माहवारी में पैदल चलती महिलाओं का दर्द क्या आपकी कल्पना के किसी कोने में है?


पिछले कई हफ्तों से हम तकरीबन हर दिन देख रहे हैं कि हमारे देश में गरीब इंसान के जीवन का मोल क्या है। कोरोना महामारी की वजह से उपजे श्रमिकों के पलायन के दर्दनाक प्रकरण से पूरा देश वाकिफ़ है। हम कमोबेश सभी पहलुओं पर बातें पढ़, सुन और लिख रहे हैं। बच्चे, बूढ़े, महिलाएं, बीमार, असहाय, विकलांग जिन परिस्थितियों का सामना करते हुए बढ़े जा रहे हैं उसमें जो लोग अपने देश को बढ़ता देख पा रहे हों उनकी आत्मा मर चुकी है। मज़दूरों के नंगे पैरों की  हालत में बस देश और समाज की नग्नता ही देखी जा सकती है।

सड़क पर एक महिला का बच्चे को जन्म देना और घंटे भर में उठ कर 160 किलोमीटर का सफ़र तय करना हम में से अधिकतर को झकझोर गया। अलग-अलग हादसों में कभी रेल की पटरी तो कभी सड़क दुर्घटना में मरने वाले मज़दूरों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। मरने वालों पर शोक जता कर आगे बढ़ जाने की मानव प्रवृति से हम सब कमोबेश ग्रसित हैं। ठीक यही रवैया हमारा दर्द और बदहाली में जीने वालों के लिए भी है। पर कुछ दर्द ऐसे होते हैं जिनके न चेहरे होते हैं और न ही उनकी कोई तस्वीर सामने आ पाती है। मैं आपका ध्यान हमारे जीवन से जुड़े ऐसे ही एक मुद्दे की ओर खींचना चाहती हूं- माहवारी।

एक बच्चा गोद में, दूसरा कंधे पर और तीसरा गर्भ मेंः बुलढाणा के पैदल सफ़र पर एक गर्भवती श्रमिक महिला

इस वक़्त सड़क पर चल रही हज़ारों महिलाओं में से कितनी महिलाएं माहवारी के चक्र में होंगी? और कितना दुष्कर होगा लगातार कई घंटों तक चलते चले जाना? न खाने का ठिकाना, न पानी की व्यवस्था, सम्भवत: परिवार की जिम्मेदारी और महावारी। पर चली ही जा रही हैं महिलाएं। जहां वे पीने के पानी को तरस रहीं हैं वहां कैसे वे अपनी स्वच्छता और स्वास्थ्य का ध्यान रख पा रही होंगी? अंग्रेज़ी का एक शब्द है- chafing जिसका अर्थ है ‘रगड़ से छिल जाना’। माहवारी के दौरान बहुत ज़्यादा चलने से, ख़ासकर गर्मी और बरसात के दिनों में अत्यधिक नमी के कारण, जांघों के अंदरूनी हिस्सों में चकत्ते/रैशेज़ हो जाते हैं। फिर भले ही आप बाज़ार में उपलब्ध सबसे बढ़िया सैनिटरी पैड ही क्यों न इस्तेमाल करते हों। ये समस्या तब भी उभर सकती है।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 के अनुसार भारत में 36.6 करोड़ महिलाएं माहवारी चक्र की आयु में हैं परंतु इनमें से केवल 36 प्रतिशत महिलाओं को ही सैनिटरी पैड की उप्लब्धता है। ग्रामीण इलाकों की बात करें तो यह आँकड़ा और भयावह है। वहां महिलाएं फटे-पुराने और गंदे कपड़ों की मदद से माहवारी के दिन काटती हैं। बीबीसी की 2017 की एक रिपोर्ट बताती है कि बेघर औरतों को फटे कपड़ों तक का सहारा नहीं होता। उन्हें अपने माहवारी के दिन काटने के लिए पुराने अखबारों से लेकर राख और रेत जैसी चीज़ों तक का सहारा लेना पडता है। ऐसे में सड़क पर चल रही इन मज़दूर महिलाओं के जीवन में सैनिटरी पैड की सुविधा उपलब्ध होगी या नहीं, यह अनुमान लगाना बहुत मुश्किल नहीं है।

अब आते हैं माहवारी के दौरान होने वाली शारीरिक और मानसिक समस्याओं की तरफ। माहवारी की अवधि 2-7 दिनों तक की होती है और इसके दौरान होने वाली असहनीय पीड़ा को डिसमेनोरीया या कष्टार्तव के नाम से जाना जाता है। माहवारी के दौर की समस्याएं अलग-अलग उम्र की महिलाओं के लिए भिन्न प्रकार की हो सकती हैं। आम तौर पर शरीर के कई हिस्सों में मामूली से लेकर असहनीय दर्द, उल्टी, तनाव, और चिड़चिड़ापन माहवारी के समय की मुख्य तकलीफें हैं। यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ लन्दन में जनन स्वास्थ्य के प्रोफेसर जॉन गुलेबौड के अनुसार माहवारी का दर्द दिल के दौरे जितना पीड़ादायक हो सकता है। दुनिया भर में कई स्त्रीरोग विशेषज्ञों ने इस तकलीफ को प्रसव पीड़ा के समान भी माना है। यही कारण है कि जापान, इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया आदि कुछ देशों में माहवारी के दौरान एक से तीन दिनों तक की छुट्टी का प्रावधान है और कई अन्य देश इस दिशा में काम कर रहे हैं।

भारत के भी कुछ शहरों में निजी कंपनियों ने यह सराहनीय कदम उठाया जिससे प्रेरित होकर अरुणाचल प्रदेश से कांग्रेसी सांसद निनॉन्ग एरिंग ने 2017 में लोकसभा में मेन्स्ट्रुएशन बेनिफ़िट बिल रखा। इससे यह साफ है कि भारतीय समाज इस सोच से विमुख नहीं है। पर यह समझदारी और हक़ की लड़ाई समाज के एक खास वर्ग तक सीमित है। इस सामाजिक चेतना का मज़दूर महिलाओं के जीवन पर कोई फायदा होता नहीं दिख रहा है। माहवारी के इर्द-गिर्द के मुद्दों और उससे जुडी सुविधाओं की मांग वर्गनिष्ठ चरित्र है। इसलिये इस वर्ग को देश के ग़रीब और बेघर महिलाओं की माहवारी संबंधी समस्याओं से कोई लेना-देना नहीं होता।

यही कारण है कि महामारी के इस समय में सड़कों पर चल रही हजारों महिलाओं की स्थिति इस देश की कल्पना में भी जगह नहीं पा रही। सोचिए, कैसे ये महिलाएं सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय कर रहीं हैं? लॉकडाउन की वजह से जब देश में सब कुछ बंद पड़ा है तो जाहिर है हाइवे से सटी सारी दुकानें और पब्लिक टॉयलेट भी बंद होंगे। इन परिस्थितियों में वे कैसे अपनी साफ-सफाई का ध्यान रख पा रही होंगी?

त्रासदी का समय, उस पर भीषण तपती गर्मी में शहरों से गाँवों की तरफ अपनी बदहाल जिंदगी की जमा पूंजी सिर पर और बच्चों को कभी कंधे तो कभी सीने पर उठाये ये महिलाएं निश्चय ही अपने बारे में ज़्यादा न सोच पाती होंगी। पर क्या हम उनके बारे में सोच पा रहे हैं? किसी ने सोचा है कि यह इनकी सेहत के लिए कितना ख़तरनाक साबित होगा? माहवारी के दौरान ख़राब रख-रखाव सर्वाइकल कैंसर, हेपेटाइटिस बी, प्रजनन पथ संक्रमण (आरटीईआइ), मूत्र मार्ग संक्रमण (यूटीआइ), यीस्ट संक्रमण, जैसी कई बीमारियों को न्योता दे सकता है। इनमें से कई महिलाएं तो माँएं भी हैं। नई माँओं की समस्याओं की अपनी ही कहानी होगी। और कुछ ऐसी भी हैं जिन्हें अभी पता ही न होगा कि माँ बनने वाली हैं। कुल मिलाकर यह तय है कि जब वे अपनी मंज़िल तक पहुंचेंगी तब इस सफ़र से मिली समस्याओं का नया सफ़र शुरू हो चुका होगा। हम आज भी उन्हें नज़रंदाज कर के बैठे हैं। और सुनने में यह चाहे कितना ही शर्मनाक और दुर्भाग्यपूर्ण लगे, पर कल भी उनके बारे में सोचने की हम में विवशता नहीं होगी।

जैसे समाज के हरेक मुद्दे से औरतें कमोबेश गौण हो जाया करती हैं, ठीक उसी तरह कोरोना महामारी से उपजे मज़दूर पलायन और इसमें सरकार की प्रचंड विफलता में औरतें फिर कहीं खो गयी हैं। किसी ने उनके बारे में अलग से नहीं सोचा। महिला अधिकारों के पैरोकार पेट की भूख और पैरों के छालों से निपटने में उलझे हैं, पर सरकारों में शामिल ‘सशक्त’ महिलाएं इस मुद्दे पर अपनी संवेदनहीनता के साथ अपने-अपने घरों में लॉकडाउन का पालन करने के लिए याद रखी जाएंगी। इनके सामयिक हस्तक्षेप से सैनिटरी पैड का वितरण तो हो ही सकता था। हाइवे पर स्थित टॉयलेट तो खोले ही जा सकते थे। दुर्भाग्य यह है कि इस देश में महिला अधिकारों का संघर्ष एक खास वर्ग के हितों मात्र पर केंद्रित है। तभी तो छाती पीटने में माहिर हमारी कई महिला राजनेता इस मुद्दे पर सोच भी न पायीं। अंत्याक्षरी से बचे अपने समय में जब ये ट्विटर या टीवी पर बदहाल श्रमिक महिलाओं की तस्वीरें देखती होंगी, तो शायद इन्हें अपना भारत न दिखता होगा। वरना महिला होने के नाते तो इनके हालात समझ ही पातीं।

आप कभी समाज के उच्च वर्ग/जाति से इस मुद्दे पर बात करके देखिये, वे बड़े निश्चित भाव से कह देंगे- “अरे, इन लोगों का शरीर ही अलग होता है, सब सह लेंगी/लेंगे”। आप इस बेशर्मी से बचिए, अपने आसपास ऐसा कहने वालों से बात कीजिए, सम्भव हो तो विनम्रतापूर्वक उन्हें रोकिए-टोकिए। उन्हें बताइए कि इंसान गरीब हो या अमीर, उसके शरीर में समान दर्द और भाव उभरते हैं। साथ ही यह भी ध्यान में रखिए कि हर दिन मज़दूरों की त्रासदी से जुड़ी हज़ारों तस्वीरें देख लेने के बाद भी आप उनका हाल समझ नहीं पाएंगे क्योंकि सूखे चेहरों, बिवाइयों और भीगी आंखों से बयान होती बदहाली कैमरे में न क़ैद वाले हालात के मुकाबले बहुत कम हैं। इन्हीं में से एक सड़कों पर चल रही लड़कियों और औरतों की है।

जरूरत है कि समाज में उनकी स्थिति पर बात हो, समझदारी बने और उनके लिए समर्पित विभागों से उनकी जिम्मेदारी सुनिश्चित करायी जाय। यह तभी सम्भव है जब सचेत समाज वर्ग जो इन अधिकारों के प्रति जागरूक है और नागरिक समाज को निर्धारित करने का दावा करता है, आगे आये। जरूरत है कि हम ‘पैडमैन’ जैसी फिल्मों को राष्ट्रीय पुरस्कार मिलने पर ताली बजाने को ही अपनी आखिरी जिम्मेदारी न समझ बैठें।


लेखिका ने जेएनयू से पीएचडी की है और ब्राउन यूनिवर्सिटी में फुलब्राइट स्कॉलर के रूप में
अध्यापन का कार्य किया है


2 Comments on “माहवारी में पैदल चलती महिलाओं का दर्द क्या आपकी कल्पना के किसी कोने में है?”

  1. बहुत ही सोचनीय स्थिती। सच में हम इस पहलू को नजरअंदाज नहीं कर सकते.. महावरी जैसी समस्या पर अपनी बात रखना बहुत ही प्रशंसनिय प्रयास हैं। ताली बजाने से ऊपर है हमें अपनी जिम्मेदारी को निभाना। अब समय आ गया कि कथनी और करनी में अंतर करते हुए हम अपने आस-पास की महिला मजदूरों की सहायता करें।

  2. आज हालात बड़े नाज़ुक हैं | लेखिका द्वारा इस संवेदनशील विषय को उजागर करना एक सराहनीय कोशिश है | हैरानी की बात यह है कि आज तक किसी भी तथाकथित मानव सम्वेदनाओ के ठेकेदारो ने भी इस विषय पर एक हिंसक शांति बनाये रखी, जो किसी भी सभ्य समाज के लिए निंदनीय है |

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *