पंचतत्व: विकास को संतुलन चाहिए और चैनलों को विज्ञान रिपोर्टर वरना ग्लेशियर ‘टूटते’ रहेंगे!


इंसान होने के नाते हम सबकी कुछ ज़रूरतें हैं, जिन्हें पूरा किया जाना है. आखिर, उत्तराखंड, हिमाचल और ओडिशा की जनता को भी वही सुख-साधन क्यों नहीं चाहिए जो दिल्ली में रहने वालों को मुहैया हैं? विकास नाम के लुभावने वादे में निचाट गरीबी से निपटने की चुनौती छिपी है और इसमें संसाधनों के अंधाधुंध दोहन का खतरा भी है. 

संतुलन साधा जा सकता है, बस नजरिया सही होना चाहिए. न सिर्फ सरकार का, बल्कि जनता का भी. हमें अपने देश और पर्यावरण को लेकर ओनरशिप लेनी होगी. निश्चित रूप से देश को बिजली की जरूरत है, प्रदूषण को कम करने वाले बिजली उत्पादन के तरीके में एक तरीका पनबिजली का है, पर इसके लिए कितने बांध! इस पर लोग अधजल गगरी की तरह अपनी राय रखते जा रहे हैं.

समस्या बिजली की जरूरत को पूरा करने की भी है और पहाड़ों को बचाने की भी. पहाड़ों को बचाने की जरूरत इसलिए भी है क्योंकि अपना हिमालय अभी खुद निर्माण की शैशवावस्था में ही है और महज 9 करोड़ साल पुराना है. उसको अस्थिर किया गया तो वह पूरे उत्तरी भारत की आबादी को अस्थिर कर देगा. लेकिन सवाल यह भी है कि तबाही तो केदारनाथ में भी आई थी. वहां कौन सा बांध था?

योजनाकारों, ठेकेदारों, नेताओं, सरकारों द्वारा आमंत्रित आपदा में शहीद हुए लोगों के लिए एक शोक वक्तव्य

असल में, अनियंत्रित तरीके से पर्यटकों की भीड़, बेतरतीब मकान निर्माण और अवैज्ञानिक तरीके से पहाड़ों की कटाई से त्रासदियां आती हैं. फिर सवाल उठता है कि विकास कैसा हो और कैसे हो? इस बात पर दो राय नहीं है कि ऐसा विकास होना चाहिए जिसमें पर्यावरण को कम से कम नुकसान पहुंचे, लेकिन यह होगा कैसे यह एक पहेली है.

यकीन मानिए, बांध बनाने के बाद भी समस्याएं खत्म नहीं होंगी. ज्यादा नहीं, अगले तीन दशकों में दुनिया भर में आधी से अधिक आबादी उन बड़े बांधों के साये में आने वाली है जो या तो अपनी उम्र पूरी कर चुके होंगे या बस पूरी करने वाले होंगे. यह जानकारी हाल ही में युनाइटेड नेशंस यूनिवर्सिटी द्वारा जारी रिपोर्ट में सामने आई है.

वर्ल्ड रजिस्टर ऑफ लार्ज डैम्स को देखें तो दुनिया में करीब 60 हजार बड़े बांध (जिनकी ऊंचाई कम से कम 15 मीटर है) हैं और इस फेहरिस्त अभी आखिरी नहीं है. सबसे ज्यादा बांध चीन में हैं जहां 23841 बड़े बांध हैं, जोकि विश्व के कुल निर्मित बड़े बांधों का 40 फीसदी है. इसके बाद अमेरिका (9,263) और फिर भारत (4,407) का नंबर आता है.

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दुनिया के ये 60 हजार बांध साल भर में नदियों में बहने वाले पानी का करीब 16 फीसद रोककर रखते हैं. सिर्फ भारत में 1,115 बड़े बांध 2025 तक 50 वर्ष या उससे ज्यादा पुराने हो जाएंगे. 2050 तक आते-आते भारत के करीब 4,250 बड़े बांध 50 वर्ष की उम्र को पार कर जाएंगे जबकि 64 बड़े बांध 150 वर्ष या उससे ज्यादा पुराने होंगे.

मसलन, मल्लपेरियार डैम को ही देखिए जो सवा सौ साल का हो चुका है, जिसे 1895 में अंग्रेजों ने बनाया था.

डाउन टु अर्थ में छपी एक रिपोर्ट कहती है, “जलवायु परिवर्तन इन बांधों को और कमजोर कर रहा है. जिस तरह से बाढ़ और अन्य चरम मौसमी घटनाओं की संख्या बढ़ रही है उससे यह बांध जल्द कमजोर हो रहे हैं, जोकि भारत जैसे देशों के लिए एक बड़ी समस्या है.”

इन बांधों की बढ़ती उम्र न केवल लाखों लोगों के लिए खतरा पैदा कर रही है, साथ ही इनकी मरम्मत और रखरखाव के खर्च को भी और बढ़ा रही है जिनके चलते एक बड़ी आबादी पर बाढ़ का खतरा मंडराने लगा है. इससे न केवल लोगों के जीवन बल्कि साथ ही पर्यावरण को भी खतरा है

चलते-चलतेः इस हफ्ते की चमोली वाली घटना पर रिपोर्टिंग (खासतौर पर टीवी, पर प्रिंट में भी) बहुत मनोरंजक रही. बड़े से बड़े रिपोर्टर ने भी इसे ग्लेशियर टूटना बताया. संभवतया अधिकतर लोग ग्लेशियर के बारे में अधिक नहीं जानते थे. किसी ने कहा ग्लेशियर फटा है (बादल फटने की तर्ज पर) तो किसी ने कहा ग्लेशियर टूटा है.

ग्लेशियर, मोरेन और ग्लेशियर लेक आउटबर्स्ट फ्लड (जीएलओएफ) के बीच के अंतर को बताते हुए अगर रिपोर्टिंग होती तो लगता कि पर्यावरण को लेकर हमारा मीडिया साक्षर है. ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे टीवी चैनलों को विज्ञान रिपोर्टरों की सख्त जरूरत है.



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