बात बोलेगी: इंस्पेक्टर मातादीन की वापसी उर्फ़ इंस्पेक्टर मातादीन रिटर्न्स


इस बार मातादीन का विमान आर्यावर्त में उतरा। ये बताना हालांकि मुश्किल है कि आर्यावर्त के विशाल भूगोल में किस हिस्से में, लेकिन इतना यकीन से कहा जा सकता है कि इस बार वो ज़्यादा शक्तिशाली होकर आये हैं। इस बार सुनते हैं उनके हाथ में कोई मोबाइल, एक आइपैड, एक लैपटॉप और कुछ अन्य प्रकार के यंत्र भी देखे गए हैं। सुना है कि वह दिन रात के अथक परिश्रम से देश भर की पुलिस को अलग-अलग समय पर ट्रेनिंग दे रहे हैं। उनकी ट्रेनिंग देने की क्षमता में इस बार काफी बढ़ोत्तरी हुई है। महज़ एक घंटे में वो सामने बैठे हजार-दो हजार पुलिस अधिकारियों को मामलों की जांच करने के हुनर में पारंगत कर दे रहे हैं।

ख़बर तो यह भी है कि अपने आने से काफी पहले उन्होंने अपने काम आने वाले तमाम मीडिया के संपादकों से बात की थी। इसके अलावा उनकी पहुँच सीधा नागपुर तक बतलायी गयी है। अक्सर वो देश के किसी हिस्से में अफ़सरानों की ट्रेनिंग करने के बाद अपने चार्टर्ड प्लेन से नागपुर जाते दिखलायी दिए हैं। इस बात के विजुअल एविडेंस तो नहीं हैं, लेकिन धरती से ही देखकर कई लोगों ने जो हुलिया प्लेन का बताया, उसकी दिशा, गति आदि के बारे में जानकारियाँ जुटायीं उसका सार यह है कि वे प्राय: अडानी के जहाज में जाते हैं। कभी-कभी लोगों ने उन्हें अंबानी के जहाज़ से उतरते हुए और बाद में नागपुर के एक नेता के मुलगे की हार्ले डेविडसन बाइक से रेशमबाग की ओर जाते देखा है।

अच्छा, इस बार वो पुलिस यूनि‍फ़ॉर्म में नहीं दिखलायी दिए। अब वे मस्त कोट, पैंट और टाइ में रहते हैं। सुना है कि आर्यावर्त में अपने इस स्पेशल मिशन पर आने से पहले वो पाकिस्तान जैसे किसी दुश्मन देश में कई साल तक जासूस बनकर रहे। पकड़े भी गए, लेकिन दुश्मन देश को चकमा देकर भाग आए। आजकल समझ लीजिए वह देश के नंबर 2 आदमी हैं। नंबर दो मतलब दो नंबरी नहीं, देश के दूसरे सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति।

जब वह पाकिस्तान में छिप कर रहे और महीनों-महीनों तक एक चारदीवारी के भीतर बने रहने को मजबूर हुए, तो उस बीच उन्होंने ऐसे-ऐसे रिसाले पढ़ डाले कि उनका दिमाग कंप्‍यूटर से तेज़ दिमाग वाले चाचा चौधरी से भी तेज चलना सीख गया। ज़ाहिर है ज़्यादातर रिसाले जासूसी, तिलि‍स्म, ऐयारी आदि के ही थे, लेकिन वक़्त काटने के लिए अंडरवर्ल्ड, विदेश नीति, आंतरिक सुरक्षा, कानून-व्यवस्था और सरकार की चाक-चौबन्द रखवाली से संबंधित भी कई ऐतिहासिक, समकालीन और मौजूदा वैश्विक साहित्य उन्‍होंने पढ़ डाले।

उनकी काबिलियत इस कदर बढ़ी है कि देश में अगर कोई बीमारी फैल जाए, तो वे उसका असल स्रोत पता लगा सकते हैं। अगर देश के आंतरिक नक्शे में फेरबदल करना पड़ जाए तो वे उस हिस्से को सालों टाइट रख सकते हैं जहां से विरोध या विद्रोह की थोड़ी भी आशंका हो। अगर लोग किसी दैवीय आपदा के कारण उत्पन्न हुए संकटकाल में अपने नोट बदलने के लिए बैंको की लाइन में खड़े हों और सरकार के खिलाफ कुछ बात मन में भी सोच रहे हों, तो ये जाकर उसकी गर्दन दबोच सकते हैं। इन्हें मतलब तत्काल या निकट भविष्य में होने वाले किसी भी क्राइम, विरोध और अभिव्यक्ति के खतरे को भाँप लेने की जबर्दस्त शक्ति मिल गयी है।

जब कभी तन्हाई में लेटकर वे खुद सोचते हैं और अपनी ही तुलना उस मातादीन से करते हैं जो चाँद पर गया था और जिसका विस्तार से वर्णन न्यायमूर्ति श्री हरीशंकर परसाई जी ने अपने जबलपुर प्रवास के दौरान किया था, तब वह मंद मंद मुसकुराते हैं कि तब कैसा तो बुद्धू-सा था। कितना कितना समय यूं ही सोचने में चला जाता था कि क्राइम सीन कैसे लिखूँ। किसी को धमकाने से पहले कितनी कितनी बार सोचना पड़ता था। मन ही मन कितनी बार तो रिहर्सल करनी पड़ती थी और इन्वेस्टि‍गेशन करना तो मतलब जैसे आता ही नहीं था। डंडे के ज़ोर पर अपराध कुबूल करवाना भी कोई हुनर हुआ जी? यह तो कोई भी करा लेगा!

वो तो भला हो कि चाँद जैसा छोटा सा शान्तिप्रिय उपग्रह था। लोगों पर उसी धमकी का असर हो जाता था और मेरी वाहवाही हो जाती थी। कई बार ये सोचकर गुदगुदा भी लेते हैं कि अगर आज वो अपने नवीन हुनर के साथ चाँद पर चले जाएँ तो स्साला उपग्रहाधिपति बना दिए जाएंगे। क्या तो तूती बोलेगी चांद पर! वैसे भी अब बेटों को बड़े-बड़े अंतरराष्ट्रीय व्यापारों में लगा ही दिया है। सरकार उनका ख्याल रख ही लेगी।

तो क्या एक बार चाँद पर चला जाए? अगर सब ठीक रहा तो बाकी का जीवन वहीं गुज़ार देंगे। इस ख्याल पर उन्हें बाद में हालांकि काफी ग्लानि हुई और खुद को एक बार नहीं कई बार हल्के से धिक्कारा भी, कि अभी तो सरकार को हर तरफ से उनकी ज़रूरत है। पूरी दुनिया यह मानती है कि वे ही इस सरकार के संकटमोचक हैं। और फिर ऐसा ओहदा क्या खुद पंतप्रधान से कम है? जहां पंत प्रधान भी वही करे जो वो कहें? इतना सब सोचकर कई बार वो चाँद पर जा बसने का ख्याल छोड़ चुके हैं।

किसी बड़े कवि ने कहा था कि “…अगर अबकी लौटूँ तो वृहत्तर इंसान बनकर लौटूँ।“ इस बार जो वो लौटे तो कमतर इंसान बनकर कर लौटे। आज के दौर में एक वृहत्तर इंसान से बेहतर है कमतर इंसान बनकर जीना। जीना आसान हो जाता है और दुनिया भी आसानी से जीने देती है। कोई यह सवाल नहीं उठाता कि जब आप ट्रैक्टर पर बैठे थे, आपकी तशरीफ़ के नीचे एक कुशन जैसा कुछ दिखायी दे रहा था?

कमतर इंसान से कोई यह भी पूछने का साहस नहीं कर सकता कि जब देश निर्धनतम होते जा रहा है; 130 करोड़ लोगों के देश में 90-95 करोड़ कीड़े-मकोड़ों के माफिक जी रहे हैं; युवा बेरोजगार होकर सड़कें नाप रहे हैं; महंगाई घरों में चूल्हे नहीं जलने दे रही है; देश की संपत्तियाँ मीडिया की भांति औने-पौने दामों में बिकी जा रही हैं; ऐसे में आठ हज़ार करोड़ (800000000000) का एक विमान आपको क्यों चाहिए? यह कमतर इंसान और वृहत्तर इंसान की धौंस का अंतर है। मातादीन जी को यह बात अच्छे से समझ में आ गयी है और उन्हें गर्व है कि वो जब लौटे तो थोड़ा और कम इंसान बनकर लौटे। चाँद पर जब गए थे तो न चाहते हुए भी थोड़ा ज़्यादा इंसान थे। बहरहाल…

इस बार मातादीन जी कुछ नायाब फार्मूले लेकर अपने साथ लौटे हैं, जो बेहद अचूक हैं। बोलती बंद करने के दो अचूक नुस्खे हैं उनके पास। पहला, जो बोले उसको साज़िशकर्ता बना दो। “कैसे?” एक ट्रेनिंग कार्यक्रम में किसी जूनियर पुलिस अधिकारी ने यह सवाल मासूमियत से उनसे पूछ लिया था। चारेक साल पहले की घटना है। किसी विश्वविद्यालय में छात्र संगठन, आंदोलन आदि का दैनिक अभ्यास कर रहे थे। बाद में यह मामला कई महीनों तक देश के मिजाज पर तारी रहा। उस अधिकारी के जवाब में इन्होंने परत दर परत इस नुस्खे के बारे में बताया।

वे फरमाते हैं कि आज के जमाने में सबके पास मोबाइल फोन होता है, उसमें इन्टरनेट भी होता है, इन्टरनेट के मार्फत दुनिया से संपर्क स्थापित हो सकता है। बस लिखो कि एक मोबाइल की ज़ब्ती हुई है, उसमें कॉल रिकर्ड को जब खंगाला गया तब पता चला कि इसकी बातचीत सरहद पार बैठे मसूद अज़हर से होती है। गूगल पर भी इस्लामिक टेररिज़्म के बारे में कई बार सर्च किया गया है। आइएस का झण्डा मोबाइल के स्क्रीन सेवर में था। कुछ तस्वीरें तो होती हैं न मोबाइल में, उन्हें तत्काल सेल में भेजो। वहां बैठे लोग मेरी प्रविधि के बारे में जानते हैं। वे तत्काल आपको बीस पचास फोटो जैश-ए-मोहम्मद, आइएस के इलाकों में उनके झंडे के साथ बनाकर भेज देंगे। वैसे तो सेल ही उन तस्‍वीरों को मीडिया तक पहुंचा देगा, लेकिन बंद लिफाफे में जब अदालत को देना हो उससे पहले कुछ एक्सक्लूसिव फोटोज़ पुलिस की तरफ से मीडिया को भेजी जानी चाहिए। बस बन गयी बात।

अब बात इस पर नहीं होगी कि उस दिन विश्वविद्यालय में हुआ क्या था बल्कि बात इस पर होगी कि हमारे बीच, शिक्षा के मंदिर में, कैसे दुर्दांत आतंकवादी पल रहे थे। वो भी जनता के टैक्स पर? आखिर पढ़ने-लिखने की कोई उम्र होना चाहिए या नहीं? पूरा देश इसी पर बहस करेगा। लेकिन, उस जूनियर अधिकारी ने बीच में ही माफी मांगते हुए टोका कि अदालत में तो सब साफ़ हो जाएगा। हम तो सबूत नहीं दे पाएंगे। इस पर मातादीन ने ज़ोर का ठहाका मारा- “तो तुम क्या सोचते हो, हमें केस जीतना है क्या? हमें तो यह बताना है कि हम क्या-क्या और कैसे-कैसे कर सकते हैं? याद रहे, इतनी बड़ी आबादी को नियंत्रण में रखने के लिए किसी इक्का-दुक्का को सज़ा दिलवाने से कुछ नहीं होगा। हमारा फार्मूला है कि लोग सज़ा से नहीं, बेइज़्ज़त होने और बरी होने तक की कार्यवाही से भी डरना सीख लें। और फिर क्या होगा? हम केस हार भी गए तो हमें पहले दिन से पता है कि हम हारने के लिए ही बने हैं। बरखुरदार! याद रखो, हार कर जीतने वाले को बाज़ीगर कहते हैं। सुना नहीं क्या?”

दूसरा फार्मूला और भी सिंपल है। वो क्या? ये किसी अलग प्रशिक्षण शिविर का वाकया है जब किसी सीनियर अफसर ने अपनी समस्या इनके समक्ष रखी।

उस अफसर ने बताया कि हाल ही में एक दलित कन्या का गैंगरेप हुआ है हमारे इलाके में। हमने भरसक कोशिश की कि उस केस को स्थानीय थाने में ही रफ़ा-दफ़ा कर दें, लेकिन पता नहीं क्या हुआ कि हमने आधा-अधूरा रजिस्टर कर के लड़की को अस्पताल भेज दिया। तब तक ये खबर लीक हो गयी। सोशल मीडिया के कारण काफी हो हल्ला हो गया। खैर, लड़की की हालत नाज़ुक थी, बहुत मारा गया था, जीभ तक काट ली थी। और गर्दन, रीढ़ की हड्डी वगैरह भी टूट गयी थी। किसी तरह उसे दिल्ली के अस्पताल भेजा, लेकिन वो बच न सकी। अपराधी अपने सूबे के प्रधान की बिरादरी के थे और उनके प्रभाव से पार्टी को बहुत लठैत भी मिलते हैं। तो आनन-फानन में उसे देर रात गाँव ले जाकर जला दिया गया। यह खबर भी जाने कैसे मीडिया को लग गयी। मीडिया को भी जैसे क्या हो गया, संपादकों को खुद मुखिया ने फोन लगाए लेकिन कुछ तो बड़ा हुआ कि मीडिया पिल गयी इस मामले में। सारी रिपोर्टर छोरियाँ! मानें ही न! खैर, अब यह मुद्दा विपक्ष ने लपक लिया। विपक्ष ने ज़िद पकड़ ली कि परिवार से मिलेंगे। परिवार से मिलवाना मतलब असलियत सामने लाना। बड़ी बदनामी हुई। जिन्हें बचाना चाहा वो और भी मुश्किल में फंस गए। बैठे-बिठाये एक लो प्रोफाइल केस हाइ प्रोफाइल हो गया।

यहां लगा मातदीन का दूसरा नुस्खा। नुस्खा ये कि सबसे पहले ये देखो कि इस वक़्त लॉ ऑफ द लैंड क्या है? जिस समय की तुम बात कर रहे हो, उस समय देश में महामारी कानून और आपदा प्रबंधन कानून लागू हैं और यही सर्वोच्च हैं। धारा 144 तो अपने डंडे के साथ चलती है, वो तो है ही। करो हजार लोग नामजद, एफआइआर में अज्ञात ही लिखो, लेकिन तुम लोग चीन्हे रहो। जब जो मिलता जाए उसे अंदर लेते जाओ।

अब बारी है कि ये अराजक स्थिति क्यों बनी? क्या इस अराजकता का मकसद सरकार को अस्थिर करना था? क्या इस अराजकता से सूबे में दंगे फैलने का खतरा था? क्या विपक्ष को इस तरह आक्रोश पैदा करना चाहिए कि लोग लॉ ऑफ द लैंड का सम्मान भूल जाएं? नहीं न? तो लगाओ मुकद्दमे। लेकिन इतने से लोग मानेंगे नहीं। अब आता है असली नुस्खा। एक वेबसाइट बनवाओ। सेल को बोल दो, वो इसमें माहिर है। उस वेबसाइट पर दंगे कैसे किए जाएं, इससे संबंधित कुछ सामग्री लगाओ।

‘’पर सर, ऐसी सामग्री तो नागपुर में मिलेगी, वहां से इतने जल्दी कैसे मँगवाएं?’’

‘’बेवकूफ़!”

मातादीन ने गुस्से में उस अफ़सर की तरफ देखा और बोले, ‘’हिन्दुस्तानी पद्धति नहीं चलेगी। कुछ नए शब्द गढ़ो। जैसे स्लीपर सेल, टुकड़े-टुकड़े गैंग आदि, नहीं तो कहीं विदेशी साइट्स से उठाओ। दुनिया पर भी नज़र रखा करो। अभी अमेरिका और हांककांग में कितने प्रोटेस्ट हुए, वहां से सामग्री जुटाओ। सेल वाले जानते हैं, वो कर देंगे। तुम अपना लॉ एंड ऑर्डर सँभालो। प्रचारित करो कि इस्लामिक आतंकवादी थे। कपड़ों से पहचान में आ जाते थे। उनके बाजुओं में बहुत ताकत थी और ऐसा लगता है कि उन्हें ट्रेन किया गया हो। एक के पास से कुछ कागज़ भी मिले जो अरबी में थे। इस बीच सेल वाले इस बेवसाइट के जरिये इस्लामिक देशों से भेजे गए पैसों का हिसाब तैयार कर लेंगे। तुम अपनी बात पर अड़े रहो। मीडिया को बताते रहो कि पीड़ित लड़के के भाई और आरोपी के बीच 31 फरवरी को दिन में 19 बार बात हुई। इस बीच कुछ को इस काम में लगा दो कि जब समविचारी और लगभग आनुषंगिक पार्टी का नेता वहां आए, तो उस पर कोई फ्रिंज एलेमेंट काली स्याही फेंक दे।

देखो, रेप, बलात्कार जैसे कानून बहुत सख्त हैं। उनमें पीड़ित को सबूत नहीं देने होते हैं बल्कि आरोपी को यह सिद्ध करना होता है कि वो निर्दोष है। ऐसे में अपनी सफलता यह है कि पीड़ित अपने बेगुनाह होने के सबूत लिए अदालत-अदालत भटके। जब वह कमजोर पड़े, उसे रिमांड पर धर लो इस्लामिक फंडिंग के मामले में या झुमरीतलैया में पकड़ी गयी दो गायों की विवेचना में। सरकार भी इसमें आपको लीड देगी। वो एक बयान देंगे तो कार्यवाही को सही दिशा मिलती रहेगी। रात को टीवी देखो। अगले दिन उस पर सबूत जुटाओ। और इस तरह नौकरी में तरक्की पाते जाओ।

‘’लेकिन अगर सरकार बदल गयी, तब?’’ यह वाजिब सवाल एक अधिकारी ने सबकी तरफ से पूछ डाला? ‘’तो क्या नुस्खे तो वहीं रहेंगे’’?

हां, हमारा काम सरकार बचाना है। अगर नयी सरकार नहीं बचना चाहे तो हरि इच्छा।

और इतना कह कर सुना है कि इंस्पेक्टर मातादीन अंतर्ध्‍यान हो गए। जाते-जाते भभूत जैसा कुछ छिड़क गए जिससे सारे अधिकारी उनकी तरह सोचने लगे।

अभी-अभी सूचना मिली है कि वो हरियाणा में किसानों के बीच देखे गए हैं जहां विपक्ष का एक नेता किसानों के आंदोलन को समर्थन देने पहुंचा है।


कवर तस्वीर: साभार The Caravan


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