अश्वत्थामा
मैं बीस बरस का हूं. सच्चाई, ईमानदारी और जनपक्षधरता के नाम पर 2 अक्टूबर को मेरा जन्म हुआ. लंगोटी वाले बापू भी इसी दिन जन्मे थे. गुदड़ी के लाल, लाल बहादुर ने भी इसी दिन जन्म लिया था. दरअसल, मेरे जन्म की शर्त ही यही थी, कि मैं उस आवाज़ का प्रतिकार बनूंगा जो सिर्फ लुटियंस ज़ोन के कानों को सुहाती है. मैं उस हाट-बाज़ार की पिपिहरी बनूंगा ज़िसमें खिलंदड़ी तो है, मगर आम जन कहे जाने वालों को जोड़ लेने का फेवीकोल है. बाज़ारू शब्दावलियों को ओढ़ते हुए भी सरोकार की शपथ के साथ मैंने जन्म लिया था. मुझे आकार देने वाले सुभाष चंद्रा ने वादा किया था कि जनपथ पर चलते हुए वे थकेंगे नहीं. घुटने तो बिल्कुल नहीं टेकेंगे. ठीक पहचाना मुझे…
…लेकिन हाय रे दुर्भाग्य. मेरा बीसवां यौवन ये क्या कर गया. ठीक बीसवीं सालगिरह पर मुझ पर ब्लैकमेलर होने की कालिमा लगी. सौ करोड़ की रंगदारी मांगने को लेकर मेरे ख़िलाफ़ पुलिस केस दर्ज़ हुआ. यौवन का सारा तेज अचानक मानो अहंकार के प्रोजेरिया से बूढ़ा और अशक्त दिखने लगा है.
…लेकिन मेरा दुर्भाग्य सिर्फ इस लांछन के साथ ख़त्म होता नहीं दीखता. मेरा इलाज स्वीकारोक्ति होती. या फिर एक मौन ही मेरी मुक्ति का मार्ग बनता. लेकिन ये क्या? मेरी क्रेडिबिलिटी की जो साख़ लचक चुकी है, मैं उस पर ही चढ़ पींगें भर रहा हूं. मेरे अस्तित्व को ख़तरे में डालने वालों पर लगी बेड़ियों को मैं राष्ट्र का आपातकाल बता रहा हूं. मीडिया के लिए दुर्भाग्यपूर्ण बतायी गई गिरफ़्तारी को, “दुर्भाग्यपूर्ण गिरफ़्तारी” की पट्टी बनाकर प्रसारित कर रहा हूं.
जिस प्रोजेरिया से मेरी दिमाग की नसें फटना चाह रही हैं, उसे मैं प्रौढ़ता के दंभ में बिसरा देना चाहता हूं. “आपातकाल” के विधवा विलाप में मैंने काली पट्टी बांध ली है, मैं शायद इस भ्रम में हूं कि औरों ने अपनी आंखों पर काली पट्टी बांध ली है. काली पट्टी मेरा खूब प्रहसन है. मैंने अपने बचाव में मुहावरे गढ़े, और उन्हीं मुहावरों में यूं फंसता गया— काला दिन. दाल में काला. खिचड़ी दाढ़ी. चोर की दाढ़ी में तिनका. दाल मेरी गली नहीं.
मैं इस जार्गन में खुद की काया फिलहाल बचा लेना चाहता हूं कि जब तक अदालतें मुझे दोषी न ठहराएं, मुझे अपराधी न मानो. लेकिन इस बात का मैं क्या जवाब दूं कि मेरा वजूद सिर्फ क़ानूनन पाक-साफ़ होने भर से नहीं, बल्कि उस नैतिक कसौटी पर कसे जाने को लेकर भी था जिसे कभी किसी गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने तप से फलीभूत किया था. उस गणेश शंकर के तप से जो भाषा और विचारों की आज़ादी को राष्ट्र की आज़ादी से भी आगे रखता था. और मैंने तो अपनी भाषा और विचारों की आज़ादी को सौ करोड़ की बात कहने के पहले ही गिरवी रख दिया था. यकीन न हो तो उस टेप को फिर खंगाल लो जिसकी सत्यता पर फोरेंसिक मुहर लग चुकी है.
कोई कैसे मान ले कि मैं स्टिंग स्टोरी कर रहा था, अपनी इस थ्योरी को कहते हुए मेरी लड़खड़ाती ज़बान को सभी पढ़ रहे हैं. सभी पूछ रहे हैं कि टेलीविजन पर दिखाने के लिए भी महज पेपर पर हस्ताक्षर कराने का कौन सा कौशल मैं दिखा रहा था. टेलीविजन में बीस दिन काम कर चुका बच्चा भी (ख़ासकर थ्री जी-फ़ोर जी के युग में) स्टिंग करने के लिए सिर्फ पेपर डील से काम नहीं चलाएगा. और मेरे पास तो बीस साल का प्रोफेशनल अनुभव है, फिर भी मैं किसे मूरख समझ रहा हूं.
मेरी सबसे बड़ी उम्मीद यही है कि मुझ पर कीचड़ उछालने वाला ख़ुद दलदल में बैठा है. उसके हाथ भी काले दीखते हैं. वो भी हक़ लूटने को लेकर कठघरे में है. संपदा छीनने के लांछन से वो भी अछूता नहीं. उसे छद्म और लोलुपता के साम्राज्य का राजा कहने वालों की कमी नहीं. लेकिन अदालतों ने अभी उसे भी दोषी नहीं ठहराया है.
तो क्या मान लिया जाए, कि सार्वजनिक शुचिता का कोई मोल नहीं? क़ानून की अंधी देवी तो सबूतों की बिना पर फ़ैसले दे देगी, लेकिन अदालतों तक सच्चे और पूरे सबूत पहुंचें, इस बात की गारंटी साठ साल का ये लोकतंत्र अब तक नहीं दे सका है. मुझे मानना होगा कि क़ानूनी दृष्टि से भले ही मुझ पर लगे आरोप, मेरे चीरहर्ता पर लगे आरोपों से बड़े न हों लेकिन पब्लिक अकाउंटिबिलिटी की जो शपथ मैंने ली थी, उसकी वजह से नैतिक दृष्टिकोण से मैं अपराधी हूं. ये अपराध जघन्य है और अक्षम्य भी.
तो क्या मुझे मिटा देना चाहिए? मुझे काल कवलित कर देना चाहिए? वैसे तो मैं इस पर डिबेट का स्वागत करूंगा. लेकिन मैं एक भावनात्मक अपील करना चाहता हूं. सुधीर चौधरी और समीर अहलूवालिया ही मेरी पहचान नहीं हैं, पिछले बीस बरस में सैंकड़ों लोगों ने मुझे अपनी हड्डियां गला कर खड़ा किया है. मैं उन तमाम लोगों की अकेली उम्मीद हूं जो महीने की पहली तारीख़ को मेरे निर्माण के पारिश्रमिक से अपना गुजारा चलाते हैं.
(लेखक ज़ी न्यूज़ के पत्रकार हैं)
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