आज़ादी की दुकान सज गयी है। देशभक्ति बिक रही है। प्लास्टिक के झंडों वाली देशभक्ति पर सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया है। देशभक्ति अब खादी के कपड़ों में बिक रही है। कोई पचास की खरीद रहा, कोई सौ की। कोई हजार की भी खरीद रहा।
सरकारी देशभक्ति हवा के अभाव में शांत है। दुकानों पर चौबीस घंटे देशभक्ति फहरा रही है। दसों दिशाओं से हवा चल रही है। देशभक्ति भी दसों दिशाओं में खड़ी है। किसी का सिर हिमालय की चोटी की तरह तना हुआ है। किसी का सिर नीचे बह रही नाली के मुँह में जाने को है।
उसी नाली में एक कुत्ता सोया है। अचानक वो उठता है। अपनी नींद की खुमारी दूर करता है। अपना शरीर भूकंप में कांप रही बहुमंजिली इमारत ही तरह हिलाता है। अपनी पूँछ का कीचड़ साफ़ करता है। पूँछ का कीचड़ नाली के मुँह के
पास शीर्षासन में खड़ी देशभक्ति के दामन में लग जाता है।
दुकानदार को कुत्ते की हरकत पर गुस्सा आता है। देशभक्ति का डंडा निकाल कुत्ते को उसके किये की सजा देता है।
‘अब ये देशभक्ति नहीं बिकेगी’, बुदबुदाता है। देशभक्ति का गोला बनाता है। उसे शैंपू वाले पानी में भिगोता है। अपनी कमाई की पेटी पर जमी धूल साफ़ करता है।
दूर खड़ा कुत्ता ये दृश्य देख भौं-भौं करता है।
संविधान के सभी अधिनियम ख़त्म हो गये हैं। अदालतों की शान में गुस्ताखी हो रही है। दोनों खामोश खड़े हैं, हाथ पीछे बाँधे। बाजार का बोलबाला है।
आज़ादी की दुकान सज गयी है। देशभक्ति बिक रही है। कितने की चाहिए?