एक सज़ायाफ्ता बौद्धिक के हक़ में एक अमेरिकी कॉलेज का प्रतिरोध


अमेरिका के स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ़ न्यूयॉर्क के ब्रॉकपोर्ट कॉलेज के लिए मार्च, 2022 बहुत गहमागहमी भरा रहा। कॉलेज पर श्वेत समुदाय के राजनीतिज्ञों और अखबारों ने तीखे हमले किए। इन हमलों का कारण ब्रॉकपोर्ट कॉलेज द्वारा ‘ब्लैक पैंथर’ के एक सजायाफ्ता बौद्धिक को व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया जाना था।

गौरतलब है कि ब्लैक पैंथर की प्रेरणा से ही भारत में सन् 1972 में ‘दलित पैंथर’ की स्थापना हुई थी। ब्लैक पैंथर के योद्धाओं के विचार भारतीय दलित पैंथर के लिए प्रकाश-स्तंभ की तरह रहे हैं। ब्रॉकपोर्ट कॉलेज की घटना के कुछ अन्य संदर्भ भी भारत से जुड़ते हैं। भारतीय उच्च अध्ययन संस्थानों में विमर्श और अभिव्यक्ति की आजादी को बुरी तरह कुचला जा रहा है। पिछले कुछ वर्षों में यहां ऐसी घटनाओं की संख्या तेजी से बढ़ी है, जब शासक-कौम के विचारों के विरोधी बौद्धिकों को आमंत्रित किए जाने पर कार्यक्रमों को रद्द किया गया है। भारत के उच्च अध्ययन संस्थानों की अपनी नैतिक शक्ति इतनी कमजोर रही है कि वे ऐसे मामले में चूं तक नहीं बोल पाते हैं जबकि ब्रॉकपोर्ट कॉलेज ने अपनी स्वायत्तता के पक्ष में राजनीतिज्ञों और शासक कौम का डट कर मुकाबला किया।

क्या है मामला?

ब्रॉकपोर्ट कॉलेज में ब्लैक पैंथर के पूर्व सदस्य जलील अब्दुल मुंतकीम को वक्ता के तौर पर आमंत्रित किया गया। कार्यक्रम 6 अप्रैल को ऑनलाइन था।

जलील को 1971 में दो पुलिसकर्मियों की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया था और उन्हें दोनों पुलिसकर्मियों की हत्या के लिए अलग-अलग 25-25 साल की सजा हुई थी। लगभग 50 साल की सजा काटने के बाद जलील 7 अक्टूबर, 2020 में पेरोल पर रिहा हुए हैं। वे अमेरिका समेत संभवत: दुनिया के किसी भी लोकतंत्र में सबसे लंबी जेल काटने वाले व्यक्ति हैं।

जलील की जीवन-यात्रा लोमहर्षक रही है। उनका जन्म 18 अक्टूबर, 1951 को कैलिफोर्निया के ओकलैंड में हुआ तथा सैन फ्रांसिस्को में पले-बढ़े। बचपन का अधिकांश हिस्सा मां के साथ गुजरा, जो अफ्रीकन नृत्य की विद्यार्थी थीं तथा अश्वेत समुदाय पर होने वाले अत्याचार का विरोध करने के लिए चर्चित संगठन ‘नेशनल एसोशिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ कलर्ड पीपुल’ (एनएएसीपी) की सदस्य भी थीं। जलील और उनके अश्वेत समुदाय के लोगों को अपमानजनक ढंग से “निग्गर” (हब्शी, काला आदमी) कह कर संबोधित किया जाता था। स्कूल बस का ड्राइवर उन्हें उनकी चमड़ी के रंग के कारण बस की सबसे पिछली सीट पर बैठने के लिए मजबूर करता था। उनका बचपन ठीक वैसे ही गुजरा जैसा उस समय किसी भारतीय अछूत का बचपन हुआ करता था। पल-पल पर अपमान, भेदभाव और हर स्तर पर उपेक्षा, उनकी और उनके समुदाय की नियति थी।

जलील के जीवन में बड़ा मोड़ 1967 में आया। उस साल 2 मई को राइफल और पिस्तौलों से लैस, काला चश्मा, चमड़े की जैकेट और ब्रेसलेट पहने ब्लैक पैंथर पार्टी के 30 युवाओं ने कैलिफोर्निया विधानसभा पर कब्जा कर लिया था। उस समय कैलिफोर्निया विधानसभा में एक कानून पास होना था, जिसके तहत शस्त्र लेकर चलना अवैध घोषित किया जाने वाला था। इस कानून का असली उद्देश्य ब्लैक पैंथर्स को नि:शस्त्र करना था, जो उन दिनों अपने विचारों और हथियारों के कारण कैलिफोर्निया और आसपास के इलाकों में तेजी से फैल रहे थे।

जलील इस समय 16 वर्ष के थे। इस घटना में उन्हें आशा की किरण दिखाई दी और वे ब्लैक पैंथर पार्टी से जुड़ गए। उसके अगले साल मार्टिन लूथर किंग, जूनियर की हत्या कर दी गई; उसके एक साल बाद, शिकागो में कानून-प्रवर्तन अधिकारियों ने इक्कीस वर्षीय ब्लैक पैंथर फ्रेड हैम्पटन की हत्या कर दी। इन घटनाओं ने 18 वर्षीय मुंतकीम जलील को गहराई से उद्वेलित किया। इसी समय वे ब्लैक पैंथर पार्टी के अंडरग्राउंड संगठन ‘ब्लैक लिबरेशन आर्मी’ के सदस्य के रूप में चुन लिए गए। ‘ब्लैक लिबरेशन आर्मी’ पर पुलिसकर्मियों पर हमला करने के अतिरिक्त डकैती करने और अनेक जगहों पर बम फेंकने के आरोप रहे हैं।

21 मई, 1971 को लिबरेशन आर्मी ने न्यूयॉर्क पुलिस के दो अधिकारियों जोसेफ पियाजेंटिनी और वेवर्ली जोन्स की घात लगा कर हत्या कर दी। इनमें से जोसेफ पियाजेंटिनी श्वेत समुदाय के थे, जबकि वेवर्ली जोन्स अश्वेत थे।

New York Daily News, May 22, 1971

इस हत्याकांड से कुछ समय पहले समाचार पत्र ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ को ब्लैक लिबरेशन आर्मी की ओर से एक पैकेट मिला था, जिसमें एक बुलेट के साथ प्रेस नोट रखा था। प्रेस नोट में लिखा था कि “हम इसे  (बुलेट को) क्रांतिकारी न्याय प्राप्त करने के लिए उत्पीड़ित लोगों की संभावित शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए भेज रहे हैं। इस नस्लवादी सरकार के हथियारबंद गुंडे तीसरी दुनिया के उत्पीड़ित लोगों की बंदूकों के निशाने पर तब तक आते रहेंगे, जब तक वे हमारे समुदाय पर आधिपत्य जमाना और अमेरिकी कानून और व्यवस्था के नाम पर हमारे भाइयों और बहनों की हत्या करना बंद नहीं करते। हम क्रांतिकारी न्याय का विश्वास रखते हैं। हमारा नारा है कि समस्त अधिकार आम जनता के पास हों!”[i] (जोर हमारा)

इन पुलिसकर्मियों की हत्या का आरोप जलील अब्दुल मुंतकीम, जो उस समय तक ‘एंथोनी जलील बॉटम’ के नाम से जाने जाते थे, और उनके साथियों पर लगा।

मुकदमा चला और गवाहों के विरोधाभासी बयानों के बीच उन्हें सजा हुई। सजा में कहा गया था कि 25 वर्ष बाद उन्हें पेरोल पर रिहा किया जा सकेगा। इस सजा के अनुसार वे 1993 में ही पेरोल पर रिहा किए जाने के पात्र हो गए थे, लेकिन श्वेत समुदाय के नस्लवादी राजनीतिज्ञों, न्यूयार्क सिटी के पुलिसकर्मियों के संगठन और मारे गए पुलिसकर्मियों के परिजनों के विरोध के कारण उनके पेरोल की अर्जी 11 बार खारिज की गई। जब-जब उनकी रिहाई की अर्जी पेरोल बोर्ड के पास जाती श्वेत-श्रेष्ठतावादियों की ओर से उसे खारिज करवाने के लिए तीव्र अभियान चलाया जाता। बोर्ड को हजारों की संख्या में चिट्ठियां भेजी जातीं तथा श्वेत राजनेताओं के बयान आते, जिनमें जलील को न्यायसंगत रूप से मिलने वाले पेरोल का विरोध किया जाता।

दूसरी ओर, अनेक नागरिक अधिकार संगठन तथा प्रगतिशील लोग उनकी रिहाई के पक्षधर थे।

अंतत: जलील की  रिहाई तब हुई, जब वे अपनी अधिकांश सजा काट चुके थे। इस प्रकरण का एक प्रेरक पहलू यह भी है कि उक्त हत्याकांड में मारे गए अश्वेत पुलिसकर्मी वेवर्ली जोन्स के पुत्र जूनियर वेवर्ली जोन्स ने उनकी रिहाई का पक्ष लिया। उन्होंने पेरोल बोर्ड के समक्ष पेश होकर कहा कि इस हत्याकांड को भयावह नस्लवाद के उस दौर के ‘ऐतिहासिक संदर्भ’ में ही देखा जाना चाहिए।

जेल में रहते हुए जलील ने धर्म परिवर्तन किया। वे एंथोनी जलील बॉटम से जलील अब्दुल मुंतकीम बने तथा उनकी पहचान एक शिक्षाविद् और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता के रूप में बनी। वे कैदियों के अधिकारों के लिए निरंतर संघर्षरत रहे तथा नस्लवाद के प्रतिरोध में अनेक सैद्धांतिक लेख लिखे। जेल में लिखी गई उनकी पुस्तक “We Are Our Own Liberators” (हम अपने मुक्तिदाता स्वयं हैं) शीर्षक से प्रकाशित हुई है।

जेल अधिकारियों ने उन्हें कैदियों को ब्लैक-इतिहास की शिक्षा देने के लिए प्रताड़ित किया, महीनों तक एकांत काल-कोठरी में डाल कर रखा, लेकिन वे अपनी विचारधारा से कभी नहीं डिगे। जेल में रहते हुए कुछ पत्रकारों ने उनसे मुलाकात कर भेंटवार्ताएं प्रकाशित कीं। इन भेंट वार्ताओं में वे अपनी विचारधारा के विभिन्न पहलुओं को स्पष्ट करने की कोशिश करते दिखते हैं।

जलील अब्दुल मुंतकीम के संघर्षों की कथा पढ़ते हुए भारत के हिंदूवादी नेता विनायक दामोदर सावरकर की याद आती है। जाहिर है, सावरकर और जलील की विचारधारा एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न है। सावरकर भारत के द्विज-श्रेष्ठतावादियों के प्रतिनिधि थे, जो सामाजिक रूप से श्वेत-श्रेष्ठतावादियों के समकक्ष हैं। जलील और सावरकर में समानता महज इतनी है कि 1910 में सावरकर को भी एक अधिकारी की हत्या में 50 साल की सजा हुई थी, लेकिन वे एक साल के भीतर ही अपनी रिहाई के लिए उन्हीं अंग्रेजों की “भलमनसाहत और दयालुता” की दुहाई देते हुए वादा करने लगे थे कि अगर उन्हें माफ कर दिया जाता है तो वे आजीवन अंग्रेजों के कट्टर समर्थक रहेंगे। दूसरी ओर, जलील सरकार के सामने कभी नहीं झुके, न ही कभी माफी मांगी।

बहरहाल, यूनिवर्सिटी ऑफ़ न्यूयॉर्क के ब्रॉकपोर्ट कॉलेज में जलील अब्दुल मुंतकीम के व्याख्यान का शीर्षक था “ब्लैक प्रतिरोध का इतिहास, अमेरिकी राजनीतिक कैदी और नरसंहार: जलील मुंतकीम के साथ एक वार्तालाप”। कॉलेज की वेबसाइट पर इस आयोजन के बारे में जानकारी देते हुए जलील का परिचय एक राजनीतिक कैदी के रूप में दिया गया था। कार्यक्रम की सूचना फैलते ही श्वेत-श्रेष्ठतावादियों ने कॉलेज पर इसे रद्द करने के लिए चारों ओर से दबाव बनाना शुरू कर दिया।

कॉलेज को हजारों ईमेल भेजे गए। अनेक राजनीतिज्ञों और पुलिस अधिकारियों ने इसे रद्द करने के लिए सख्त शब्दों में लिखा। उन्होंने जलील को ‘राजनैतिक कैदी’ कहे जाने पर भी विरोध किया तथा कहा कि कानूनी रूप से वह महज एक खूनी है, जिसके व्याख्यान पर सरकारी धन बर्बाद किया जा रहा है। कॉलेज के भीतर विद्यार्थियों के भी एक समूह ने इस आयोजन का विरोध किया, लेकिन कॉलेज ने इन विरोधों के आगे सर झुकाने से इंकार कर दिया।

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कॉलेज ने अपनी वेबसाइट पर इन विरोधों का संज्ञान लेते हुए लिखा कि जलील अब्दुल मुंतकीम कॉलेज के ‘एक संकाय सदस्य’ के आमंत्रण पर व्याख्यान देने आ रहे हैं तथा “अकादमिक स्वतंत्रता की हमारी अवधारणा हमारे हर संकाय-सदस्य को छात्रों को संबोधित करने के लिए अपनी पसंद के मेहमानों को आमंत्रित करने के लिए बहुत अधिक स्वायत्तता प्रदान करती है। हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में विश्वास करते हैं और आलोचनात्मक और सम्मानजनक संवाद में शामिल होने के लिए विभिन्न समुदायों को प्रोत्साहित करना जारी रखना चाहते हैं। हमने नियमित रूप से विभिन्न पृष्ठभूमियों और दृष्टिकोणों के वक्ताओं को शामिल करते हुए भाषण कार्यक्रम आयोजित किए हैं और आगे भी करते रहेंगे।”[ii] (जोर हमारा)

कॉलेज की वेबसाइट पर इस संबंध में दी गई जानकारियों का सबसे रोचक पहलू कार्यक्रम का विरोध करने वाले अपने ‘कैंपस-समुदाय’ को दी गई सलाह थी। कॉलेज ने लिखा है कि “हम इस बात को स्वीकार करते हैं कि इस कार्यक्रम में तीव्र भावनात्मक प्रतिक्रिया को जन्म देने की क्षमता है। कुछ लोगों के लिए यह पुराने जख्मों के हरा हो जाने जैसा भी हो सकता है। इस कार्यक्रम के कारण हमारे कैंपस के जिन लोगों पर ऐसी प्रतिक्रिया होती है, वे उससे निपटने के लिए कैंपस में उपलब्ध मानसिक स्वास्थ्य संसाधनों की मदद ले सकते हैं।[iii] (जोर हमारा)

इस सूचना के बाद कॉलेज के मानसिक स्वास्थ्य सलाह केंद्र का फोन, पता आदि देते हुए बताया गया है कि इस केंद्र पर मानसिक स्वास्थ्य संबंधी सलाह के लिए पहले से समय लेने की भी आवश्यकता नहीं है। जब आपकी भावनाएं असहज हों, आप वहां जा सकते हैं। “भावनाओं के आहत” होने संबंधी आरोपों का इससे उपयुक्त और संयत उत्तर शायद कोई और नहीं हो सकता।

जाहिर है, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान ऐसा उत्तर देने के बारे में सपने में भी क्यों नहीं सोच सकते। क्या इसका कारण महज यह है कि मौजूदा दौर में भारत में दमन की आंच बहुत तेज है? या इसका कारण हमारे संस्थानों की प्रशासनिक और आर्थिक संरचना में निहित है, जो सरकार पर अतिशय निर्भर है। या फिर इन संस्थानों की सामाजिक संरचना में है, जो कि मुख्य रूप से द्विज-जातियों से बनी है? या तीनों में?


[i] https://www.nytimes.com/1971/05/23/archives/police-is-there-a-war-against-the-cops.html

[ii] https://www.brockport.edu/about/president/jalil_muntaqim_event/

[iii]  https://www.brockport.edu/about/president/jalil_muntaqim_event/


(प्रमोद रंजन पत्रकार और शिक्षाविद् हैं)


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