मध्यप्रदेश के गुना में दलित दंपति के साथ पुलिस की बर्बरता संवेदनहीन भारतीय समाज और शासन व्यवस्था की कार्यप्रणाली का स्थायी भाव है। प्रशासन और पुलिस के जिन उच्चाधिकारियों के तबादले हुए उन्होंने अपनी प्रारंभिक प्रतिक्रिया में इस घटना को न्यायोचित ठहराने का प्रयास किया था। यह हमारे प्रशासन तंत्र की उस मानसिकता को दर्शाता है जिसमें असहाय पर अत्याचार करना और शक्ति सम्पन्न के सम्मुख शरणागत हो जाना सफलता का सूत्र माना जाता है।
इन उच्चाधिकारियों को अपने आचरण में कुछ आपत्तिजनक नहीं लगा। उन्होंने दलित दंपति की फसल उजाड़ने वाले, इन्हें बेरहमी से पीटने वाले, इनकी मासूम संतानों के साथ दुर्व्यवहार करने वाले और अंततः इन्हें आत्महत्या के लिए विवश करने वाले पुलिस और प्रशासनिक अमले के आचरण को सही ठहराया। इन अधिकारियों का तर्क था कि मॉडल कॉलेज के लिए दी गई जमीन पर बेजा कब्जा कर खेती कर रहे दलित दंपति ने बेजा कब्जा हटाने गए अमले के कार्य में बाधा डाली और इन पर हल्का बल प्रयोग अनुचित नहीं कहा जा सकता। यह भी कहा गया कि इस दंपति ने विषपान कर लिया था और भीड़़ इन्हें अस्पताल नहीं ले जाने दे रही थी इस कारण भी बल प्रयोग किया गया। पुलिस ने इस दंपति के विरुद्ध धारा 353, 141 और 309 के तहत मामला भी दर्ज कर लिया है।
जैसा कि इस तरह के अधिकांश मामलों में होता है सरकार बड़े धीरज और शांति से इस बात की प्रतीक्षा कर रही है कि मीडिया कोई नई सुर्खी ढूंढ ले और बयानबाजी कर रहे विरोधी दल इस मामले से अधिकतम राजनीतिक लाभ लेने के बाद अधिक सनसनीखेज और टिकाऊ मुद्दा तलाश लें। जब मीडिया और विपक्षी पार्टियों का ध्यान इस मुद्दे से हट जाएगा तब भी यह धाराएं कायम रहेंगी और दलित दंपति को पुलिस महकमे और न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार के बीच अपनी हारी हुई लड़ाई लड़नी होगी। मध्यप्रदेश सरकार ने पुलिस और प्रशासन के संबंधित उच्चाधिकारियों का तबादला कर दिया है किंतु यदि कोई यह सोचता है कि यह तबादला उनकी अमानवीयता और असंवेदनशीलता के मद्देनजर हुआ है तो यह उसकी भूल है। अधिक से अधिक उन्हें इस बात की सजा दी गई है कि वे एक दीन हीन, लाचार और असहाय दलित परिवार तक से बिना शोरगुल के जमीन खाली करवाने में नाकामयाब रहे और उन्होंने अपनी लापरवाही से मीडिया और विपक्षी दलों को सरकार पर निशाना साधने का मौका दे दिया है – वह भी ऐसे समय में जब उपचुनावों की तैयारी चल रही है।
यह पूरा घटनाक्रम देश के लाखों निर्धनों और दलितों के जीवन में व्याप्त असहायता, अनिश्चितता और अस्थिरता का प्रतिनिधित्व करता है। सरकारी जमीन पर वास्तविक कब्जा उस क्षेत्र के एक बाहुबली पूर्व पार्षद या स्थानीय नेता का था। उससे यह भूमि संभवतः कृषि कार्य के लिए बंटाई पर इस दलित परिवार द्वारा ली गयी थी। यह कोई असाधारण घटना नहीं है। हर कस्बे, हर शहर और हर महानगर में रसूखदार और बाहुबली जनप्रतिनिधि इस तरह के निर्धन लोगों को अपने आर्थिक लाभ हेतु या वोटों की राजनीति के लिए सरकारी जमीनों पर गैरकानूनी रूप से बसाते हैं। जो गरीब ऐसी सरकारी भूमि पर अपनी झोपड़ी या दुकान या ठेला लगाते हैं उन्हें अधिकांशतया यह पता भी नहीं होता कि यह भूमि सरकारी है। पुलिस, नगरीय निकाय और स्थानीय प्रशासन के भ्रष्ट कारिंदे एक नियमित अंतराल पर इनसे अवैध वसूली करते रहते हैं। भ्रष्टाचार का इन निर्धनों के जीवन में ऐसा और इतना दखल है कि यह वसूली इन्हें गलत नहीं लगती क्योंकि अपने हर वाजिब हक के लिए भी इन्हें भ्रष्ट तंत्र शिकार होना पड़ता है। इस तरह अवैध बस्तियां बसती हैं। फिर एक दिन अचानक विकास का वह बुलडोजर जो ताकतवर और सत्ता से नजदीकी रखने वाले लोगों की अवैध संपत्तियों को गिराने में अपनी नाकामी की तमाम खीज समेटे होता है इन बस्तियों तक पहुंचता है और बेरहमी से विकास का मार्ग प्रशस्त करने लगता है।
गुना के दलित परिवार पर निर्दयतापूर्वक लाठियां बरसाते पुलिसकर्मियों के प्रहारों के पीछे असली अपराधियों का कुछ न बिगाड़ पाने की हताशा को अनुभव किया जा सकता है। आज भी हमारे देश में लाखों गरीबों की जिंदगी साधनसंपन्न लोगों के लिए गुड्डे गुड़ियों के खेल की तरह है- इन्हें जब चाहा बसाया और जब चाहा उजाड़ा जा सकता है। उजड़ने के बाद इनकी सहायता के लिए देश का सरकारी अमला और देश का कानून कभी सामने नहीं आते। इन्हें फिर किसी बाहुबली या फिर किसी भ्रष्ट जनप्रतिनिधि की प्रतीक्षा करनी पड़ती है जो इन्हें किसी ऐसी जगह पर बसाता है जहां से विस्थापित किया जाना इनकी नियति होती है।
गुना में दलित परिवार के साथ जो कुछ घटा वह अपवाद नहीं है। अपवाद तो तब होता जब भूमि सुधारों के क्रियान्वयन द्वारा इन्हें खेती के लिए किसी छोटी सी जमीन का मालिकाना हक मिल जाता, राज्य और केंद्र सरकार की किसी ऋण योजना के अधीन- इन्हें बिना ब्याज का या कम ब्याज दरों पर ही- ऋण मिल जाता। इनके द्वारा उपजाए गए अन्न को कोई बिचौलिया नहीं बल्कि स्वयं सरकार समर्थन मूल्य पर खरीद लेती और बिना देरी इनके खाते में भुगतान भी कर दिया जाता।
अपवाद तब भी होता जब कृषि मजदूरों को कृषक का दर्जा और मान-सम्मान दिया गया होता और तब शायद प्रचार तंत्र द्वारा गढ़े गए आभासी लोक में सफलता के नए कीर्तिमान बना रही प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना और प्रधानमंत्री फसल बीमा योजनाओं का लाभ इस परिवार को मिल रहा होता। शायद तब प्रधानमंत्री के कोरोना राहत पैकेज में घोषित तथा सरकारी अर्थशास्त्रियों द्वारा गेम चेंजर के रूप में प्रशंसित ऋण योजनाओं की जद में भी यह परिवार आ जाता। किन्तु मीडिया द्वारा गढ़े गए चमकीले और रेशमी आभासी लोक से एकदम अलग यथार्थ की अंधेरी और पथरीली दुनिया है जहां दूसरों के खेतों पर आजीवन बेगार करना और सूदखोरों का कभी खत्म न होने वाला कर्ज लेना किसान की नियति है। अब ऐसे अपवादों की आशा करना भी व्यर्थ है। भारतीय राजनीति में अब जनकल्याण कर वोट बटोरने का चलन कम होता जा रहा है। इसका स्थान घृणा, दमन, हिंसा और विभाजन की रणनीति ने लिया है जो चुनाव जीतने के लिए ज्यादा कारगर लगती है।
विकास के हर पैमाने पर दलितों की स्थिति चिंताजनक है। देश के 68 प्रतिशत लोगों पर निर्धनता की छाया है, इनमें से 30 प्रतिशत लोग तो गरीबी रेखा से नीचे हैं। प्रतिदिन 70 रुपए से भी कम कमाने वाले इन लोगों में 90 प्रतिशत दलित हैं। देश में बंधुआ मजदूरों की कुल संख्या का 80 प्रतिशत दलित ही हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि देश में हर 15 मिनट में कोई न कोई दलित अपराध का शिकार होता है। प्रतिदिन 6 दलित महिलाएं बलात्कार की यातना और पीड़ा भोगने के लिए विवश होती हैं। शहरी गंदी बस्तियों में रहने वाले 56000 दलित बच्चे प्रतिवर्ष कुपोषण के कारण मौत का शिकार हो जाते हैं। वैसे भी मध्यप्रदेश उन राज्यों में शामिल है जहां दलितों पर होने अत्याचारों में चिंताजनक वृद्धि देखी गयी है। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2014 से 2018 की अवधि में दलितों पर होने वाले अत्याचारों में सर्वाधिक 47 प्रतिशत की वृद्धि उत्तर प्रदेश में दर्ज की गयी जबकि गुजरात 26 प्रतिशत के साथ दूसरे तथा हरियाणा एवं मध्यप्रदेश 15 तथा 14 प्रतिशत की वृद्धि के साथ असम्मानजनक तीसरे और चौथे स्थान पर रहे। क्या इन सब राज्यों का भाजपा शासित होना महज संयोग ही है? या फिर भाजपा जिस समरसता की चर्चा करती है उसमें समता के लिए कोई स्थान नहीं है- इस बात पर चिंतन होना चाहिए।
नेशनल दलित मूवमेंट फ़ॉर जस्टिस की 10 जून 2020 की एक प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार विभिन्न मीडिया सूत्रों के जरिए एकत्रित डाटा यह दर्शाता है कि लॉकडाउन की अवधि में दलितों पर अत्याचार की 92 घटनाएं हुईं। ये घटनाएं छुआछूत, शारीरिक और यौनिक हमले, पुलिस की क्रूरता, हत्या, सफाईकर्मियों के लिए पीपीई किट की अनुपलब्धता, भूख से मृत्यु, श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में मौत तथा प्रवासी मजदूरों की मृत्यु से संबंधित हैं। प्रायः यह देखा जाता है कि महामारी या अन्य किसी भीषण प्राकृतिक आपदा के दौरान जो आर्थिक-सामाजिक संकट उत्पन्न होता है वह उन समुदायों के लिए सर्वाधिक विनाशकारी सिद्ध होता है जो पहले से हाशिये पर होते हैं। कोरोना काल की वर्तमान परिस्थितियां इसी ओर संकेत कर रही हैं।
NDMJ_INTERVENTIONS-in-Atrocity-Cases2इस घटना पर राजनेताओं और राजनीतिक दलों के बयान आ रहे हैं। एक बयान पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ का है जिनके परिजन स्वयं उद्योगपति हैं तथा जिनके उद्योगपतियों से पारिवारिक संबंध हैं और इसी कारण जिन्हें उद्योगों की स्थापना के लिए छल-कपट, प्रलोभन, बल प्रयोग एवं शासकीय तंत्र के दुरुपयोग द्वारा ग्रामीणों से जमीनें खाली कराने का विशद अनुभव अवश्य होगा। एक बयान मायावती जी का है जो बसपा को सवर्ण मानसिकता से संचालित दलित राजनीति की धुरी बनाने में लगी हैं और दलित हितों को उससे कहीं अधिक नुकसान पहुंचा रही हैं जितना सवर्ण नेतृत्व प्रधान मुख्यधारा का कोई दल पहुंचा सकता था। बयान तो कांग्रेस के नये नये बागी ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी दिया है। उन्हें लगता होगा उनके राजनीतिक जीवन के इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण काल में उपचुनावों की चर्चा के बीच उनके किसी राजनीतिक शत्रु ने ही यह घातक दांव चला है। स्वाभाविक है कि इन बयानों में नैतिक बल नहीं है।
बयान शिवराज सरकार के मंत्रियों की ओर से भी आ रहे हैं। इन बयानों में पीड़ा से अधिक निश्चिंतता झलकती है। आखिर निश्चिंतता हो भी क्यों न। मंदसौर में जून 2017 में किसानों पर हुई फायरिंग में 6 किसानों की मौत के बाद हुए विधानसभा चुनावों में जनता द्वारा नकार दिए गए शिवराज आज पुनः सत्तासीन हैं। चुनावों का परिणाम कुछ भी हो, सत्ता वापस हासिल कर लेने का हुनर जिसे पता हो वह तो निश्चिंत रहेगा ही।
यह पूरा घटनाक्रम जिस परिस्थिति की ओर संकेत कर रहा है उसे लिखने और स्वीकारने का साहस नहीं हो पा रहा है- यदि आप निर्धन हैं, दलित हैं और ऊपर से किसान भी हैं तो नये भारत की विकास धारा में आपका वैसा ही स्वागत होगा जैसा गुना के इस दलित परिवार का हुआ।