कलियुग से दुखी जनता को सतयुग और त्रेता में वापस खींच ले जाने के सरकारी नुस्खे


याद करिये, रामायण और महाभारत का पहला प्रसारण कब हुआ था? वह किस सरकार के अधीन हुआ था? क्या उस वक्त भी केवल ‘मनोरंजन’ हीं इसका ध्येय था? नहीं था, इसीलिए आज भी कई मंदिर ऐसे हैं जहां पर रामायण के किरदार राम और सीता की तरह पूजे जाते हैं, वहां बाकायदा उनकी तस्वीर स्थापित है। मेरे बचपन में जब रामायण और महाभारत का पुनः प्रसारण हो रहा था तब भी यानी नब्बे के दशक में लोग हाथ-पांव धोकर और अगरबत्तियाँ जलाकर रामायण और महाभारत देखने बैठते थे। यह इस बात को स्थापित करता है कि हमारे भीतर का भक्त मारा नहीं जा सकता। उलटे वह हल्की सी चिंगारी से फफक उठता है। यही रहस्य है जिसे जनता को नियंत्रित करने की एक सुसंगत वैचारिकी के रूप में अब सरकारें अपना चुकी हैं।

जब पूरा देश आर्थिक कठिनाइयों से जूझ रहा था तब हमारी सरकार सीएए, एनपीआर, एनआरसी का रोना रो रही थी। जब दुनिया कोरोना से लड़ रही थी तब हमारे महाशय, महाशय ट्रम्प की सेवा में तल्लीन थे। पिछले वर्ष जब चुनाव में सरकार से उसका रिपोर्ट कार्ड मांगा जाना था तब उनके गुर्गे पाकिस्तान-पाकिस्तान, जम्मू-कश्मीर, आतंकवाद और राम मंदिर का मुद्दा करीने से उछाल कर देश को दिग्भ्रमित कर रहे थे। इस उधेड़बुन में स्वास्थ्य, रोजगार और शिक्षा को जैसे हमेशा के लिए दबा दिया गया। मौजूदा हालात में पूरी दुनिया कोरोना वायरस से ग्रस्त है और देश भर में लगभग डेढ़ महीने से ऊपर का लॉकडाउन हो चुका है, तो प्रवासी मजदूरों को छोड़ अवाम के कान पर जूं तक नहीं रेंग रही। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्हें पुरानी अफ़ीम नई पैकेजिंग में निगलने को दे दी गयी है। वन टाइम टास्क को अब फुल टाइम कर दिया गया है।

शाम हो या सुबह, लोग टीवी की स्क्रीन से चिपक कर रामायण और महाभारत की पुरातन कथाएं सुनकर गर्वित हो रहे हैं। इससे यह एहसास ही नहीं होता कि देश में लाखों-करोड़ों लोग पैदल बिना खाये-पीये सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा कर रहे हैं, अपने घर पहुंचने के लिए। रास्ते में उन पर पुलिसिया डंडे बरस रहे हैं, बिना गुनाह के लोग जेलों में ठूँसे जा रहे हैं। दर्जनों गर्भवती महिलाएं सड़कों पर खुले आसमान के नीचे बच्चे जन रही हैं और उसके बाद उन्हें ले कर सैकड़ों किलोमीटर चल भी रही हैं। कहीं कोई फांसी लगा रहा है तो कोई भूखे मर रहा है। कोरोना से हुई मृत्यु को किसी अन्य कारण से मृत्यु बताया जा रहा है। शायद सही मायनों में यह कलयुग है। इस कलियुग का असर लोगों पर न पड़ जाए, तो सरकार ने उन्हें सतयुग और त्रेता में ले जाने का प्रोजेक्ट चला रखा है।

जहां सरकार के दावे रोज खबर-दर-खबर झूठे साबित हो रहे हैं, वहीं रामायण और महाभारत का प्रचार-प्रसार बहुत तेजी से आगे बढ़ रहा है। रामायण और महाभारत दोनों ही अपने आप में रूढ़िवाद की अप्रतिम मिसालें हैं। एक ओर महाभारत में जहां राजा खेल-खेल (बेहतर शब्दों में ‘जुए में’) में अपनी ‘सामूहिक पत्नी’ को हार जाता है तो अपनी ‘पत्नी को जुए में हारने’ की घृणित घटना से पछतावा महसूस करने के बजाय वह अपने ही भाइयों से युद्ध करता है और उन्हें छल-कपट-प्रपंच से हराता है। पत्नी को जुए में दांव पर लगाना आज के फेमिनिस्टों को झकझोर देने के लिए काफी है, लेकिन अपने भाइयों से युद्ध करना और वह भी तब जब गलती खुद की हो, कहां से धर्म या धर्मी का कृत्य लगता है?

रामायण में एक माता, किसी अन्य को नहीं बल्कि अपने पुत्र को 14 वर्ष के लिए वनवास पर भेजती है। वह पुत्र जब वनवास में रहता है तो अपनी पत्नी के लिए एक राक्षस से युद्ध करता है। यह कहीं से क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए नहीं लड़ा जाता बल्कि केवल और केवल जीतने की प्रेरणा से छल और कपट का इस्तेमाल करते हुए लड़ा जाता है। आखिरकार जब वह अपनी पत्नी को राक्षस के चंगुल से मुक्त कराने में सफल होता है तो उसे लोगों की कानाफूसी की वजह से त्याग देता है, वो भी उस वक्त जब वह रानी गर्भवती होती है।

ध्यान रहे, यह तुलसी की नहीं, रामानंद सागर की रामायण है। वैसे मूल रामायण तो महर्षि वाल्मीकि ने लिखी थी, तुलसी बाबा तो रामचरितमानस लिख गये। यानी रामानंद सागर की रामायण तीसरे दरजे का संस्करण है जो हम इतने चाव से देख रहे हैं। क्या हम अपने बच्चों को ऐसे थर्ड ग्रेड आदर्श देना चाहते हैं? शायद आप न चाहते हों लेकिन सरकार बेशक यही चाहती है।

आपने शायद ध्यान न दिया हो लेकिन महाभारत खत्म होने पर जो चौपाई गायी जाती है उससे यह भान होता है कि कोई भी चीज अगर लयबद्ध तरीके से लोगों को सुनायी जाय तो लोग उसकी विश्वसनीयता पर सवाल नहीं उठाते। उलटे भीतर की भक्ति भभक उठती है। इस लय का असर इतना तगड़ा होता है कि महाभारत का आखिरी एपिसोड शूट करने के बाद उसके किरदार तक खुद फफक कर रोने लगे थे। सोचिए, जो नाटक कर रहा है और जान रहा है कि वो नकली पात्र है, जब वो रो सकता है तो दर्शक की क्या बिसात।

आज मूल महाभारत का आखिरी एपिसोड आने वाला है। हो सकता है इसके बाद कुछ और नाटक शुरू हो जाए फंसाये रखने के लिए। सतर्क रहना है इस बार सुंदर लय में छुपी अफ़ीम से। सरकार का भरोसा नहीं है कि कलियुग से दुखी जनता को कब और कैसे वो सतयुग, त्रेता या द्वापर में वापस खींच ले जाय।


लेखक स्तम्भकार और डेटा रिसर्चर हैं


About सूर्य कांत सिंह

लेखक एक सशक्त पाठक हैं जो सांख्यिकी और दर्शन का अध्ययन कर रहे हैं। वह डेटा एनालिटिक्स सलाहकार के रूप में काम करते है और शाषन, सार्वजनिक नीति, राजनीति, अर्थशास्त्र और दर्शन समेत अन्य विषयों पर स्तम्भ लिखते हैं।

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