लोकतन्त्र जनता की संप्रभुता पर आधारित अवधारणा है। प्रत्यक्ष लोकतन्त्र, जिसमें जनता प्रत्यक्ष रूप से प्रत्येक निर्णय में भागीदारी करती है, के विपरीत विश्व के अधिकांश देशों में प्रतिनिधि लोकतन्त्र का चलन है जिसमें नागरिक एक निश्चित अवधि के लिए अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं। निष्पक्ष निर्वाचन की प्रक्रिया द्वारा नागरिकों तथा सरकार के मध्य स्थापित यह संबंध लोकतन्त्र को वैधता प्रदान करता है। चुनाव की प्रक्रिया सम्पन्न होने के बाद निर्वाचित प्रतिनिधि नागरिकों के प्रति जवाबदेही से बंध जाते हैं। एक निश्चित समय के अंतराल पर होने वाले चुनावों के द्वारा जनप्रतिनिधियों के कामकाज का मूल्यांकन किया जाता है। प्रतिनिधियों के दोबारा जीतने पर जनता द्वारा उनके कार्यों का अनुमोदन समझा जाता है तथा उनकी हार का अर्थ होता है कि नागरिक उनके कार्यों से असंतुष्ट हैं। ऐसी स्थिति में नागरिकों द्वारा किसी अन्य प्रतिनिधि का चुनाव कर लिया जाता है।
जनप्रतिनिधियों के मूल्यांकन की यह प्रक्रिया निष्पक्षता की मांग करती है। लोकतन्त्र की पूर्वापेक्षा के रूप में निष्पक्ष निर्वाचन की यह प्रक्रिया जिस मात्रा तक दूषित होगी, लोकतन्त्र का स्वरूप उसी मात्रा तक विरूपित होता चला जाएगा। प्रथमदृष्टया शांतिपूर्ण तथा निष्पक्ष लगने वाले चुनावों द्वारा प्रतिनिधियों के निर्वाचन तथा शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण होने से यह धारणा बनाई जा सकती है कि ऊपरी तौर पर लोकतन्त्र स्थापित हो गया है, परंतु तात्विक रूप से लोकतन्त्र केवल निष्पक्ष तथा शांतिपूर्ण लगने वाले सत्ता हस्तांतरण से कहीं अधिक समझ और व्यापक विश्लेषण की मांग करता है। इसमें चयन की स्वतंत्रता से लेकर राजनीतिक दलों तथा मीडिया से लेकर नागरिकों द्वारा सरकार से की गयी सौदेबाजी तक के मुद्दे शामिल हैं।
जातिगत पहचान के आधार पर मतदान करना, मतदाताओं को धमकी देकर प्रत्याशी या दल विशेष के पक्ष में मतदान करने के लिए बाध्य करना, मीडिया द्वारा किसी विशेष प्रत्याशी या दल के पक्ष में लगातार खबरें प्रसारित करते रहना जिससे उसके पक्ष में माहौल बनाया जा सके, सोशल मीडिया में किसी प्रत्याशी का चरित्र हनन करने के लिए मनगढ़ंत कहानियां या मीम्स बनाना अथवा दल विशेष के मनोबल को कमजोर करने के लिए ट्रोलिंग की घटनाएं निर्वाचन की शुचिता को प्रभावित करते हैं। मतदाताओं को किसी भी तरह का तात्कालिक अथवा भविष्य में कुछ करने का लालच देना भी निर्वाचन प्रक्रिया को दूषित करते हैं।
भारत में स्थानीय निकायों के निर्वाचन में इस तरह की शिकायतें सबसे ज्यादा प्राप्त होती हैं, जब किसी प्रत्याशी द्वारा चुनाव जीतने के एवज में किसी व्यक्ति या समूह को लाभ पहुंचाने का वायदा किया जाता है; अथवा व्यक्तिगत तौर पर नकदी, वस्तु अथवा सेवा उपलब्ध कराई जाती है। इसे अनैतिक तथा अवैध माना जाता है तथा ऐसा करना दंडनीय अपराध भी है। ऐसे में महत्त्वपूर्ण सवाल आता है कि जो बात व्यक्तिगत दायरे में नैतिक और कानूनी रूप से गलत है, वह सार्वजनिक दायरे में कैसे सही हो सकती है? यदि इसे सामाजिक दायरे में स्वीकार्य बनाया जाता है तो इसकी सीमाएं तथा नियम व शर्तें क्या होनी चाहिए?
[Bhattulal Jain vs Union of India]
— Bar & Bench (@barandbench) October 6, 2023
Adv: There can be nothing more atrocious than govt distributing cash before polls. This is happening everytime and the burden is on the taxpayers ultimately
CJI DY Chandrachud: Before elections all kinds of promises are made and we cannot… pic.twitter.com/IiNw2eAbF8
इसी से मिलता जुलता सवाल उच्चतम न्यायालय में एक याचिका के माध्यम से उठाया गया है। उच्चतम न्यायालय ने एक याचिका की सुनवाई के दौरान राजस्थान और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्रियों द्वारा लगातार की जा रही घोषणाओं पर संबन्धित राज्य सरकारों, केंद्र सरकार तथा चुनाव आयोग को नोटिस देकर अपना पक्ष रखने को कहा है। याचिकाकर्ता का कहना था कि चुनाव से छह महीने पूर्व ‘जनहित’ का हवाला देकर टैब या लैपटाप जैसी चीजें बांटने से राजकोष पर बोझ पड़ता है तथा करदाताओं का पैसा बर्बाद होता है। इसी क्रम में मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने कहा है कि मुफ्त घोषणाओं के बारे में निर्वाचकों को जागरूक करने की आवश्यकता है। मतदाताओं को जानना चाहिए कि राज्य के वित्तीय हालात क्या हैं।
वस्तुस्थिति यह है कि चुनावों की संभावित घोषणा से पूर्व जिसे आमतौर पर चुनावी वर्ष कहा जाता है, उसमें सरकारों द्वारा बहुत सी घोषणाएं की जाती हैं। उनमें से कुछ का क्रियान्वयन तत्काल कर दिया जाता है और कुछ के क्रियान्वयन के लिए समय के रूप में मोहलत मांगी जाती है, जो संभावित चुनाव के बाद की होती है। इसी दौरान विपक्षी दलों द्वारा भी अपना अपना घोषणापत्र जारी किया जाता है, जिसका उद्देश्य सत्ताधारी दल को हटाकर सत्ता प्राप्त करना होता है। सत्ताधारी दल के पास सूचनाओं तथा वित्त का नियंत्रण होता है तथा उसके पास अपनी घोषणाओं को पूरा करने के लिए सरकारी मशीनरी मौजूद रहती है, अतः वह मतदाताओं को प्रभावित करने के मामले में विपक्षी दलों की तुलना में बेहतर स्थिति में होता है।
गौरतलब है कि जहां व्यक्तिगत तौर पर उम्मीदवार द्वारा निर्वाचकों को प्रभावित करने के लिए नकदी, वस्तु या सेवा उपलब्ध कराना गैर कानूनी है, वहीं राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए चुनावी वायदों पर कोई कानूनी रोक नहीं है। संगठित राजनीतिक दलों द्वारा निर्वाचकों को किए जाने वाले चुनावी वायदे वाला पहलू ज्यादा विवादास्पद है तथा और अधिक गहराई से पड़ताल की मांग करता है। ये चुनावी वायदे राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव जीतने के उद्देश्य से मतदाताओं से किए जाते हैं। इस स्थिति में निर्वाचन, मतदाताओं तथा उम्मीदवारों के मध्य एक करार बन जाता है, जिसे चुनाव जीतने के बाद निर्वाचित उम्मीदवारों द्वारा पूरा किए जाने की उम्मीद की जाती है।
सरकारों द्वारा नागरिकों को कुछ मुफ्त सुविधाएं या नकदी देना अथवा विपक्षी दलों द्वारा सत्ता में आने पर मतदाताओं को भविष्य में मिलने वाली सुविधाओं के मूल्यांकन में व्यक्तिनिष्ठ दृष्टिकोण हावी रहता है। राजनीतिक चश्मे से देखे जाने पर जिस घोषणा को एक दृष्टिकोण से ‘लोकलुभावन’ कहा जा रहा हो, उसे अन्य दृष्टिकोण से विचार करने पर ‘कल्याणकारी’ समझा जा सकता है। राजनीतिक दल भी अपनी सुविधा के अनुसार विपक्षी दलों द्वारा निर्वाचकों को किए गए वायदों को ‘रेवड़ी’ तथा अपने द्वारा किए गए वायदों को ‘लोक कल्याणकारी राज्य की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने’ के रूप में किए गए वायदे के रूप में देखते हैं। अब महत्त्वपूर्ण सवाल आता है कि क्या राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं को किए जाने वाले चुनावी वायदों से लोकतन्त्र की मूल भावना कमजोर होती है?
इसका कोई वस्तुनिष्ठ उत्तर नहीं है। इसका उत्तर इस बात पर निर्भर करता है कि लोकतन्त्र के प्रति हमारी धारणा कैसी है और हम किन मूल्यों या वस्तुओं को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। प्राथमिक स्वास्थ्य तथा बुनियादी शिक्षा की व्यवस्था करना राज्य का प्राथमिक दायित्व है। इन सुविधाओं की पहुंच तथा गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए सरकारी धन की व्यवस्था करने में शायद ही किसी को आपत्ति होगी। इसी तरह खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए अतिगरीबों को लगभग मुफ्त में अनाज उपलब्ध कराया जाना भी राज्य के प्राथमिक दायित्व की श्रेणी में आता है।
परंतु कुछ ऐसे विषय हैं जिसका उत्तर देना इतना सरल नहीं है। मसलन, राज्य द्वारा न्यूनतम रोजगार सुनिश्चित करने के लिए लाये गए कानून ‘मनरेगा’ को भी कई तत्कालीन अर्थशास्त्रियों ने राजकोष का अपव्यय बताया था। उन्होंने इस कानून के सूत्रधारों को ‘झोलावाला अर्थशास्त्री’ कहकर खारिज करने का प्रयास किया था। इसी प्रकार स्कूलों में छात्र संख्या बढ़ाने तथा पौष्टिक आहार प्रदान करने के उद्देश्य से चलाई जा रही ‘मिड डे मील’ योजना के बारे में भी कुछ लोगों की यह धारणा है कि इससे विद्यालयों का मुख्य फोकस पढ़ाई से हटकर भोजन का प्रबंध करने तक सीमित रह गया है।
समय के सापेक्ष मापदंडों में परिवर्तन स्वाभाविक है। निरपेक्ष गरीबी, जिसमें गरीबी को प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन कैलोरी उपभोग के रूप में समझा जाता था, के विपरीत गरीबी का आकलन करने के लिए बहुआयामी निर्धनता सूचकांक जैसे मापक विकसित हुए हैं। इस मापक के अनुसार सामान्य जीवनस्तर बनाए रखने के लिए आवश्यक न्यूनतम संसाधनों से वंचित लोगों को गरीब माना जाता है। सरकारों द्वारा सापेक्ष गरीबी को दूर करने के प्रयास अथवा राजनीतिक दलों द्वारा इसे दूर करने के लिए किए गए चुनावी वायदों को किस रूप में समझा जाना चाहिए?
कृषि उत्पादन प्रोत्साहित करने के लिए दी जाने वाली राजसहायता (सब्सिडी) के बारे में भी इसी तरह की धारणा बनाई जा सकती है। सब्सिडी के कई रूप हो सकते हैं, जैसे कृषि तकनीकी पर शोध के लिए दिए जाने वाले अनुदान, सिंचाई की सुविधा बढ़ाने हेतु नलकूप लगाने के लिए सब्सिडी, किसी विशेष फसल के उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ाना तथा उर्वरकों, बीजों अथवा कीटनाशकों के लिए दी जाने वाली सब्सिडी आदि। इसी प्रकार सरकारों द्वारा औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि के लिए प्रोत्साहन तथा मंदी से उबरने के लिए बेलआउट पैकेज की घोषणा अथवा किसी विशेष सेवा के विस्तार हेतु नियमों वा शर्तों में छूट आदि इसी श्रेणी में आते हैं।
कई बार आकस्मिकताएं उत्पन्न होने पर सरकारों को अपनी प्राथमिकताओं को छोड़कर अन्य क्षेत्रकों में व्यय करना पड़ता है। जैसे कोविड-19 की परिस्थिति उत्पन्न होने पर व्यय, अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए अथवा राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय आयोजन करवाने के लिए व्यय आदि के लिए भी मतदाताओं से अनुमति नहीं ली जाती।
प्रथमदृष्टया राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं को चुनाव पूर्व किए गए वायदे उन्हें प्रभावित करके सत्ता पाने का साधन लग सकते हैं, परंतु लोकतन्त्र निष्पक्ष चयन की स्वतंत्रता पर आधारित राजनीतिक व्यवस्था है। निष्पक्षता का मापदंड यह है कि खेल के नियम व शर्तें सभी के लिए एकसमान हों तथा खेल शुरू होने के बाद उन्हें बदला न जाय। यदि चुनावपूर्व वायदों को मतदाताओं को प्रभावित करने के प्रयास के रूप में देखने के आधार पर प्रतिबंधित कर दिया जाए, तो इस आधार पर सत्ताधारी दल बढ़त में आ जाएगा। यद्यपि संवैधानिक रूप से विधानमंडल, राजकोष का न्यासी होता है, परंतु व्यावहारिक रूप में सत्ताधारी दल को चुनावी फायदे के लिए राजकोष से व्यय करने के व्यापक अधिकार मिल जाते हैं।
दूसरे, कथित लोकलुभावन चुनाव पूर्व वायदों पर रोक लगाने के मामले में यह धारणा निहित है कि मतदाताओं के पास विवेकसम्मत तरीके से चयन की शक्ति नहीं है और वे किसी लालच के वशीभूत होकर ‘उचित’ निर्णय ले पाने में सक्षम नहीं हैं जबकि लोकतन्त्र का मूल आधार इसी धारणा पर आधारित है कि सामान्य हित की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति विमर्श के माध्यम से निःसृत होती है जिसका साधन निष्पक्ष निर्वाचन है।
तीसरा, राजनीतिक दलों को चुनाव पूर्व किए गए वायदों से रोके जाने पर यह मतदाताओं को राजनीतिक दलों से संभावित सौदेबाजी को भी प्रतिबंधित कर देगा। व्यावहारिक रूप से लोकतन्त्र नागरिकों तथा सरकार के मध्य सौदेबाजी की प्रक्रिया है। सौदेबाजी के माध्यम से कमजोर सामाजिक तबके राजनीति में दावेदारी करके अपने आप को सशक्त बनाते हैं। अगर सौदेबाजी के अर्थ को विस्तार दिया जाए तो कमजोर सामाजिक समूहों द्वारा यह सौदेबाजी सरकार के संभावित दावेदारों अर्थात राजनीतिक दलों के साथ भी की जा सकती है।
चौथा, यदि तथाकथित रेवड़ी कल्चर को समाप्त करने के लिए कोई कानून लाया जाए तो उसके अंतर्गत यह निर्धारित करना कठिन होगा कि किन वायदों को सशक्तिकरण के रूप में समझा जाए और किन्हें मतदान व्यवहार को प्रभावित करने के एवज में ‘रिश्वत’ देने अथवा ‘रेवड़ी’ बांटने के रूप में। यह किसी चुनावी वायदे को ‘रिश्वत’ अथवा ‘लोककल्याण’ के रूप में परिभाषित करने का एक अतिरिक्त काम न्यायपालिका को दे देगा।
जनसंप्रभुता की धारणा जनता के विवेक को पवित्र मानकर चलती है। निर्वाचन के माध्यम से जनता अपनी प्राथमिकताएं व्यक्त करती रहती है। राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव पूर्व वायदे मतदाता के चयन की स्वतन्त्रता का ही विस्तार है। इस संदर्भ में विधानमंडल द्वारा विधि बनाने या न्यायालय द्वारा निर्धारण किए जाने के बजाए इस मामले को निर्वाचकों के विवेक पर छोड़ देना ज्यादा उचित रहेगा।