“सरकार हमारी समस्याओं का समाधान नहीं है, सरकार ही समस्या है”- अमेरिका के राष्ट्रपति रहे रॉनल्ड रीगन के इस प्रसिद्ध कथन से राजनीतिशास्त्र के छात्र भलीभाँति परिचित होंगे। रीगन से पहले अमेरिका पाषाणयुग में जी रहा था। वहां की औद्योगिक क्रांति ब्रिटिश की देन थी। भारत में सन् 2014 से पहले जो कुछ भी था, वह सब अमेरिका में रीगन के आने के बाद हुआ। रीगन से पहले अमेरिका के लोग भी अपने नेता के मुखारविंद से उसके मन की बात सुना करते थे। रीगन के दौर में पहली बार लोगों में कुतूहल पैदा हुआ कि उनका नेता क्या बोलेगा। नो गेस! कोई अनुमान भी नहीं लगा पाता था कि रीगन क्या बोलने जा रहे हैं। यही कुछ भारत में मनमोहन सिंह के कार्यकाल तक होता आया है- चाहे वह नेहरू, शास्त्री, इंदिरा, राजीव या वाजपेयी हों कोई यह अनुमान नहीं लगा पाता था कि इनके भाषण में क्या होगा। हाँ, मोरारजी का कहा एक हद तक प्रत्याशित होता था। इन सभी नेताओं की क्रोनी पूंजीवाद (जहां सरकार और पूंजीपति परस्पर लाभ के लिए मिलकर काम करते हों) से दूरी थी। ये नेता ध्येय में नहीं, साधन में रत रहने वाले लोग थे।
क्रोनी पूंजीवाद का जन्म सत्ता का केंद्रीकरण करके कुछ चुनिंदा चुनावी संरक्षकों का व्यक्तिगत हित साधने के मक़सद से हुआ है। इसी कारण से राहुल गाँधी यह कहने पर विवश हुए कि भारत राज्यों का संघ है न कि एक राष्ट्र। क्रोनी पूंजीवाद को सरल अर्थ में हम इस तरह समझ सकते हैं कि जब पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में स्पर्धा को नष्ट कर कुछ चुनिंदा पूंजीपतियों को क़ानूनी रूप से फ़ायदा पहुँचाया जाय, तो वह क्रोनी या याराना पूंजीवाद कहलाता है। सवाल पूछा जा सकता है कि क्या व्यक्तिगत लाभ नहीं मिलना चाहिए? इसे इस परिप्रेक्ष्य में समझिए कि यदि व्यक्तिगत लाभ नागरिकों का निजी क्षेत्र में हो और वही नागरिक जब सरकार के साथ मिलकर व्यक्तिगत लाभ ले, तो दोनों में धरती और आसमान का अंतर होता है। बाद वाला लाभ क्रोनी पूंजीवाद को जन्म देता है।
इस तरह देखें तो भारत की मौजूदा सरकार पूंजीवाद के घोर समर्थक मिल्टन फ़्रीड्मन की पाठशाला की विद्यार्थी जान पड़ती है। फ़्रीड्मन अपने आलेख, “वाइ गवर्नमेंट इज़ द प्रॉब्लम” में लिखते हैं, “सरकार का मूल कार्य देश को विदेशी शत्रुओं से बचाना, देश के भीतर कुछ व्यक्तियों द्वारा अन्य पर ज़बरदस्ती करने से रोकना, हमारे नियमों पर निर्णय लेने का एक साधन प्रदान करना, और विवादों का निपटारा करना है।” वे राम मनोहर लोहिया की तरह तलवार और तराजू को एक साथ रखने के हिमायती नहीं थे। भारत के परिप्रेक्ष्य में मूल सामाजिक समस्याओं, यथा- शिक्षा के स्तर का दिनोदिन गिरना, साम्प्रदायिक दंगे, क़ानून व्यवस्था का समुचित पालन नहीं होना, लोगों का फुटपाथ पर रात गुज़ारना, एकल परिवार को बढ़ावा, अस्पताल या फिर ऑक्सिजन की कमी; को समझने की यह कुंजी है। फ्रीड्मन के आलोक में हम कह सकते हैं कि यह सब सरकार की सुनियोजित साज़िश के कारण हो रहा है क्योंकि जनता का अपनी नियति पर से नियंत्रण जा चुका है।
इस संदर्भ में फ़्रीड्मन लिखते हैं, “ इसका परिणाम एक ऐसा सरकारी तंत्र है जो अब “हम नागरिकों” द्वारा नियंत्रित नहीं है। लिंकन का लोकतंत्र “नागरिकों का, नागरिकों के लिए तथा नागरिकों के द्वारा” था। आज का हमारा लोकतंत्र “नागरिकों का, नौकरशाह के द्वारा, नौकरशाह के लिए” है, जिसमें जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि जो नौकरशाह बन गए हैं, वे भी शामिल हैं।‘ भारत के विशिष्ट संदर्भ में कहें तो यहां का सरकारी तंत्र “क्रोनी पूँजीवादियों का है, और चुनावी संरक्षकों द्वारा, चुनावी संरक्षकों के लिए” है। सामान्य जन के लिए सरकार का कोई सरोकार नहीं है।
इसीलिए सामान्य जन की समस्याओं की फेहरिस्त बहुत लंबी और असमाधेय है। मसलन, शिक्षा एक ऐसा मद है जिसमें भारत की केंद्र सरकार कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का मात्र 3.1 फ़ीसदी व्यय करती है। एक अनुमान के मुताबिक़ भारत में 5-24 साल के क़रीब 58 करोड़ नागरिक, जो कुल जनसंख्या के 46 फ़ीसदी के क़रीब हैं, इनमें से क़रीब 26 करोड़ ऐसे बच्चे हैं जो रोज़ाना स्कूल जाते हैं अर्थात् 20 फ़ीसदी जनसंख्या पर मात्र 3.1 फ़ीसदी का खर्च किया जाता है। वर्ष 2020-21 में शिक्षा पर वास्तविक खर्च 84219 करोड़ रुपये का हुआ अर्थात् प्रति छात्र लगभग 3400 रुपये सालाना खर्च का केंद्र सरकार ने वहन किया जो 300 रुपए प्रति माह से भी कम है। जहां मुद्रास्फीति चरम पर है वहां यह रकम नगण्य है जिससे शिक्षा के स्तर में गिरावट आएगी ही। ऐसे में छात्र अफ़वाह या झूठी खबरों को ही सच मान बैठें तो उनका क्या दोष? यह सत्य है कि असर (ऐन्यूअल स्टैटस ऑफ़ एजुकेशन रिपोर्ट – एएसइआर) 2021 के मुताबिक़ क़रीब 70.3 फ़ीसदी छात्र सरकारी विद्यालयों में पढ़ते हैं। सरकार की विध्वंसक अर्थनीति के कारण 6-14 साल के बच्चों का सरकारी विद्यालयों में दाख़िला का अनुपात भी बढ़ गया है। जहां 2018 में 32.5 फ़ीसदी बच्चे निजी विद्यालयों में दाख़िला लेते थे वहीं 2021 में यह अनुपात 24.4 फ़ीसदी रह गया। सरकारी विद्यालयों में दाख़िला बढ़ना और निजी विद्यालयों में दाख़िला घटना अर्थव्यवस्था के बुरे दौर की ओर इंगित करता है।
पिछले दो वर्षों के दौरान तेज प्रचलन में आयी ऑनलाइन शिक्षा एक नया क्षेत्र है जिसका लाभ आम तौर से निजी विद्यालयों के छात्र ही ले पा रहे हैं। व्हाट्सएप के वस्तुतः 53.43 करोड़ सक्रिय उपभोक्ता भारत में हैं किंतु कितने बायजूज़ या अन्य ऑनलाइन शिक्षा के मंचों का उपयोग करते हैं? इसीलिए व्हाट्सएप पर फैलाए जाने वाली भ्रामक सूचनाओं को सही तथ्य समझ कर छात्र अपनी सोच को उसी तरह से विकसित कर लेते हैं। जाहिर है, शिक्षा नहीं होने पर अफ़वाह ज़्यादा फैलती है। जब शिक्षा में निवेश हल्का होगा तो आखिर कितने सुधिजन पैदा होंगे?
भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में यदि किसी मरीज़ को अस्पताल में भर्ती करवाना पड़े तो औसतन 5000 रुपये तक का खर्च सरकारी अस्पताल में आता है जबकि वही खर्च निजी अस्पताल में 38000 रुपये तक होता है। यह विशाल खर्च है उन 80 करोड़ लोगों के लिए जिनका जीवन खाद्य सुरक्षा के भरोसे टिका है। सरकार आयुष्मान भारत नामक एक योजना चला रही है जिसकी पहुँच सभी तक नहीं है। ऐसे में सरकारी अस्पतालों को सुदृढ़ करने की जरूरत है। कोलकाता के कुछ अस्पतालों से इस मामले में कुछ सीख ली जा सकती है (वैसे यह अलग बात है कि एक रिपोर्ट के मुताबिक़ निजी क्षेत्र में चिकित्सा पश्चिम बंगाल में पूरे देश की अपेक्षा महँगी है)।
अर्थव्यवस्था को देखिए, वह नोटबंदी के बाद से ही चरमरायी हुई है। यह एक विनाशकारी कदम था किंतु हाय रे क़िस्मत! कोरोना ने तो सबका कचूमर ही बना डाला। आवासीय ऋण की व्यवस्था में एक ठहराव आ गया। लोग ऋण अदा करने में चूके तो उनका सिबिल स्कोर कम हो गया। व्यवसाय हो या फिर आवास, दोनों के लिए नया ऋण मिलना बंद हो गया। काम-धंधा और रोज़गार खत्म हो गया। शहरीकरण ने ग्राम्य जीवन को अस्त-व्यस्त तो किया ही, शहरों में भी आवास सुविधाओं को प्रभावित कर दिया। जब टेनेन्सी का उन्मूलन हुआ तो लोगों को लगा था कि अब शहरों में किराये के मकान सस्ते मिलेंगे किंतु वही ढाक के तीन पात। औसतन चार-पांच हज़ार रुपये महीने से कम पर कोई कमरा नहीं मिलता है।
राजनीतिक दलों के निम्नतम स्तर के कार्यकर्ताओं द्वारा बार-बार ज़ेहन में यह डालना कि पूर्वजों की गलती के कारण भारत हिंदू राष्ट्र नहीं बन पाया और भारत की तथाकथित दुर्दशा का कारण पूर्वज हैं, एकल परिवार को बढ़ावा देने का कई कारकों में से एक प्रमुख कारक है। हाल फ़िलहाल में एक टीवी चैनल पर एक प्रवक्ता जब सेना में अग्निवीर योजना के फ़ायदे गिनवा रहे थे तो मैं उनका तर्क सुनकर स्तब्ध रह गया। उन्होंने एंकर से पूछा कि जब उन्होंने विश्वविद्यालय में दाख़िला लिया तो किसके पैसे पर। एंकर ने कहा- माँ-बाप के पैसों पर। प्रवक्ता ने कहा- किन्तु अग्निवीर अपने पैसे पर लेंगे। इसी तरह के तर्कों के कारण लोगों के मन में माता-पिता के प्रति जो ऋण भाव था उसे भीख में बदल दिया गया है। “अपने पैरों पर खड़ा होना” जैसे मुहावरे को कुछ ज़्यादा ही शाब्दिक अर्थ में ले लिया गया है जिसके फलस्वरूप वृद्धावास में बढ़ोतरी अप्रत्याशित रूप से हो गयी है। सरकार को कभी नहीं भूलना चाहिए कि यदि उसे छींक भी आती है तो ब्रह्मांड हिलता है। भौतिकी का यह सिद्धांत जो सर जेम्ज़ जाँ ने दिया था, कि “जब एक इलेक्ट्रॉन कम्पन करता है, तो पूरा ब्रह्माण्ड हिल जाता है”, सरकारों पर अक्षरशः लागू होता है। अभी बुलडोज़र संस्कृति से जो आवासीय अभाव पैदा किया जा रहा है वह भविष्य में भयावह होने जा रहा है।
साम्प्रदायिक सद्भाव बिगड़ने के कारण भारी और विनिर्माण भी उद्योग भारत में बिखरता जा रहा है। नौकरशाही के कारण यहां कोई आना भी नहीं चाहता। फ़ोर्ड, हार्ले डेविड्सन, फिएट, जनरल मोटर्स, आयशर, पोलारिस और यूएम मोटरसाइकिल्स आदि कुछ ऐसी वाहन निर्माता कम्पनियां हैं जो 2014 के बाद भारत छोड़ चुकी है। इनके जैसे कई उद्योगों के भारत छोड़ने से कम पढ़े-लिखे मज़दूर बेरोज़गार हो गये। मुद्रास्फीति बढ़ने और लोन डिफ़ॉल्ट होने के कारण लोगों की वित्तीय स्थिति कमजोर हो गयी है जिससे लोगों की बचत शून्य हो गयी है। 2020 में सरकार द्वारा एक अच्छा काम यह हुआ है कि डिपॉज़िट इंश्योरेंस एंड क्रेडिट गारंटी (डीआइसीजीसी) के तहत अब बैंक में कुल जमा पांच लाख रुपये तक सुरक्षित हैं, किंतु वह भी तब जब आपके खाते में रुपया हो।
भारत में सेवा का क्षेत्र व्यापक है। सकल घरेलू उत्पाद का आधे से अधिक इसी क्षेत्र से आता है। इस क्षेत्र में पढ़े-लिखे को रोज़गार मिलता है और भारत में विश्वविद्यालय तक पहुँच होना आम आदमी के वश में नहीं है जिसके फलस्वरूप सेवा उद्योग में साधारण घर के बच्चे नहीं जा पाते हैं। महिलाओं को रोज़गार के लाले पड़ गए हैं। उनके लिए आवास कठिन होता गया है। हां, यह अलग बात है कि 2005 में घरेलू हिंसा अधिनियम आने के बाद से सम्बन्ध विच्छेद के कारण गृहहीन होने की घटना महिलाओं में कम हुई है लेकिन अभी बहुत काम बाकी है। साथ ही अच्छी बात यह है कि प्रधानमंत्री मोदी द्वारा चलायी गयी प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत क्रेडिट लिंक्ड सब्सिडी स्कीम (सीएलएसएस) से महिलाओं का मकान पर मालिकाना बढ़ा है। कुल मिलाकर बेरोज़गारी अपने उच्चतम स्तर पर है।
कृषि पर कॉर्पोरेट कब्ज़ा संवैधानिक अधिकारों और लोकतंत्र के निगमीकरण की शुरुआत है
अमेरिका की तर्ज़ पर हमारे यहां भी बैंकों का निजीकरण किया जा रहा है। फ़्रीड्मन के अनुयायियों के लिए भले ही अच्छा हो किंतु भारत की 90 फ़ीसदी जनता को वित्त की सही समझ नहीं है। इसलिए यहां यह आत्महत्या करने जैसा जघन्य मामला है। एक छोटे से उदाहरण के तौर पर आप देख सकते हैं कि यहां जो छोटे निवेशक हैं वे अब भी शेयर बाज़ार में लम्बी अवधि के लिए निवेश करते हैं, जो आज के परिप्रेक्ष्य में घातक़ है। पहले और बात थी कि यहां ज्यादाजर कम्पनियां भारी और विनिर्माण क्षेत्र में संलग्न थीं जिसमें प्रवेश पाना आसान नहीं था। अब लोग दस बटा दस के एक गराज में बैठ कर एक सॉफ़्ट्वेर कम्पनी खोल लेते हैं। टेक्नॉलजी इतनी तेज़ी से बदलती है कि 30 साल में फ़्लॉपी से क्लाउड पर आ चुकी है। पिछले दिनों कई कम्पनियां आयीं और दिवालिया होकर चली गयीं। अतः शेयर मार्केट पहले से ज़्यादा जोखिम वाला और पढ़े-लिखे लोगों का हो गया है। ऐसी स्थिति में सरकार का हस्तक्षेप बहुत ज़रूरी हो गया है नहीं तो पेटीएम जैसी कम्पनियों में मूल डूबता ही रहेगा।
हमें समझना होगा कि ख़ैरात की राजनीति जनता के लिए भस्मासुर है। इसकी जगह ऑटोमैटिक अप्रूवल मोड पर व्यापार की छूट दे दी जाय। लाइसेन्स राज को ख़त्म करना ज़रूरी है। एक व्यापार कई परिवारों का पेट भरता है। मिल्टन फ़्रीड्मन कहते हैं, “सार्वजनिक सेवाओं के प्रोत्साहन की तुलना में लाभ का प्रोत्साहन अधिक मजबूत होता है”। व्यापार में जो प्रोत्साहन मिलता है वह गोस्वामी तुलसीदास से यदि उधार लूँ तो “स्वांतः सुखाय” होता है, जिसका कोई सानी नहीं है। लेकिन जनता अपनी सरकार को इन सब कारणों से नहीं चुनती है। यदि ऐसा होता तो भाजपा चुनाव दर चुनाव नहीं जीत रही होती। लालू यादव ने कभी कहा था कि चुनाव में विकास कोई मुद्दा नहीं है। फ़्रीड्मन कहते हैं, “फिर से, मैं जोर देना चाहता हूँ, समस्या यह नहीं है कि नौकरशाह बुरे लोग हैं। समस्या, जैसा कि मार्क्सवादी कहेंगे, सिस्टम में है, लोगों में नहीं। सरकारी लोगों का स्वार्थ उन्हें इस तरह से व्यवहार करने की ओर प्रवृत्त करता है जो हम में से बाकी लोगों के स्वार्थ के विरुद्ध हो। आपको याद है एडम स्मिथ का अदृश्य हाथ का प्रसिद्ध नियम: जो लोग केवल अपने स्वयं के लाभ की तलाश कर रहे हैं सार्वजनिक हित की सेवा के लिए उनका नेतृत्व एक अदृश्य हाथ द्वारा किया जाता है जो उनके इरादे का हिस्सा नहीं था”। मिल्टन फ़्रीड्मन आगे कहते हैं, “मैं कहता हूं कि एक उल्टा अदृश्य हाथ है: जो लोग केवल जनहित की सेवा करने का इरादा रखते हैं वे निजी हितों की सेवा के लिए एक अदृश्य हाथ के नेतृत्व में हैं जो उनके इरादे का हिस्सा नहीं था।”
देश में आजकल सरेआम धार्मिक हिंसा को बढ़ावा दिया जा रहा है। ऐसे माहौल में जब न्यायालय एक तरफ़ यह कहे कि हँसकर दिया जाने वाला भाषण उन्मादी नहीं होता जबकि दूसरी तरफ़ सोशल मीडिया की एक पोस्ट पर किसी को ज़मानत तक न दी जाय, तब हमें समझ जाना चाहिए कि अराजकता पनपने लगी है। आख़िर न्यायपालिका अभ्रांत है या नहीं, यह जब तक पूर्णरूपेण स्पष्ट न हो तब तक ऐसे में क़ानून का पलड़ा किसी न किसी ओर तो झुका ही रहेगा। रामराज्य में न्याय और न्यायालय दोनों की आलोचना हो सकती है, किंतु अंगुलिमाल जो कहता है उसके शासन में वही सही होता है। क़ानून यदि निष्ठा को बचाए रखने में अक्षम है तो समझिए कि सरकार ही अपने आप में एक समस्या है।
जाति और रसूख के हिसाब से न्याय और मुआवजे का ‘राम राज्य’!
हृदयतल पर हाथ रखिए और सोचिए कि क्या आपकी सरकार आपकी बात सुनती है? क्या आपने उसके मुंह से धार्मिक मुद्दे के अलावा कभी विकास की बात भी सुनी है? निजीकरण की अन्धाधुँध दौड़ को छोड़ क्या आपकी सामाजिक व्यवस्था में कोई यह सरकार अंतर ला पायी है? यदि आपकी हाँ है, तो आपने सही सरकार चुनी है और यदि ना है तो इस सवाल पर सोचना बनता है कि लोकशाही की सरकार कैसी हो। गड़बड़ी सिस्टम और व्यक्ति दोनों में है। इसलिए अब समय आ गया है कि हम ऐसी व्यवस्था अर्थात् सिस्टम और ऐसे मूल्य अर्थात् व्यक्ति बनाएं जिसमें भारतीय संविधान का मूल अर्थात् स्वतंत्रता, समता, न्याय, भाईचारा, सामाजिक क्रांति (जैसे गाँधी के समान वितरण का सिद्धांत और स्वतंत्र उद्यम की गुंजाइश) हो। अंत में फिर से लोहिया की याद, जिन्होंने अपनी किताब “भारत के शासक” में कहा है, “अगर कोई तर्कसंगत प्रणाली तैयार करनी है तो दोनों पर समान बल दिया जाना चाहिए क्योंकि आदमी एक साधन और साध्य दोनों ही है। सामूहिक सम्पत्ति का जहां तक बन पड़े बढ़ावा करते हुए व्यक्तिगत सम्पत्ति के मोह का नाश करते हुए ही हम हिंदुस्तान में शायद एक नये समाजवाद की स्थापना करते रहेंगे।”
(लेखक कोलकाता स्थित एक प्रोफेशनल हैं। कवर तस्वीर संसद की है जहां से प्रसिद्ध गांधी प्रतिमा हटायी जा रही है।)