बल कई तरह का होता है। आत्मबल, नैतिक बल, संख्याबल, धनबल, बाहुबल जैसे कई तरह के बल परस्पर एक-दूसरे के सामने आते रहते हैं। इनके आपसी टकराव या मेल से हमारी ज़िंदगी चलती रहती है। ये व्यक्तिगत और सामाजिक बल हैं। व्यक्ति इन तमाम बलों को खुद के लिए अर्जित करना चाहता है या इनके प्रभाव में आकर सरेंडर करता रहता है। व्यक्ति और समाज में मौजूद इन तमाम तरह के बलों के आधार पर देश की राजनीति भी अपने लिए बल अर्जित करती है। जिन बलों का अनुपात उसके पास अधिक हो जाता है उसी के मुताबिक वह दिखती और काम करती है।
हमारी राजनीति में संख्या ही सबसे बड़ा बल है। बल खुद साध्य है या साधन? यह एक गंभीर विमर्श का मसला है। अगर यह खुद साध्य है तब जैसी दुनिया हमें मिली है हमें उसी में रहने की आदत डाल लेना चाहिए। अगर यह एक साधन मात्र है तो ज़रूर इस दुनिया में कई तरह के बदलाव होते रहेंगे, जैसे अब तक होते आए हैं। कभी इस देश के आत्मबल और नैतिक बल ने दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य को यहां से जाने को विवश किया था। आज संख्याबल बिना किसी नैतिक बल या आत्मबल के महज़ जज़्बात को भड़का कर सत्तासीन हो गया है।
इतिहास के सबक तो यही हैं कि परिस्थिति के अनुसार ये बल कभी साधन हैं और कभी साध्य हैं। जहां नैतिक बल या आत्मबल का विलोप हो जाता है वहां संख्या का बल, धनबल और बाहुबल से मिलकर एक अलहदा राजनीति पैदा करता है। इसका अनुभव हमें अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में हो रहा है आजकल।
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ये बल इंसान के वजूद में आने के साथ आते गए हैं। सबसे पहले शायद इस दुनिया में इंसान के पास बाहुबल ही रहा होगा। यही वजह है कि उसकी सत्ता आज भी हमारे समूहिक अवचेतन का हिस्सा है। मांसपेशियाँ दिखाते नायकों के पोस्टर यूं ही दीवारों को गंदा नहीं कर रहे हैं। वह हमारे सामूहिक अवचेतन का अभिन्न स्मरण हैं जो अ-रिक्त बना रहता है।
आज़ादी के बाद इस देश में एक नए बल का आगमन हुआ। उस बल से यह तय होने लगा कि कौन सा बल कब कहां आरोपित किया गया और उससे जो हासिल हुआ वह वैध है या अवैध। इसे विधि का बल यानी कानून का बल कहा गया। अँग्रेजी में इसे फोर्स ऑफ लॉ कहा गया। अगर किसी कृत्य के पीछे विधि का बल नहीं है तो उसकी वैधता नहीं होगी। यह बल चाहे बाहुबल हो, धनबल हो या संख्याबल हो या धर्म का बल हो या जाति का बल हो या पितृसत्ता का बल हो या कोई भी बल हो। उसे विधि से जाकर दस्तखत लेने होंगे कि उसके द्वारा आरोपित बल और उसका प्रयोग वैध है या नहीं। अगर विधि ने कहा कि यह अवैध है तो आपका बल आपको मुबारक। आप उसका अवैध ढंग से उपयोग नहीं कर सकते।
वैध-अवैध का यह द्वंद्व तमाम तरह के बलों के संदर्भ में पूरी दुनिया में पहली बार तब आया था जब सभ्यता ने अपने अपने लिए आधुनिक राष्ट्र-राज्य बनाए। आधुनिक राष्ट्र-राज्य यानि इतिहास की तमाम स्वीकृत और प्रचलित बेड़ियों से मुक्ति की एक व्यवस्था जहां अलग-अलग बलों को धारण करने वाले या बिना किसी बल के यानि निर्बल लोग भी एक सफ़ में खड़े होकर अपने लिए एक सामूहिक वर्तमान और भविष्य के निर्माण को साथ आए।
हर बल धीरे-धीरे घटने के लिए अभिशप्त है। बाहुबल उम्र के लिहाज से घटता है तो धनबल समय के साथ नई आवक के बिना घटने लगता है। बढ़ता है तो आत्मबल या नैतिक बल लेकिन ये अब गुजरे जमाने की बातें हैं इसलिए यह गुजरते जमाने के साथ घटता गया। विधि और संख्या अब भी ऐसे बल हैं जिनका इकबाल कायम है।
महज़ सत्तर-चौहत्तर साल में बाहुबल, धनबल, धर्मबल, जातिबल सब के सब संख्याबल में विलीन हो गए। इस संख्याबल ने एक सत्ता का निर्माण किया। यह सत्ता विधि के बल के सामने खड़ी हो गयी यानि आज कई बलों के मिश्रण से बना संख्याबल एकमात्र विधि के बल के समक्ष खड़ा है।
यह विधि का ही बल है जो आज इनका सामना कर सकता है। नैतिक और आत्मबल तो आज यूएपीए, राजद्रोह और रासुका से भयभीत होकर अपने होंठ सिले बैठे हैं। विधि का बल हालांकि इन्हें प्राप्त है लेकिन इसे भी किसी का तो बल चाहिए। होना यही चाहिए था कि जिस तरह संख्याबल में तमाम आदिम बल समाहित हो गए उसी तरह विधि के साथ कम से कम नैतिक बल, आत्मबल, सच के बल आदि-आदि को साथ आना जाना चाहिए था लेकिन विधि के बल के तीर जिन तरकशों में हैं और ये तरकश जिनके कंधों पर हैं उन्हें राज्यसभा में जाना है या किसी राज्य का राज्यपाल बनना है। इसलिए विधि का बल नितांत अकेला खड़ा नज़र आता है।
आज संख्या का बल जिस तरह तमाम बलों को जांघ ठोककर ललकार रहा है; जो दिन को रात, सुबह को शाम, फव्वारे को लिंग, लिंग को पहाड़, पहाड़ को दरिया, दरिया को संसद कहने और मनवाने पर उतारू है; जिसे यह पता है कि उसका कहना तब तक जायज़ नहीं है जब तक उसके कहे को विधि का बल प्राप्त नहीं हो जाता; तो वह विधि के आंगन में भी ताल ठोककर घुसा जा रहा है। और हमने देखा है उसके सामने विधि को लड़खड़ाते हुए, हकलाते हुए, लार टपकाते हुए…
अब जब विधि का बल परास्त होता दिख रहा है तो वह करार भी टूटता नज़र आ रहा है जो सभी तरह के बलधारकों और निर्बलों को एक सफ़ में खड़ा करता था। विधि के बल के रीतने से हमारे बीच का नागरिक रीत रहा है; नागरिक समाज के बीच का करार रीत रहा है; और ये सब रीतने से हमारे बीच का मनुष्य रीत रहा है।
धर्मानुग्रही न्यायप्रणाली के दुष्प्रभाव
विधि की हैसियत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि दुनिया की सबसे बड़ी जम्हूरियत की सबसे बड़ी अदालत यह सुनने के लिए मजबूर हुई जाती है कि एक लिंगनुमा आकृति लिंग है या नहीं; लिंग है तो उसमें मौजूद छेद क्या लिंग के लक्षण हैं। क्या कोई भी लिंगनुमा आकृति लिंग ही होती है? या लिंग को लिंग कहने के लिए कोई मानक हैं? ये मानक कैसे तय होंगे? ब्ला ब्ला ब्ला…. यह विधि की प्रतिष्ठा तो कतई नहीं है बल्कि यह मजबूरी है। यह उसकी निस्सहायता है।
जिस विधि को अभी तमाम ज़रूरी और गंभीर मामले सुनने की फुर्सत नहीं मिली वो लिंग की उम्र, आकार, प्रकार, उसमें मौजूद छेद आदि की विवेचना में मुब्तिला है! दिलचस्प है! लेकिन विधि को यह मालूम है कि उसके प्रांगण में संख्याबल अपने लाव-लश्कर के साथ बैठा है। और उस बल पर विधि का कोई नियंत्रण नहीं रह गया है। संख्याबल के सामने विधि का बल मिमियाता हुआ प्रतीत हो रहा है।
इस विधि से हमारी नियति जुड़ी है। अगर यह हारती है तो हम भी संख्या के समक्ष अपना सिर नवा लेंगे। अगर यह जीतती है तो उसी संख्या की आँख में आँख डालकर बात होगी। पहले भी विधि हारी है और उसके परिणाम यह हुए हैं कि संख्याबल का हौसला बढ़ा है। संख्याबल का अहंकार बढ़ा है। संख्याबल का प्रकोप बढ़ा है। उसका आतंक बढ़ा है और उसका रुतबा बढ़ा है।
विधि हारेगी या जीतेगी यह सब कुछ उसी को तय करना है लेकिन संख्या ने यह तय कर लिया है कि उसे केवल जीतना और जीतना है। उसका रुतबा ही कायम होना है। और जो इस संख्या से बाहर हैं उन्हें इसी विधि से दंड भी दिलवाना है। विधि का बल जिस रोज़ खुलेआम संख्या के बल के साथ खड़ा हो जाएगा, यह आधुनिक राज्य भरभराकर ज़मींदोज़ हो जाएगा। हम यह होते हुए देख रहे हैं। क्या औरों को दिख रहा है?
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