लौट रहे मजदूरों के एक तरफ कुआं है और दूसरी तरफ खाई: ट्रेड यूनियन लीडर शिवाजी राय का इंटरव्यू


किसान मजदूर संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष शिवाजी राय का साक्षात्कार

मजदूर वर्ग पर पड़े लॉकडाउन के असर को आप किस तरह से देखते हैं?

कोरोना महामारी का सबसे ज्यादा प्रभाव देश के मेहनतकश मजदूर और किसान वर्ग पर पड़ा है। आज जो मजदूरों की हालत दिख रही है इसकी जिम्मेदारी पूरी तरह से भारत सरकार पर है। लॉकडाउन घोषित करने से पहले सरकार और सरकारी तंत्र ने होमवर्क नहीं किया था। यदि होमवर्क किया होता तो सही-सही आकलन हो गया होता कि देश के कोने-कोने से सरकारी नीतियों के दुष्प्रभाव में उजड़ी ग्रामीण अर्थव्यवस्था एवं पुराने स्थापित लघु उद्योगों के खत्म होने से तीसों वर्ष पहले से पलायित नागरिक जो मजदूर के रूप में मेट्रो सिटी में ट्रेड सेन्टरों पर भारी संख्या में एकत्रित हुए, जिनकी स्थिति ऐसी नहीं है कि बिना काम वो मजदूरी पाएं, एक दिन भी यह रुक सकें। और वही हुआ कि लॉकडाउन तोड़ कर मजदूर अपने घर की तरफ चल पड़े जिसका खामियाजा मजदूरों को ही भुगतना पड़ रहा है।

सड़क दुर्घटनाओं की तरफ तो आपका इशारा नहीं है जिसमें मजदूर मारे गये?

हाँ, निश्चित ही जो भी सड़क दुर्घटनाएं हुई हैं, वे सरकार की अव्यवस्था के कारण हैं। एक तरह से कहा जाए तो पूरी व्यवस्था ढह चुकी है और कुछ राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी सिस्टम फेल होने की बात स्वीकार ली है। सच कहा जाए तो जबसे यह सरकार बनी है चाहे मंदी हो या महामारी, किसानों या मजदूरों की चिंता कभी नहीं रही है। उनके साथ छलावा हुआ है। सरकारों की चिंता पूँजीपतियों के मुनाफे कम न होने देने की रही है। चाहे रेपो दर घटाना पड़े, या रिजर्व बैंक पर विशेष धारा का इस्तेमाल करना पड़ा हो, श्रम कानूनों को खत्म करना पड़ा हो चाहे किसानों की जमीन छीन कर पूँजीपतियों को देना पड़ा हो, या लाखों करोड़ रुपये एनपीए करना पड़ा हो, पूँजीपतियों के हित में नोट बंदी करनी पड़ी हो, चाहे जीएसटी लागू करना पड़ा हो, जिसके कारण देश का 73 फीसदी कैपिटल 1 प्रतिशत लोगों के पास चल गया। फिर मजदूर और किसान के हित में बचता ही क्या है! भुखमरी और हादसा! सरकार मजदूरों के प्रति संवेदनशील होती तो “नमस्ते ट्रम्प” करने के बजाय लॉकडाउन से पहले ही मजदूरों को उनके परिवारों और बच्चों को घर पहुंचाने की व्यवस्था कर दी होती, तो उनको ये दिन नहीं देखना पड़ता।

आपने श्रम कानूनों का ज़िक्र किया। कुछ राज्यों ने हाल में इन्हें उद्योगों की बहाली के नाम पर निलंबित कर दिया है। इसे आप कैसे देखते हैं?

श्रम की लूट किए बिना पूँजीपतियों का मुनाफा नहीं बढ़ सकता। उसके साथ ही कच्चे माल की मनमानी लूट (किसान द्वारा उत्पादित) मनमाना मुनाफे के लिए जरूरी है। पहले से बने श्रम कानून निश्चित ही पूँजीपतियों के लिए बाधा के रूप में दिखायी दे रहे थे। नवउदारवादी अर्थव्यवस्था पूँजीपतियों द्वारा ही लायी गयी थी। देश प्रदेश की सरकारें जब पूँजीपतियों द्वारा ही बनायी बिगाड़ी जाने लगीं तो निश्चित ही पूँजीपतियों की हितैशी सरकार के लिए श्राम कानूनों में बदलाव आवश्यक हो गया और ऐसा ही किया गया।  

क्या आपको लगता है कि कोरोना संकट के ख़त्म होने के बाद या लॉकडाउन पूरी तरह खुलने के बाद क्या मजदूर फिर लौट कर आएंगे? क्या बेरोजगारी बढ़ेगी? यदि हां, तो इससे निपटने के लिए सरकार के पास कोई योजना है?

मैंने पहले ही जिक्र किया है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था और लघु एवं कुटीर उद्योग के उजड़ने के बाद देश के कोने-कोने से नौजवान मजदूर के रूप में ट्रेड सेंटरों पर पलायित कर गये। यह अनायास  नहीं है। पूँजीवादी सिस्टम में बड़े ट्रेड सेंटरों की स्थापना सुनियोजित तरीके से की जाती है, जिससे मजबूर होकर सूदूर इलाके का मजदूर ट्रेड सेंटर पर पहुचे और पूँजीपतियों व उद्योगपतियों की शर्तों पर ही काम करे। मजदूर की अपनी शर्त नहीं रह जाती। बारगेन करने की क्षमता नहीं रह जाती। इसके कारण उनके श्रम की लूट आसान हो जाती है। मजदूर नें जब गाँव या क्षेत्र छोड़ा होगा तो निश्चित ही वहां पर उसके रुकने और रोजी-रोजगार करने का कोई आधार नही रहा होगा। कोरोना महामारी के कारण जिस व्यथित दशा में वह वापस घर लौट रहा होगा तो निश्चित ही उसको इन ट्रेड सेंटरों ने निराश किया होगा क्योंकि इस आपत्ति काल मे कंपनियों ने या घरेलू मजदूरों के लिए उनके मालिकों ने या देश परदेश की उनकी सरकारों ने आपद धर्म का पालन नहीं किया। उसकी सुरक्षा, बचाव एवं जीविका के मामले में उन सभी लोगों ने मुंह मोड़ लिया जिनके भरोसे ये मजदूर थे। इसलिए एक असमंजस की स्थिति बनी रहेगी और उनके लिए एक तरफ कुआं और एक तरफ खाई की स्थिति बनी रहेगी। इसलिए कुछ लौटेंगे तो कुछ नहीं लौटेंगे। फिर बेरोजगारी चरम पर होगी। जैसा कि हाल ही में प्रकाशित सीएमआइई की रिपोर्ट से ही साफ है, सरकार की योजना विफल हो चुकी है। अभी तक सरकार ने जो भी कदम उठाए हैं- लिक्विडिटी, लैंड लॉ और लेबर, उसमें से लेबर के हिस्से में कुछ नहीं गया है। 33 हजार हेक्टेयर जमीन पूँजीपतियों के लिए आवंटित करने की योजना है। रेपो दर कम करना पूँजीपतियों के हित में ही है और श्रम कानूनों में बदलाव पूँजीपतियों के हित में ही है। इसमें सरकार की चिंता पूरी की पूरी पूँजीपतियों के हित में ही दिख रही है, मेहनतकशों के हित में कुछ भी नहीं है।     

कंपनियों ने, मालिकान ने, ट्रेड सेंटरों ने मजदूरों से मुंह मोड़ लिया, तो यह स्वाभाविक ही है। क्या ट्रेड यूनियनों से भी मजदूर निराश हो चुके हैं? कभी यूनियनें मजदूरों की आवाज़ हुआ करती थीं। आज दो महीना हुआ मजदूरों को सड़कों पर उतरे हुए, यूनियनें कहां हैं?

आज ट्रेड यूनियनों की स्थिति पुरजोर विरोध न कर पाने की इसलिए है क्योंकि यूनियनें बहुत सारे खेमों में बंटी हुई हैं। जितने दल हैं उतनी ट्रेड यूनियन हैं। साथ ही इनमें जातिगत आधार पर भी ट्रेड यूनियनों का गठन हुआ है जैसे एससी एसटी एसोसिएशन, बैकवर्ड मोर्चा, सवर्ण मोर्चा। साथ ही असंगठित और संगठित क्षेत्रों की अलग-अलग यूनियनें हैं, वो भी बहुत कमजोर। देश में संगठन तो बहुत हैं लेकिन बिखरे हुए और खासकर इस देश की एक बड़ी ट्रेड यूनियन के रूप में भारतीय मजदूर संघ जो सत्ताधारी दल का ही आनुषंगिक संगठन है, उसने “दुनिया के मजदूरों एक हो” नारे की धज्जियां उड़ाई हैं। तो कैसे कहा जाए कि इन बिखरे संगठनों से मजदूरों का हित हो सकता है। मतलब साफ है कि मजदूरों का एका करने के लिए मजदूरों के हित के लिए सभी जाति धर्म और खेमे को भूल कर देश में मजदूरों के एक बड़े संगठन की जरूरत है। तभी जाकर सरकार या सत्ता से मजबूत लड़ाई हो सकती है और तभी सरकार को मजदूरों का डर हो सकता है। ये भी जरूरी है कि जब मेहनतकश वर्ग देश और समाज का निर्माण करता है तो सत्ता की ताकत भी उसी के पास होनी चाहिए। इस किस्म की चेतना का मजदूरों में अभाव है। उसके श्रम की लूट का कारण ये भी है।  

बीएमएस को छोड़ दें तो बाकी ट्रेड यूनियनें एक मंच के नीचे एकजुट हैं। फिर दिक्कत कहां है? आप विपक्ष के बंटे होने की बात तो नहीं कर रहे?

विपक्ष की सक्रिय भूमिका है। देश में सामाजिक विभाजन जातीय और धार्मिक आधार पर हो चुका है, जिसकी पृष्ठभूमि आजादी की लड़ाई में भी दिखती है। कॉर्पोरेट जगत अपने हित में अपने मन की सरकार बनवाने में सफल हुआ है। जो चीजें पहले छद्म रूप में थीं अब वे खुल करके सामने आ चुकी हैं। दूसरा, पूर्व में यह देखा गया है विपक्ष की अपनी भूमिका के साथ-साथ संवैधानिक संस्थाएं भी अपनी भूमिका निभाती थीं और इसीलिए देश में संवैधानिक संस्थाओं को मजबूत करने की जरूरत महसूस की गयी है, लेकिन आज संवैधानिक संस्थाएं बिल्कुल ढह चुकी हैं। मीडिया छद्मवेष में थी, जो औद्योगिक घराने की ही थी। अब अपने कारोबारी हित के हिसाब से सरकार से सवाल पूछने के बजाय लगातार विपक्ष से ही सवाल पूछ करके विपक्ष के खिलाफ नैरेटिव खड़ा करने का काम किया गया है।

उदाहरण के रूप में, आजादी की लड़ाई के दौरान बिड़ला घराने द्वारा स्थापित हिंदुस्तान टाइम्स द्वारा कारपोरेट हित में तोड़ मरोड़ कर खबरें छापने के बहुत से प्रमाण मिलते हैं। मीडिया घराने, जिन्हें कॉर्पोरेट मीडिया भी कहा जाता है या कहा जाना चाहिए, आजादी की लड़ाई से लेकर आज तक उनकी भूमिका कॉर्पोरेट हित से हट कर कभी नहीं रही है। इसलिए इस बात को प्रचारित किया जाता है कि विपक्ष की भूमिका कमजोर हो गयी है और यह नैरेटिव कॉर्पोरेट मीडिया द्वारा ही खड़ा किया गया है, इसे भलीभांति समझने की जरूरत है। वामपंथी दल दुनिया के पैमाने पर एक वैचारिक संगठन हैं जिसका आधार मुख्य रूप से सर्वहारा वर्ग एवं मेहनतकश एवं समाज के दबे कुचले लोग हैं। सामाजिक न्याय की लड़ाई और उसके खिलाफ खड़ा हुए कमंडल के झगड़े ने ऊपर से नीचे तक जातीय एवं धार्मिक आधार पर सामाजिक विभाजन कराया है और अभी भी वो दौर जारी है, जिसके परिणामस्वरूप देश में फासीवादी विचारधारा की सरकार आ गयी है। इसके कारण वामपंथी दलों का आधार कुछ कमजोर हुआ है, जिसके चलते उनकी भूमिका की आलोचना होती रहती है। अब देश और समाज के प्रति तथा मेहनतकश मजदूर और गरीबों के प्रति उनकी जिम्मेदारियां और बढ़ गयी हैं। जब हम कहते हैं कि दुनिया के मजदूरों एक हो या किसान मजदूर एका की बात करते हैं, तो वामपंथी दलों और वामपंथी विचारधारा के बिखरे हुए लोगों का एका पहले होना चाहिए। मुझे पूरा भरोसा है कि वामपंथी दल और वामपंथी लोग अपनी भूमिका हमसे बेहतर समझते हैं। उसका निर्वाह कर भी रहे हैं और करते रहेंगे।


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