कविता की मौत का फ़रमान

पिछली बार भी लिखी थी अधूरी एक कविता… छूटे सिरे को पकड़ने की कोशिश की नहीं। आखें बंद कर- करता हूं जब भी कृत्रिम अंधेरे का साक्षात्‍कार मारती हैं किरचियां …

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समाज सेवा या ‘स्वयं’ सेवा?

हम पहले भी सुनते आए हैं कि किस तरह सत्‍यार्थी अपने दो-चार विश्‍वस्‍त पत्रकार गुर्गों के माध्‍यम से मीडिया को मैनेज करते रहे हैं, लेकिन पहली बार ऐसा उदाहरण सजीव प्रस्‍तुत है।

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