काबुल हवाई अड्डे की 15, 16, 17 अगस्त 2021 की तस्वीरें 25 मार्च 2020 को दिल्ली के आनंद विहार बस टर्मिनल की तस्वीरों से अलग हैं क्या? अफगानिस्तान से कई दिनों तक शायद ऐसी ही तस्वीरें आती रहेंगी। ये 25 मार्च 2020 से लेकर पूरे मई तक हमारी नजरों से गुज़री प्रवासियों के पलायन की तस्वीरों से कैसे भिन्न होंगीं? हवाई जहाज़ के पहियों से गिरकर हुई अफगानी नागरिकों की मौत क्या रेल की पटरी पर थक-हार कर सोये 16 भारतीय नागरिकों की मौत से कम दिल दहला देने वाली हैं?
अफगानी नागरिक कहीं भी भाग जाने को आतुर हैं और उन्हें जो कुछ भी साधन मिल रहे हैं वे अपनी जान जोखिम में डालकर भाग जाना चाहते हैं। क्या यह स्थिति हमारे हिन्दुस्तानी नागरिकों की पूरे दो महीने नहीं रही, जो किसी भी तरह अपने घर, अपने गाँव पहुँच जाना चाहते थे? उम्मीद की जा सकती है कि अफगानिस्तान की यह अफरा-तफरी दो महीनों तक इसी तरह मुसलसल नहीं चलेगी। उन्हें अच्छी या बुरी किसी न किसी तरह की कोई सरकार मिल ही जाएगी जो अपनी शर्तों पर ही सही अपने नागरिकों को नागरिक समझेगी।
अफगान में सत्ता का हस्तांतरण हो रहा है। कल ही तालिबान ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की है। बंदूक और बमों से गुज़र कर हो रहे सत्ता के इस हस्तांतरण में इतनी नागरिक अफरातफरी होना निहायत आम बात है। यह बुरा है। बहुत बुरा है, लेकिन जब तक दुनिया के लोगों में सत्ता पाने का जरिया हिंसा और बंदूक बनी रहेगी तब तक ऐसे दृश्य आम रहेंगे। बहुत दिन नहीं गुजरे जब हमने इज़रायल और फलस्तीन के बीच बंदूकों और मिसाइलों की धमक के बीच नागरिकों की ऐसी ही अफरातफरी देखी है। ज्यादा दिन शायद न बीतें जब हमें दुनिया के किसी कोने से ऐसी ही तस्वीरें फिर से न देखने को मिलें। मेघालय, जो हमारे गणराज्य का एक अहम हिस्सा है, वहां बीते सप्ताह भर से यह नागरिक अफरातफरी मंज़र-ए-आम हो चली है।
सत्ता के हस्तांतरण के लिए उपजी हिंसा और महज एक सनकी के अहं की तुष्टि के लिए पैदा की गयी अफरातफरी के बीच क्या वाकई कोई भेद है? या अपने अहं की तुष्टि के लिए मौखिक आदेश से नागरिकों को राज्यविहीन, सरकारविहीन बना देने जैसी अवस्था के स्रोत क्या अलग-अलग हैं? आप कह सकते हैं- लेकिन तालिबान को तो अफगान ने चुना नहीं है? तब क्या एक चुनी हुई सरकार को लाइसेन्स मिल जाता है कि वो महज एक फरमान से जनता को उसी तरह बदहवासी में सड़क को सौंप दे जैसे एक अनिर्वाचित सत्ता तालिबान ने बंदूक के ज़ोर पर अपने यहां किया है?
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क्या हिंसा की कार्रवाई केवल बंदूक के जरिये हो सकती है या बाजाफ़्ता मतदान की प्रक्रिया अपना कर भी उसे सर-अंजाम दिया जा सकता है? हिंसा के लिए बंदूक उठाना या खुद को तबाह करने या आत्मोत्सर्ग की भावना से लैस होकर किसी उद्देश्य की पूर्ति करना प्राय: इस तरह के उग्रवादी संगठनों का चारित्रिक लक्षण है, वो चाहे अफगान में मौजूद तालिबानी हों या हमारे देश के जंगलों में भटकते माओवादी हों या कश्मीर के उग्रवादी हों या हमास हो या दुनिया में कहीं और कोई और संगठित शक्ति हो। हिंसा जब तक साधन है तब तक वह उतना ही साधन है जितना झूठे प्रचार से सत्ता पाना या धर्म और मजहब की आड़ लेकर युवाओं को, समाज को बरगलाना।
साधन के तौर पर हिंसा की स्वीकार्यता केवल उनमें नहीं होती जिन्हें सत्ता पाना है, बल्कि वे उसकी स्वीकार्यता को उन लोगों तक संप्रेषित करने में कामयाब हो जाते हैं जिनके बल पर उन्हें सत्ता हासिल हो सकती है। हिंसा की अपील करने वाले के लिए हिंसा जहां सत्ता पाने का साधन बन जाती है वहीं जिन लोगों से अपील की जा रही है उन लोगों के लिए हिंसा साध्य बन जाती है। उकसावे के लिए बंदूक की ज़रूरत नहीं है। मौखिक उकसावे का असर किसी बंदूक से कम नहीं होता, बल्कि उससे कहीं ज़्यादा और दीर्घ है। एक समाज जब किसी के साधन को अपना साध्य समझ लेता है तब हिंसा का एक ऐसा सिलसिला चल पड़ता है जिसकी समाप्ति महज सत्ता का हस्तांतरण हो जाने पर नहीं होती बल्कि वह बनी रहती है इसी समाज में, इन्हीं युवाओं के दिमागों में और पूरे सामाजिक-राजनैतिक वातावरण में।
महिलाओं के लिए तालिबान किसी कहर से कम नहीं है, लेकिन क्या महिलाओं के लिए कोई भी सत्ता (रिजीम) किसी कहर से कम है? मानव सभ्यता के इतिहास में उन कहानियों को छोड़ दिया जाए जहां औरत-पुरुष के बीच वाकई काम का बंटवारा नहीं हुआ था और जिसे आदिम युग कहा जाता है। उसके बाद जितने भी रिजीम आए, वे महिलाओं के लिए किसी कहर से कम नहीं थे क्या? जब अनाधिकारिक तौर पर देश का सबसे ताकतवर इंसान कहता है कि महिलाएं, एक पत्नी के तौर पर पुरूष की चाकर हैं या उन्हें बाहर निकलने की ज़रूरत नहीं है या उन्हें आर्थिक गतिविधियों से दूर रखा जाना चाहिए, तो क्या इस एजेंडे में हमें तालिबान के स्वर और उनकी आवाज़ नहीं सुनायी देती?
तालिबान फरमान देता है कि कोई भी ख़वातीन कहीं भी अकेले नहीं निकल सकेगी, उसके साथ पुरुष का होना अनिवार्य है? क्या इस फरमान को हमने पहली दफा तालिबान के हवाले सुना है? आपका नहीं पता लेकिन मेरी एक भाभी जिनकी उम्र अब 60 साल है, आज भी एक दहलीज से दूसरी दहलीज तक जाने के लिए किसी देवर को आवाज़ लगाती हैं। पति को सांप काट ले तो भी अकेले डॉक्टर के यहां तक नहीं जा सकतीं। उनसे कब और किसने ये कहा होगा नहीं मालूम, लेकिन उन्हें पता है कि एक ख़वातीन को अकेले दहलीज से बाहर नहीं जाना है। क्या मेरी भाभी के खुद अपने लिए अपनायी गयी इस आचार संहिता में हमें तालिबान की हिंसक कार्यवाहियों की धमक नहीं सुनायी पड़ती है?
यह इस्लाम को मानने वालों की बात नहीं है जिसे दुनिया में सबसे क्रूर मजहब बताया जाता है। यह बात एक ऐसे धर्म के अनुयायियों की है जो खुद को सबसे सहिष्णु और उदार कहता आया है। इतना उदार कि यही उसका अवगुण बन गया है और उसे हिंसक और उग्र बनाये जाने की राजनैतिक परियोजनाएं खुले आम ज़ोरों पर चलायी जा रही हैं।
हिंसक कब्ज़ा बनाम कानूनी मंजूरी: लोकतंत्र में संसद पर एकाधिकार के दो चेहरे
आज़ादी एक आकांक्षा है। आज़ादी स्वत: कोई प्राप्य नहीं है। एक यात्रा है। एक मूल्य है। एक उपस्थिति है जिसे हर समय महसूस किया जाना है। आज़ादी यह नहीं है कि सरेआम पत्थरों से मार डालना अनुचित है लेकिन घूँघट में ज़िंदगी बिता देना उचित है। बुर्का, घूँघट से कम बुरा नहीं है। दोनों का उद्देश्य महिलाओं को अदृश्य बनाना है। महज उनकी सेवा लेना और उसकी मौजूदगी को खारिज कर देना दोनों की सोची-समझी साजिश है।
बच्चों के लिए तो एक निर्मल समाज बनाने के बारे में ईमानदारी से अभी तक पूरी दुनिया ने नहीं सोचा है। उनकी दुनिया इस बेदर्द और चालाक दुनिया के भीतर सदियों से दम साधे कहीं छुपकर बैठी है। अपने लिए एक अदद प्यारी दुनिया, प्यारा पड़ोस, प्यारा समाज देखने को लालायित बचपन कब किशोर, युवा और प्रौढ़ में बदल जाता है इसका एहसास हम खुद भी नहीं कर पाते। बचपन महज एक अवस्था ही तो है जिसे ढल जाना है और फिर इसी दुनिया के मुताबिक खुद को ढाल लेना है।
अफगान, हिंदुस्तान से बहुत दूर नहीं है। भौगोलिक नजदीकी ज़हन की नजदीकी कैसे बनती है इसके लिए हमें अपने अपने भीतर बैठे तालिबान को महसूस करना होगा। हमें अपने अंदर कई-कई तालिबान दिखलायी देंगे। तालिबान एक अनुमोदित व्यवस्था के समानान्तर एक दीनी व्यवस्था को खड़ा करने का उद्यम है, तो क्या यहां एक सुव्यवस्थित सांवैधानिक व्यवस्था को एक समानान्तर व्यवस्था के तहत चलाने का राजनैतिक, सत्ता संरक्षित और पोषित प्रयास नहीं किया जा रहा है? यह इत्तेफाक नहीं है कि यहां भी दीन का ही सहारा लिया जा रहा है। यह दीन हिन्दुत्व के आवरण में है। काफिर की परिभाषाएं भी लगभग समान हैं, बल्कि यहां काफिर अब वो भी हैं जो दीन के अलावा सत्ता की आलोचना कर दें। क्या हम अपने आसपास तालिबान का एक स्वीकृत स्वरूप देख पा रहे हैं?
इन्हीं आँखों से उन पाँच बुर्कानशीं महिलाओं को हम देख पा रहे हैं जो काबुल में राष्ट्रपति भवन के पास प्लेकार्ड लेकर चारों तरफ मची हिंसक अफरातफरी के बीच बेआवाज होकर इस माहौल से अपनी असहमति दर्ज़ करा रही हैं। तमाम वीभत्स दृश्यों के बीच यह एक दृश्य दुनिया को जीने लायक बनाने का सपना हमारी आँखों को दे सकता है। उन महिलाओं को सलाम जिन्होंने बताया कि आज़ादी अफगानियों के लिए महज़ एक सुविधा या सर्विस नहीं बल्कि एक जीवन-मूल्य है।
अफगान हाल-हाल के इतिहास में आज़ादी के लिए लड़ा है। वैश्विक राजनीति और समृद्ध देशों के लालच ने उन्हें आज़ादी के ऐसे-ऐसे और लगभग अंतिम विकल्प दिये हैं जिससे अफगानी केवल वैसी आज़ादी जी सकें कि वे किसका गुलाम होना चाहते हैं। जैसे महिलाओं को यह आज़ादी है कि वे किसकी चाकरी करना चाहती हैं बल्कि यह भी नहीं है, जिसके साथ बांध दिया उन्हें उनकी गुलामी करना है। आज़ादी की आकांक्षा ही आज़ादी पैदा करती है। गुलामी एक परिस्थिति है जो एक परियोजना के तहत थोपी जाती है।
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एक समय में दो देशों को देखना, उनकी एक सी नियति को देखना, उनके एक से अतीत को देखना और उनके एक से भविष्य को देखना असहज करता है लेकिन आँखों का क्या कीजिए जो समय के आर-पार यूं ही वक़्त की मोटी-मोटी दीवारों को भेद लेती हैं। इन्हें भेदने दीजिए ऐसी दीवारें जिनके पार हमारा बेहतर भविष्य कुछ आकार ले सकता है।
जब हम अफगान को देखें तो अपने आसपास भी देखें। जब तालिबान को देखें तो अपने आसपास बन रहे, बन चुके और सदियों से बने आए तालिबानों को भी देखें। फिर दुख का एक सार्वभौमिक अध्याय खुलेगा। भौगोलिक सीमाओं से पार। अपनी आँखों को एक बार साफ पानी से धोएं और फिर देखने की कोशिश करें। ज़रूर अभी सदमा लगेगा कि आसपास हम कितने-कितने तालिबानों से घिरे हैं लेकिन अगर आँखें यह देखने का अभ्यस्त हो गयीं तो इन सदमों के पार एक बेहतर दुनिया भी दिखेगी क्योंकि तब तक हम बेहतर मनुष्य हो रहे होंगे।
दुख सबको इसीलिए मांजता है। मिला लेना चाहिए अभी सारे दुखों को। इसे मीडिया की नज़रों से नहीं, मनुष्यता की अपनी और केवल अपनी नज़रों से देखिए।