आर्टिकल 19: क्या आप जानते हैं कि भारत ने ‘लोकतंत्र’ के रूप में अपनी स्थिति लगभग खो दी है?


क्या भारत की स्वतंत्रता एक शर्मनाक दौर से गुजर रही है? क्या एक लोकतंत्र के तौर पर हम अपनी आजादी के अर्थों को बचाने में नाकाम हो चुके हैं? क्या एक नागरिक के तौर पर हमने बाबा साहब आंबेडकर के दिए संविधान की तौहीन की है?

आपको इन सवालों से गुजरने में तकलीफ हो रही होगी। इससे ज्यादा तकलीफ मुझे पूछने में हो रही है। लेकिन इन सबसे ज्यादा तकलीफ सुप्रीम कोर्ट को हुई होगी यह कहने में कि हद मत पार कीजिए, भारत को एक स्वतंत्र देश रहने दीजिए। भारत के हर नागरिक को इस टिप्पणी पर रुककर सोचना चाहिए और शर्मिंदा होना चाहिए। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट को ये क्यों कहना पड़ा? क्यों हम एक स्वतंत्र राष्ट्र की गरिमा खोते जा रहे हैं? सुप्रीम कोर्ट ने बहुत मजबूर होकर यह टिप्पणी की है और उसकी टिप्पणी के पीछे एक गंभीर सोच, चिंतन और चिंता है। दुनिया भर में भारत की साख मिट्टी में मिलती जा रही है।

स्वीडन के वी डेम इंस्टीट्यूट ने अक्टूर के दूसरे हफ्ते में एक रिपोर्ट छापी है। इस रिपोर्ट को डेमोक्रेसी इंडेक्स कहते हैं। लोकतंत्र सूचकांक। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में मीडिया, नागरिक समाज और विपक्ष के लिए लगातार कम होती जा रही गुंजाइश के कारण भारत लोकतंत्र का दर्जा खोने की कगार पर है। रिपोर्ट की प्रस्तावना में ही लिखा है कि भारत ने लगातार गिरावट का रास्ता जारी रखा है। इस हद तक कि उसने लोकतंत्र के रूप में अपनी स्थिति लगभग खो दी है। इस रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 10 बरसों में भारत की अकादमिक स्वंत्रता में 13 फीसद गिरावट दर्ज की गयी है। इसका मतलब ये हुआ कि पढ़े लिखे लोगों, पत्रकारों, वकीलों, लेखकों, चिंतकों, अध्यापकों और छात्र-छात्राओं का उत्पीड़न लगातार बढ़ा है।

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लंदन से लेकर मेलबर्न तक और फिलाडेल्फिया से लेकर फीनीक्स तक भारतीय मूल के लोग मोदी सरकार की नीतियों के खिलाफ सड़कों पर उतरे। ग्लोबल डायस्पोरा अलायंस बैनर के तहत तमाम शहरों में 25 अक्टूबर को लोगों ने झंडे बैनर के साथ प्रदर्शन किया। प्रवासी भारतीयों का कहना है कि भारत में कार्यकर्ताओं को चुप करने के लिए दमनकारी कानूनों के तहत जेलों में डाला जा रहा है। लोगों को धार्मिक और जातिगत आधार पर निशाना बनाया जा रहा है। श्रम कानूनों को खत्म किया जा रहा है। कृषि और शिक्षा को बर्बाद किया जा रहा है।

दुनिया में भारत की गिरती साख के बीच सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी को आप हवा में नहीं उड़ा सकते कि भारत को एक स्वतंत्र देश रहने दीजिए। अपनी हद में रहिए। यह टिप्पणी किसी व्यक्ति के लिए नहीं की गई है। सरकारों के लिए की गई है। इसका मतलब ये हुआ कि सोशल मीडिया पोस्ट पर नागरिकों को जेलों में डाले जाने, उनके खिलाफ मुकदमे किए जाने और उन्हें जांच के नाम पर परेशान किए जाने पर सुप्रीम कोर्ट के बर्दाश्त की हद भी अब टूट चुकी है। इसलिए उसे राज्य सरकारों को सख्त लहजे में संदेश देना पड़ा है कि सरकार की आलोचना करने वाले सोशल मीडिया पोस्ट को लेकर हम देश के किसी दूसरे हिस्से में रह रहे नागरिकों परेशान नहीं कर सकते हैं।

हुआ ये था कि बंगाल पुलिस ने दिल्ली में रह रही रोशनी बिश्वास को समन जारी किया था। उन्होंने लॉकडाउन के दौरान नियमों को ठीक से लागू न करने को लेकर बंगाल सरकार की आलोचना की थी। सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और इंदिरा बनर्जी की बेंच ने मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि आर्टिकल 19(1)(a) के तहत नागरिकों की बोलने की आजादी की हर कीमत पर रक्षा होनी चाहिए। बेंच ने सरकारों को संदेश देते हुए साफ-साफ कहा कि “आपको सीमा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। भारत को एक आजाद देश की तरह बर्ताव करना चाहिए। हम बतौर सुप्रीम कोर्ट बोलने की आजादी की रक्षा करते हैं। संविधान के तहत सुप्रीम कोर्ट के गठन के पीछे यही कल्पना थी कि ये आम नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करेगा और ये सुनिश्चित करेगा कि राज्य उसे परेशान न करें।”

दरअसल, 29 बरस की रोशनी बिश्वास ने वकील महेश जेठमलानी की मदद से पश्चिम बंगाल पुलिस के समन और कोलकाता हाईकोर्ट के पुलिस के सामने पेश होने के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। रोशनी बिश्वास ने अपनी एक फेसबुक पोस्ट में कोलकाता के राजा बाजार इलाके में लॉकडाउन नियमों के उल्लंघन को लेकर सरकार की आलोचना की थी। इस पर कोलकाता पुलिस ने रोशनी बिश्वास के खिलाफ एफआइआर कर दी। आरोप लगाया कि रोशनी ने इस पोस्ट के जरिये समुदाय विशेष के प्रति नफरत फैलाने की कोशिश की है। सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा कि पुलिस रोशनी को ईमेल के जरिये सवाल भेज सकती थी या फिर वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए पूछताछ कर सकती थी। समन भेजने का क्या मतलब?

इस पर पश्चिम बंगाल के वकील ने कहा कि महिला से सिर्फ पूछताछ की जाएगी, उनको गिरफ्तार नहीं किया जाएगा। इस पर बेंच ने बिफरते हुए कहा कि “दिल्ली में रह रहे व्यक्ति को कोलकाता में समन करना उत्पीड़न है। कल को मुंबई, मणिपुर या फिर चेन्नई की पुलिस इस तरह करेगी। आप बोलने की आजादी चाहते हैं या नहीं। हम आपको सबक सिखाएंगे।” जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और इंदिरा बनर्जी की बेंच ने कहा कि सही तरीका ये है कि कोलकाता से जांच अधिकारी दिल्ली आएं और महिला से पूछताछ करें। रोशनी बिश्वास से कहा गया कि वह पूछताछ में सहयोग करें।

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सवाल है कि क्या अब राज्यों की पुलिस सोशल मीडिया के नाम पर नागरिक समाज पर जुल्म ढाना बंद कर देगी? विवादित ट्वीट के नाम पर मुंबई के पत्रकार प्रशांत कनौजिया को यूपी पुलिस ने दूसरी बार जेल में डाल दिया। अयोध्या मुद्दे पर पोस्ट करने पर उसी यूपी पुलिस ने 12 लोगों को जेल में डाल दिया। इसी तरह मध्य प्रदेश के सिवनी में सोशल मीडिया पोस्ट पर नवंबर 2019 में आठ लोगों को जेल में डाल दिया गया। झारखंड के रामगढ़ में अक्टूबर में ही एक आदमी को पोस्ट पर जेल में डाल दिया गया। यह सिलसिला अंतहीन है।

ऐसा भी नहीं है कि ऐसा केवल मोदी सरकार में हो रहा है। मनमोहन सिंह की सरकार में भी कार्टून बनाने और कविता लिखने पर खूब जेलों में डाला गया है। सुप्रीम कोर्ट ने कोई एक दिन में राय नहीं बनाई है कि अगर सरकारें इसी तरह लोगों को कुचलती रहीं तो स्वतंत्रता केवल किताबों में बची रह जाएगी। उसने बहुत दुखी मन से कहा है कि भारत को आजाद मुल्क बने रहने दीजिए। उसकी टिप्पणी इस बात की मुनादी है कि सरकारों ने आजादी को बचाने के नाम पर सबसे ज्यादा आजादी को रौंदा है। आजादी को तबाह किया है, आजादी की तौहीन की है, लेकिन सरकारों के मत्थे सारा दोष मढ़कर हम अपनी मासूमियत का ढोंग नहीं रच सकते।

सच यह है कि सरकारों को इसकी छूट इसलिए मिली कि हम सबने एक नागरिक के तौर पर अपने नागरिकता के बोध को इसके पहले खत्म कर चुके हैं और किए जा रहे हैं। आइए, हम सब मिलकर आजादी के अवसान का शोकगीत गाएं। याद रखिएगा देश सिर्फ एक चौहद्दी नहीं होता। न केवल झंडा। न तो चुनाव और न ही कोई सरकार। देश हर इनकार के खिलाफ सबकी आशाओं का स्वीकार होता है। इतनी मामूली बात नहीं समझते तो हर 15 अगस्त और 26 जनवरी को झंडा फहराइए और तिरंगा ओढ़कर सो जाइए। परचम जब कफ़न में बदल जाए तो आजादी को कोई नहीं बचा सकता।



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