आर्टिकल 19: हम उस बुलडोज़र पर बैठे हैं जो हमारी आज़ादी को कुचलते हुए आगे बढ़ रहा है!


क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई मतलब होता है?

सुदामा पांडेय ‘धूमिल’

धूमिल ने यह कविता आजादी के केवल 20 बरस बाद लिखी थी, लेकिन उसके बाद के 50 बरसों में क्या हुआ? थके हुए रंग खिल उठे? या उन्हें ढोने वाले पहियों में जान आ गयी? या कविता ही घिस गयी? मेरा जवाब है- कविता ही घिस गयी। आज के जमाने के हिसाब से कहें तो बोरिंग हो गयी। बेकार हो गयी। आउटडेटेड हो गयी।

नये ज़माने की आजादी के बारे में आगे ज़िक्र होगा, लेकिन पहले तो खुद से ही पूछ लें कि आजादी क्या है? आजादी क्या कोई चौहद्दी है? आजादी क्या कोई झंडा भर है? आजादी क्या कुछ चुनाव या चुनी हुई सरकारें हैं? आजादी क्या कोई बजट है? आजादी क्या तरक्की की कुछ मुनादियां हैं? या फिर कोई पार्टी, कोई नेता, कोई पासपोर्ट, कोई घोषणापत्र? रेलगाड़ियां हैं आजादी? हवाई जहाज़? फाइटर प्लेन? क्या आज़ादी का मतलब सेना है? तोपें हैं? परेड है? मीनार-ओ-मेहराब से होने वाले लाइव टेलीकास्ट हैं?

ये सारे सवाल अपने आप से पूछिए। जवाब भी वहीं मिलेगा। अगर आपका जवाब हां हैं, तो इस लेख को यहां से आगे न पढ़ें। जवाब कुछ और, तो आपका स्वागत है। आपको अजीब लग सकता है कि जिस वक्त में आज़ादी के मायनों को समझने की कोशिश हम कर रहे हैं वह समय बहुत भयावह है, लेकिन इसके साथ ही आज़ादी को समझने के लिए बहुत मुफीद भी। तो चलिए, हम अपनी आज़ादी की खोज करते हैं। लाउडस्पीकर से हो रहे लॉनों में नहीं। ट्विटर की फॉलोइंग में नहीं। नारों इश्तेहारों में नहीं। अपने आसपास। गलियों-मोहल्लों में। अपनी जिंदगी में। अपनी जुबान में। अपने जज़्बात में। हालांकि यह मुश्किल काम है। चुनौती भरा भी।

हमारे चारों तरफ लाशें बिखरी हुई हैं। औरतों, बच्चों और बुजुर्गों तक की लाशें। दवा के इंतजार में आदमी से तब्दील हुई लाशें। मदद के इंतजार में तब्दील हुई लाशें। बाढ़ के पानी में तैरती हुई लाशें। घर पहुंचने के रास्ते में तब्दील हुई लाशें। ये सारी लाशें जब जिंदा थीं तो आज़ादी की खोज कर रही थीं। अपने-अपने हिस्से की आज़ादी। उन्हें यह यकीन था कि उनके हिस्से की आज़ादी का मतलब इतना तो होगा ही कि उन्हें अकाल मौत मरने से बचा लें। उन्हें बिना सांस के तड़पने न दें। बिना दूध के छटपटाने न दें। बिना इलाज के मरने न दें। क्या हुआ उस खोज का? आज़ादी के लहराते हुए झंडों, गीतों, गानों और तरानों के बीच आज़ाद मुल्क का नागरिक होने की खोज में हमारे हाथ में क्या आया?

यह सब मौतें कुछ लोगों की मौतें नहीं थीं। हमारी आज़ादी की मौतें थीं। आज़ादी के अर्थों की मौतें थीं। आडंबरों के नीचे आज़ादी के उसूलों की मौतें थीं। लेकिन आज़ादी ऐसे पूरी तरह नहीं मरती। धीरे-धीरे मरती है। मरने से पहले चीखती है। चिल्लाती है। जोर लगाती है। नागरिकों का आह्वान करती है- मैं तुम्हारी आज़ादी हूं, मुझे बचाओ। मुझे संवारो और सजाओ, लेकिन हम अपनी धुन में होते हैं। व्यक्तिवाद की धुन में। अंधे राष्ट्रवाद की धुन में। हमारे हाथों में बचाने को थाली थमा जाती है। घंटियां थमा दी जाती हैं। और हम समझ नहीं पाते कि हमें उस बुलडोजर पर बैठा दिया गया है जो हमारी आज़ादी को कुचलता हुआ लाल किले की तरफ बढ़ता जा रहा है और हम बोले जा रहे हैं भारत माता की जय। वंदे मातरम।

लेकिन आज़ादी तब भी नहीं मरती। उसकी थमती हुई सांसें फिर से जी उठती हैं, बशर्ते कहने वाली जुबानों में आवाज बची हो यह कहने को कि आज़ादी को कुचला जा रहा है। लिखने वाली कलमों में इतनी स्याही बची हो कि लिख सकें- आज़ादी को मिटाया जा रहा है। सोचने वाले दिमागों में इतनी चेतना बची हो कि हमारे हाथों में आज़ादी को काटने के लिए कटार थमा दी गयी है। एक बार अपनी जुबान को छूकर देखिए। वो वही बोल रही है जो देखा है? एक बार अपनी आंखों की पुतलियों को हिलाकर देखिए। उसने वही देखा है जो सामने है? एक बार अपनी धड़कनों को सुनिए और अखबारों के पन्नों में, टीवी के पर्दे पर आज़ादी को खोजने की कोशिश कीजिए। कोई जल्दी नहीं। इत्मीनान से।

क्या सोच रहे हैं? आज़ादी के बारे में? मत सोचिए इतना। आज़ादी आपके दम से नहीं है। न कभी थी। आप भ्रम में हैं। आज़ादी जयकारों से नहीं निकलती है। आज़ादी जेलों की फाटक के अंदर कैद कर दी गयी उन ज़िदों से निकलती है जो मिट जाने से पहले ये कहना नहीं छोड़तीं कि आज़ादी को कुचला जा रहा है। उसे मिटाया जा रहा है। आज़ादी को भीड़ नहीं बचाती है। मुट्ठी भर लोग बचाते हैं। वही उसे संवारते हैं। झूठ कहती हैं किताबें कि आज़ादी की लड़ाई में देश का हर तबका शामिल था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा के लोग इसी देश के लोग तो थे। गोडसे भी इसी देश में रहता था, लेकिन आरएसएस को तो आज़ादी नहीं चाहिए थी? यह तिरंगा भी नहीं चाहिए था। संविधान भी नहीं चाहिए था। वही संघ देश चला रहा है। और संघ पर बोलने वालों को जेलों में डाला जा रहा है।

इसका मतलब तो ये हुआ कि आज़ादी की चाहना और देश पर शासन के बीच कोई सीधा रिश्ता नहीं है। आज़ादी को अक्षुण्ण बनाए रखने के नारों के साथ आयी हुई सत्ताएं सबसे पहले आज़ादी को कुचलती हैं। ये पूरी दुनिया की रस्म है। भरोसा न हो तो प्रशांत भूषण से पूछ कर देख लीजिए जो कानून के सबसे बड़े जानकारों में हैं इस देश के और जिन्हें आज ही सुप्रीम कोर्ट ने दोषी ठहराया है। वे भी यही कहेंगे क्योंकि उन्हें आज सबसे बड़ी अदालत से बता दिया गया है कि उनके पास दो ट्वीट लिखने की भी आज़ादी नहीं है।

आजादी जैसे-जैसे परिपक्व होती है, देश के लोगों की खुशी बढ़ती है। दुश्वारियां कम होती हैं। जीना आसान होता है। विश्व खुशी सूचकांक 2020 की रिपोर्ट कहती है कि भारत अकेले 2019 में चार पायदान नीचे गिर गया। 156 देशों की सूची में हम 144वें नंबर पर हैं। दुनिया भर में कुल 87 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं। इनमें से 18 करोड़ लोग अकेले भारत में हैं। हमारी संवेदनशीलता की हालत ये है कि यही तय नहीं कि गरीबी रेखा कहा किसे जाए। इस पर अलग-अलग कमेटियों और सरकारों की अलग-अलग राय है। गुजरात और महाराष्ट्र देश के सबसे विकसित राज्य माने जाते हैं। विकसित का मतलब कमाई, लेकिन यह कमाई किसके लिए है? सरकार की अपनी रिपोर्ट कहती है कि अकेले महाराष्ट्र में सवा दो करोड़ से ज्यादा लोग गरीबी रेखा के नीचे जी रहे हैं। कुपोषण से हर साल 45 हजार बच्चे मर जाते हैं। गुजरात की लड़कियां भयावह कुपोषण का शिकार हैं। वैश्विक भुखमरी सूचकांक में भारत नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान तक से पीछे है। 117 देशों की सूची में हम 102वें नंबर पर हैं। मतलब हम अपने सारे नागरिकों को गारंटी नहीं दे सकते कि वे भूखे नहीं सोएंगे।

यूनेस्को की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में करीब 2 करोड़ 87 लाख ऐसे युवा हैं जो पूरी तरह अशिक्षित हैं। सीएमआइई की अप्रैल में आई रिपोर्ट कहती है कि देश में 25 से 29 साल की उम्र के ऐसे 17 फीसदी युवा हैं जो पूरी तरह बेरोजगार हैं। वहीं 20 साल से ज्यादा उम्र के करीब 14 करोड़ 30 लाख ऐसे युवा हैं जो नौकरी की तलाश में जुटे हुए हैं। करीब 12 करोड़ लोग पूरी तरह बेरोजगार हैं और इनमें से एक बड़ी आबादी हताश होकर नौकरी की तलाश ही छोड़ चुकी है।

दलितों-आदिवासियों, मुसलमानों और दूसरे भाषायी अल्पसंख्यकों को लेकर जो घृणा है उसे राष्ट्रवाद का नाम दिया जा रहा है। जॉर्जटाउन इंस्टीट्यूट फॉर वीमेन, पीस एंड सिक्योरिटी की एक रिपोर्ट कहती है कि भारत महिला शांति और सुरक्षा सूचकांक में 133वें नंबर पर आता है। थॉमसन रॉयटर्स के एक सर्वे में दावा किया गया है कि महिलाओं पर अत्याचार के लिहाज से भारत दुनिया का सबसे खतरनाक देश है। घरेलू काम के लिए मानव तस्करी, जबरन शादी और बंधक बनाकर यौन शोषण के लिहाज से भी भारत को खतरनाक करार दिया है जबकि महिलाओं के लिए खतरनाक टॉप 10 देशों में पाकिस्तान छठे नंबर पर है। सात साल पहले इसी सर्वे में भारत महिला सुरक्षा के मामले में दुनिया में चौथे नंबर का सबसे खतरनाक देश था।

यूनाइटेड स्टेट्स कमीशन ऑन इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम (USCIRF) ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में भारत में कम होती धार्मिक आजादी पर चिंता जतायी है। भारत को फिर से दूसरे दर्जे का देश माना गया है। वैश्विक प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में 180 देशों में भारत 142वें स्थान पर है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में पत्रकारों को सरकार, सुरक्षा बलों तथा चरमपंथी समूहों से ख़तरा है। ये रिपोर्ट कहती है कि हिंसा के जोख़िम ने भी मीडिया के कामकाज को बुरी तरह प्रभावित किया है।

तो कहां खोजी जाय आज़ादी? अयोध्या में? सरयू के घाट पर? या फिर अमेज़न और फ्लिपकार्ट की मेगा सेल में? बड़े ब्रांड्स की सालाना छूट में? चुनी हुई सरकार में? सरकार के चेहरों में? या धड़कनों की भीतर कुचले जा रहे आजादी के अर्थों के एवज में लाल किले से उछाली जाने वाली कुछ खैरातों में? क्या यही था आज़ादी का मकसद? या फिर हमारे पुरखों ने समानता, बंधुत्व और न्याय पर आधारित एक संप्रभु देश का सपना देखा था? मेरे दोस्त! आज़ादी जनधन का खाता नहीं है जिसमें स्वाभिमान के नाम पर जिल्लत की किश्तें हर चुनाव से पहले अलग-अलग बहानों से डाल दी जाएं। आज़ादी एक हूक होती है। सब कुछ गंवा देने के खौफ़ को कुचलती हुई, जो सैंडर्स की सांस रोक देती है।

और हां, धूमिल की कविता बासी नहीं हुई है। न थकी है। न बोरिंग हुई है। उसके हर्फों के बीच में ही आज़ादी आज़ाद है, वरना हम तो कब का उसे दफ़न कर चुके। क्या कहते हो? उसे फिर से जिंदा करने की कुव्वत रखते हो?



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