगर वहां के गरीब व पिछड़े नागरिकों की स्थिति और बद़तर हुई। अकेले उत्तर प्रदेश में नेत्र रोगों से ग्रस्त गरीबों की एक बड़ी तादाद है। आंकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश, बिहार, असम, राजस्थान, झारखण्ड तथा मध्य प्रदेश में गरीब रोगियों की एक बड़ी आबादी नेत्र एवं त्वचा सम्बन्धी रोगों की गिरफ्त में है।

देश में चल रहे मौजूदा राजनीतिक माहौल में फिलहाल ऐसा दिखाई नहीं पड़ रहा कि बहुसंख्यक गरीब जनता को ध्यान में रखकर सरकार नीतियां बनाएगी। तेजी से हो रहा निजीकरण एवं कारपोरेट के प्रति सरकार का झुकाव यह बताने के लिए काफी है कि सरकार में शामिल राजनीतिक दल आज भी जनता को केवल वोट देने का साधन मानते हैं और सरकार की तरफ से विकास के लिए कारपोरेट के रास्ते आसान करना अपना धर्म। विगत तीन वर्षों में केन्द्र सरकार की गतिविधियों और विगत वर्ष के कोरोनाकाल में घोषित अतार्किक लॉकडाउन के कारण भारत की अर्थव्यवस्था के बुरे हाल ने यहां की अधिसंख्य आबादी को हिला कर रख दिया है। अचानक आई इस गरीबी ने देश में 70-75 करोड़ लोगों की जड़ें हिला दी हैं। लगभग 35-40 करोड़ आबादी या तो रोजगार छूट जाने या आमदनी में 50 फीसद से ज्याद की गिरावट की वजह से परेशान हैं। गम्भीर रोगों के मरीजों में धन के अभाव में दवा नहीं खरीदने से उनकी बीमारी के जटिल होने के मामले बढ़ गए हैं। ऐसे में देश के आम लोगों की हालत लाचार बीमार की तरह हो गई है। यह एक ऐसी समस्या है जिसका तात्कालिक समाधान तो मुझे दिखाई नहीं देता, लेकिन निजीकरण और विनिवेशीकरण में लिप्त सरकारों से तो और भी कोई उम्मीद नहीं दिखती। जनता के सामने यह एक बड़ा राजनीतिक सवाल है कि वह महंगाई और निजीकरण से निबटने के लिए क्या करे?

लेखक जनस्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं


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