लोकतंत्र में चुनाव लड़ने और सरकार बनाने का अधिकार संविधान द्वारा प्रदान किया गया है। बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर ने उपेक्षित वंचित वर्गों के हितों को आजाद नए भारत में मुख्यधारा से जोड़ने व संरक्षित करने की मुहिम को विशेष बल दिया और राजनीतिक विचरधारा को समानान्तर खड़ा करने में अहम भूमिका निभाई है। उपेक्षित वंचित वर्गों को सशक्त करने व सत्ता में अपनी भागीदारी को दर्ज करवाने के लिए पंचायत से लोकसभा तक उचित प्रतिनिधित्व के प्रावधान विभिन्न क्षेत्रों को चिन्हित करके किए गए। राजनीतिक ताकत के तौर पर कांशीराम ने बहुजन समाज (बहुसंख्यक समुदाय) को संगठित कर एक पार्टी के रूप में नई पहचान स्थापित की जो वर्तमान में राष्ट्रीय स्तर की राजनीतिक पार्टी है।
1984 में स्थापना के 25 वर्षों में बहुजन समाज पार्टी भारत की तीसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बन गई। बहुजन समाज पार्टी का मुख्य आधार उत्तर प्रदेश में ही रहा। अन्य प्रदेशों में पार्टी उतनी बड़ी सफलताएं हासिल नहीं कर पाई। 1989 में पहली बार उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में 13 सीटें जीत कर 2007 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने की उपलब्धि बहुजन समाज पार्टी की अब तक की सबसे बड़ी सफलता मानी जाती है।
राजनीतिक सिद्धांत के तौर पर बहुजन समाज पार्टी का आदर्श मुख्य रूप से मनुवाद व जाति व्यवस्था के मुखर विरोध पर केंद्रित है। इसके साथ दलित अधिकारों को प्राप्त करना व सत्ता में भागीदारी को बनाए रखने के उदेश्य के इर्द-गिर्द पार्टी की राजनीति मुख्यतः रहती है। मायावती द्वारा पार्टी की बागडोर संभालने के बाद सत्ता में भागीदारी के लिए कई तरह की राजनितिक संधियां व गठजोड़ पार्टी ने देखे हैं। मायावती की राजनीति के बारे में समीक्षक मानते हैं की उनकी राजनीति अनिश्चितताओं से भरी और अंतर्दवंद्व से अछूती नहीं। मायावती की राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी किसी से छुपी हुई नहीं है। मायावती के पास समर्पित मतदाताओं का एक बड़ा वोट बैंक है जो अपनी दलित पहचान को बहुजन समाज पार्टी से अलग करके देखना नहीं चाहता।
मायावती ने अपनी पार्टी के अन्य राज्यों में विस्तार के लिए काफी जतन किए लेकिन पार्टी को वैसी सफलता नहीं मिली जिसको मायावती ठोस रूप से भुना सकें। न ही किसी अन्य प्रदेश में मायावती कोई सशक्त नेता को ही स्थापित कर पाईं जो उस प्रदेश में पार्टी का आधार बढ़ने में सक्षम साबित हुआ हो। मायावती को कमोबेश केंद्र की राजनीति में अवश्य ही एक मत्वपूर्ण स्थान मिलता रहा है। इतने लम्बे राजनीतिक सफर में बहुजन समाज पार्टी अपने प्रभाव को पडोसी राज्यों हरियाणा-पंजाब में भी कुछ ज्यादा मजबूत नहीं कर पाई।
चुनावी राजनीति के इतर बहुजन समाज पार्टी का सामाजिक व राजनीतिक संगठन अधिकतर कमजोर ही रहा है। विभिन्न राजनीतिक मुद्दों पर पार्टी इन राज्यों में किसी मजबूत विरोध में अपनी भूमिका दर्ज करवाने में असफल ही रही है। चुनावों के समय पार्टी की गतिविधियां अवश्य दिखाई देती हैं लेकिन वो अधिकतर अन्य पार्टियों के बागियों के लिए एक मंच ही साबित हुआ है।
हरियाणा में बहुजन समाज पार्टी विधानसभा में कुछ खास हासिल करने में लगभग असफल ही रही है जबकि दलितों की संख्या यहां 2011 की जनगणना के अनुसार लगभग 20.7 फीसदी है। जनसंख्या प्रतिशत के आधार पर सबसे अधिक दलित फतेहाबाद जिले में (30.2 फीसदी), सिरसा में (29.91फीसदी), अंबाला में (26.25 फीसदी), यमुनानगर में (25.2 फीसदी), कैथल में (23.04 फीसदी), कुरुक्षेत्र में (22.30 फीसदी), करनाल में (22.56 फीसदी) , रोहतक में (20.43 फीसदी). गुरुग्राम में (13.07 फीसदी), फरीदाबाद में (12.36 फीसदी), मेवात में सबसे कम (6.9 फीसदी) है।
हरियाणा में अधिकतर बहुजन समाज के लोग (72 .74 फीसदी) ग्रामीण ही हैं जबकि (27.25 फीसदी) शहरी क्षत्रों में बसते हैं। साक्षरता दर लगभग 67 फीसदी है। हरियाणा विधानसभा की 90 सीटों में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 17 सीटें हैं। लगभग हर जिले में एक सीट आरक्षित है। सामाजिक असमानता एवं सामाजिक न्याय के विमर्श को हरियाणा में बहुजन समाज पार्टी अपने जनाधार में राजनीतिक तौर पर स्थापित करने में कमजोर रही है।
हरियाणा की राजनीति में बहुजन समाज पार्टी ने 2000 में शुरुआत की थी जब पहली बार 83 सीटों पर उसने उम्मीदवार खड़े किए और औसत (5.67 फीसदी) वोट हासिल किए लेकिन केवल एक सीट ही जीत पाई। 2004 में फिर से 84 सीटों पर चुनाव लड़ा पर वोट घट कर (3.22 फीसदी) रहा और एक ही सीट तक पार्टी की सफलता सीमित रही जबकि कांग्रेस ने एक बड़ी सफलता 67 सीटों के साथ हासिल की थी। 2009 में 86 सीटों पर चुनाव लड़ के वोट (6.73 फीसदी) एक ही सीट पर जीत दर्ज की। 2019 में 87 सीटों पर चुनाव लड़ कर एक भी सीट पार्टी जीत नहीं पाई।
देश में बदलती वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में बहुजन समाज पार्टी फिर से अपने जनाधार को मजबूत करने के उद्देश्य के तहत अपनी राजनीतिक ताकत को प्रासंगिक बनाने के प्रयासों में जुट रही है। केंद्र में भाजपा की सत्ता के आने के बाद बहुजन समाज पार्टी को अपने मजबूत जनाधार वाले राज्य उत्तर प्रदेश में गंभीर चुनौतियों से गुजरना पड़ा है। एक ओर जहां प्रत्यक्ष रूप से मायावती भाजपा सरकार की नीतियों के मुखर विरोध से बचती रहीं वहीं दूसरी ओर खुद के वोट बैंक को नवहिन्दूकरण के रंग में फिसलने से बचने के लिए असमंजस में फंसी हुई साफ दिखाई देती हैं। ‘बहुजन मिशन’ को पुन: जागृत करने की नई रणनीति पर फिर से पंजाब व हरियाणा के प्रादेशिक संगठनों को क्रियाशील किया गया है।
हरियाणा की राजनीतिक हलचल से ऐसी खबरें आ रही हैं कि भाजपा-जजपा गठबंधन के बीच सब कुछ सामान्य नहीं है। दोनों पार्टियों के बीच नीतिगत बयानबाजी भी हुई। कयास हैं कि दोनों के बीच अंदरखाने टकराव चल रहा है। दोनों ही पार्टियां अलग मुद्दों को लेकर जनता के बीच जाने वाली हैं और अपने-अपने जनाधार को सुरक्षित करने में लगी हुई हैं। भाजपा ताबड़तोड़ रैलियां प्लान कर रही है। वहीं जेजेपी भी अलग से रैलियां प्लान कर रही है। भाजपा का फोकस सिरसा में भी है। यह चौटाला परिवार का गढ़ रहा है। भाजपा इसे भेदना चाह रही है। दस साल के भाजपा के कार्यकाल के प्रति विभिन्न वर्गों के लोगों में अब रोष उभरने लगा है। एक समय मुख्य विपक्षी पार्टी रही इनेलो अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही है और अपने राजनीतिक सिद्धांत (कांग्रेस विरोध की राजनीति) में बदलाव करने को तैयार दिखाई देने लगी है। हाल ही में पार्टी के मुखिया अभय चौटाला के बयानों से साफ संकेत मिले हैं कि इनेलो के राजनीतिक दृष्टिकोण में परिवर्तन हो रहा है।
हरियाणा में भाजपा राज के लगभग दस साल होने को हैं लेकिन आमजन भाजपा व कांग्रेस की नीतियों की तुलना करने पर फिर से कांग्रेस पार्टी के प्रति विश्वास जताने की ओर बढ़ने लगे हैं। हरियाणा में 2004 से 2014 तक मुख्यमंत्री भूपेंदर सिंह हूडा के कार्यकाल को आमजन याद करने से गुरेज नहीं कर रहे। कांग्रेस की ओर बढ़ते लोगों के विश्वास ने सत्ताधारी पार्टी को चिंता में डाल दिया है। भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व अपनी सता को प्रदेश में बनाए रखने के लिए अलग-अलग रणनीतियों पर गंभीरता से काम करने में लगा हुआ है। हरियाणा में बदलते राजनितिक समीकरणों में बहुजन समाज पार्टी के प्रयास एक बड़े वर्ग के वोट बैंक को प्रभावित करने के स्पष्ट दिखाई देते हैं।
बसपा सुप्रीमो ने हरियाणा में समय से पहले चुनाव की आशंका को देखते हुए एक और चुनावी बाजी के लिए पदाधिकारियों को इसी वर्ष जुलाई में सचेत किया था। दिल्ली मीटिंग में मायावती ने हरियाणा के चुनाव को लेकर खास निर्देश भी दिए थे। मायावती की रणनीति अबकी बार ‘सर्व समाज’ को साथ ले कर हरियाणा में चुनाव में उतरने की है। हरियाणा में राजनीतिक समीकरणों को देखते हुए मायावती एक नए अवसर की तलाश में हैं जिसके अंतर्गत कोई सफलता बहुजन समाज पार्टी के लिए भाजपा के नेतृत्व से संतुलन बनाने में सहायक हो। वैसे मायावती पर भाजपा को मौन समर्थन करने के आरोप भी लगे हैं। बसपा को भाजपा की ‘बी’ भी टीम कहा गया।
हरियाणा के ग्रामीण मतदाताओं में बढ़ते असंतोष को मायावती बहुजन समाज पार्टी की झोली में डालने के लक्ष्य में प्रयासरत लगती हैं। इसी कड़ी में हाल ही में हरियाणा में बहुजन समाज पार्टी की जिलास्तरीय काडर संगठन समीक्षा बैठक हिसार में आयोजित की गई। बैठक में बहुजन समाज पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक आकाश आनंद, केंद्रीय प्रदेश प्रभारी हरियाणा पंजाब रणधीर सिंह बेनिवाल, केंद्रीय प्रदेश प्रभारी कुलदीप बालियान, प्रदेश अध्यक्ष राजवीर सोरखी शामिल हुए। हरियाणा प्रदेश में यह चौथी बैठक थी। पहले बहुजन समाज पार्टी की फरीदाबाद के पृथला विधानसभा यमुनानगर के जगाधरी एवं करनाल की असंध विधानसभा में बैठक हो चुकी है। बसपा के राष्ट्रीय संयोजक आकाश आनंद ने हरियाणा में अबकी बार बसपा की सरकार बनाने का लक्ष्य कार्यकर्ताओं को दिया है। आने वाले समय में हरियाणा में बसपा सुप्रीमो मायावती कोई बड़ी रैली करें तो अचरज नहीं होना चाहिए।
कांग्रेस की बढ़ती लोकप्रियता व दलित नेता मल्लिकार्जुन खड़गे के कांग्रेस अध्यक्ष बनाए जाने के बाद हरियाणा के लगभग 21 फीसदी दलित मतदाताओं के झुकाव को नियंत्रित करने के लिए बसपा की यह रणनीति किसको कितना राजनीतिक लाभ पहुंचाएगी ये चुनाव के परिणामों के बाद ही समझ आएगा।