मई दिवस: विरासत, नयी चुनौतियां और हमारी ऐतिहासिक जिम्मेदारी


मेहनतकश साथियो,

आज जो कुछ भी मेहनतकश अवाम के पास है, वह मज़दूरों के पुरखों द्वारा दुनिया भर में सदियों तक चलाये गये संघर्षों और क़ुर्बानियों का नतीजा है। आठ घंटे का काम का दिन, इलाज की सुविधा, रिटायरमेंट पर भविष्य निधि, ग्रेच्युटी और पेन्शन, नौकरी की सुरक्षा और समयबद्ध वेतन आयोग का गठन, इन सबके पीछे पुरखों के लम्बे संघर्षों की दास्तानें छुपी हुई हैं। मई दिवस का दिन उन्हीं कुर्बानियों को जानने, उनसे सीख लेने और उनको अपनी ज़िन्दगी में उतारने का दिन है। इतिहास के संघर्षो और कुर्बानियों की रौशनी में आज के दौर की श्रमिक समस्याओं का समाधान ढूंढने का मौका हमें हर साल मई दिवस देता है। आइए, सबसे पहले हम मई दिवस की विरासत को जानें।

बात अट्ठारहवीं सदी की है- यूरोप में औद्योगिक क्रांति की शुरूआत हो रही थी। समुद्री डकैती और औपनिवेशिक लूट से हासिल दौलत ने इस क्रांति की नींव रखी थी। इसी दौलत के बल पर यूरोप के पूँजीपति वर्ग ने अमरीका के मूलनिवासी रेड इन्डियनों का कत्लेआम करके वहां अपना कब्ज़ा कर लिया था। एक तरफ़ जहां यह पूंजीपति वर्ग भारी मुनाफ़े के कारण विलासितापूर्ण जीवन बिता रहा था तो दूसरी तरफ़ इस मुनाफ़े को पैदा करने वाले मज़दूर की हालत बद से बदतर होती जा रही थी। रात के अन्तिम पहर से शुरू होने वाला कार्यदिवस, रात के पहले पहर में खत्म होता था। मज़दूरों के बच्चे अपने माँ-बाप को पहचान नहीं पाते क्योंकि उनके माँ-बाप उन्हे सोता छोड़कर जाते और जब देर रात काम से वापस लौटते तब बच्चे सो चुके होते थे। न तो कोई साप्ताहिक छुट्टी उन्हें हासिल थी और न ही बीमार होने और चोट लगने पर कोई इलाज की सुविधा मयस्सर थी। वे बेहद कष्टपूर्ण ज़िन्दगी बिता रहे थे। आज की तरह ही उस ज़माने का भी पूँजीपति, मज़दूर के जिस्म से खून की आखिरी बूंद को भी मुनाफ़े में बदल देना चाहता था। ऐसे में अमरीका के मज़दूरों ने अपनी हालत को बदलने का फ़ैसला किया।

अमरीका में आठ घन्टे के कार्यदिवस के लिये संघर्ष की शुरूआत यूं तो सन 1860 में हो चुकी थी लेकिन फ़ेडरेशन आफ आर्गनाइज़्ड ट्रेड्स एण्ड लेबर यूनियन ऑफ़ यूनाइटेड स्टेट्स एण्ड कनाडा (जिसका नाम बाद में बदल कर अमरीकन फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबऱ़ रखा गया) ने अपने 1884 के सम्मेलन में यह प्रस्ताव पास किया कि 1 मई 1886 से अमरीकी मज़दूर आठ घन्टे कार्यदिवस के अनुसार ही काम करेगा। दो साल की तैयारी के बाद ठीक 1 मई 1886 के दिन से पूरे अमरीका में अपनी मांग के समर्थन में संघर्ष की शुरूआत हो गई। शिकागो जो मज़दूर गतिविधियों का मुख्य केन्द्र था वहां पहली मई को ही लगभग चार लाख लोग हड़ताल पर चले गए। पूंजीपति अपने कारखानों को चलाने के लिए मज़दूर वर्ग के गद्दारों और हड़तालतोड़कों की मदद लेने लगे, लेकिन हड़ताल इतनी कामियाब थी कि पूंजीपतियों के अखबारो को भी लिखना पड़ा कि ”पूरे शिकागों में किसी एक भी चिमनी से धुआं निकलता नज़र नहीं आ रहा है।”

3 मई 1886 के दिन शिकागो के मेककार्मिक हारवेस्टर कारखाने, जिसमें तीन महीने से हड़ताल चल रही थी, से चौथाई मील के फासले पर कबाड़ ढोने वाले मज़दूरों की एक जनसभा चल रही थी जिसको  अनार्किस्ट इन्टर्नेशनल वर्किंग पीपल्स एसोसिएशन के नेता आगस्त स्पाईस सम्बोधित कर रहे थे। उस समय काम की पारी समाप्त करके हड़तालतोड़क बाहर आ रहे थे। तभी हड़तालतोड़कों और हड़ताली मज़दूरों मे नोंक झोंक शुरू हो गई। थोड़ी ही देर में केप्टन बोनफ़ील्ड के नेतृत्व में पुलिस ने मज़दूरों पर लाठियों और गोलियों से हमला कर दिया जिससे चार मज़दूर मौके पर ही मारे गए, अनेक घायल हो गए। इसे देखकर अगस्त स्पाईस ने उसी रात दो पर्चे निकाले एक मे मज़दूरों से कहा गया कि वे पुलिस ज़्यादती का बदला लें, हथियार उठाएं और दूसरे में शिकागो के मज़दूरों से आवाहन किया गया कि वे 4 मई 1886 की रात को हेमार्केट स्क्वायर पर इकट्ठा हों। पर्चों की बीस हज़ार प्रतियां बाँटी गयीं लेकिन 4 मई की शाम सभा स्थल पर लगभग 3 हज़ार लोग ही इकट्ठा हो पाये। जनसभा अनुशासित और शाँतिपूर्ण ढंग से चल रही थी जिसका जायज़ा लेने के लिए शिकागो का मेयर खुद मौजूद था। मेयर ने जाते हुए पुलिस कप्तान बोनफ़ील्ड से कहा कि वह पुलिस को वापस ले जाए, सभा शाँतिपूर्ण है। अगस्त स्पाईस के बाद सेमुएल फ़ील्डन सभा को सम्बोधित कर रहे थे। रात के दस बज चुके थे और धुआंधार बारिश पड़ रही थी। सभा स्थल पर मुश्किल से दो सौ मज़दूर बचे थे। फ़ील्डन सभा को समाप्ति‍ की ओर ले जा रहे थे, तभी कैप्टन बोनफ़ील्ड ने सभा को तितर-बितर करने का आदेश दिया। उसी समय भीड़ मे से किसी ने पुलिस पर बम फेंक दिया। एक पुलिस वाला मारा गया और अनेक घायल हो गए। इसके बाद बोनफील्ड ने गोली चलाने का आदेश दे दिया और फिर इतिहास का जघन्य हत्याकाण्ड सामने आया।

अगले दिन दमन और गिरफ़्तारियों का सिलसिला शुरू हुआ। अगस्त स्पाईस, अल्बर्ट पारसन, सेमुअल फ़ील्डन, जार्ज एन्जिल, एडोल्फ़ फिशर, लुईस लिंज, मिशेल श्वेब और आस्कर नीबी नामक अराजकतावादी मज़दूर नेताओं को पुलिस पर बम फेंकने के इल्जाम में गिरफ्तार कर लिया गया और उन पर पुलिस वालों की हत्या का मुकदमा चलाया गया। जज और जूरी का चयन सारे नियम कानूनों को तोड़कर किया गया। अगस्त स्पाईस,  अल्बर्ट पारसन, जार्ज एन्जिल, एडोल्फ फिशर और लुईस लिन्ज, सेमुअल फील्डन और मिशेल श्वेब को फाँसी व आस्कर नीबी को पन्द्रह साल कैद की सज़ा बोली गई। सेमुअल फील्डन और मिशेल श्वेब की फाँसी की सज़ा को अपील के बाद उम्र कैद में बदल दिया गया। 11 नवम्बर 1887 को चार नेताओं को फाँसी दे दी गई। लुईस लिन्ज ने फाँसी से एक दिन पहले खुद को डायनामाइट से उड़ा लिया। मुकदमे के दौरान अगस्त स्पाईस ने जज और जूरी को सम्बोधित करते हुए कहा, ”मुझे विश्वास है कि मज़दूरों के खिलाफ़ यह साज़िश कामयाब नहीं होगी। अगर तुम समझते हो कि हमें फाँसी पर लटका देने से मज़दूर आन्दोलन खत्म हो जाएगा तो यह तुम्हारी बहुत बड़ी गलतफहमी है। लाखों लाख मज़दूर जो अभावों और कष्टों का जीवन जी रहे हैं वह इन आन्दोलनों से ही अपनी मुक्ति की आशा लगाए बैठे हैं। अगर तुम यह समझते हो कि हमें फाँसी पर लटका देने से तुम इन संघर्षों को समाप्त करने में कामयाब हो जाओगे तो तुम अवश्य हमें फाँसी दे दो परन्तु हम तुम्हें बताना चाहते हैं कि यह चिंगारी शोले बनकर तुम्हे चारों तरफ़ से घेरने जा रही है और तुम्हें इस आग पर चलना ही होगा, तुम पूरी ताकत से भी इस आग को बुझा नहीं पाओगे। एक समय ऐसा आएगा जब हमारी खामोशी उन आवाज़ों से ज़्यादा ताकतवर होगी जिन्हें तुम आज घोंटना चाहते हो।’’

फाँसी के बाद उन पाँचों की शव-यात्रा में छह लाख लोग शामिल हुए। दूसरी तरफ़ आस्कर नीबी, मिशेल श्वेब और सेमुअल फ़ील्डन को आजाद किये जाने के लिए आन्दोलन जारी रहा जिसके नतीजे में 26 जून 1893 को तीनों को रिहा कर दिया गया और गवर्नर अल्टगेल्ड ने माफी मांगते हुए कहा कि फाँसी पर चढ़ाये गये लोग निर्दोष थे और वह इतिहास के सबसे अन्यायकारी जजमेंट का शिकार हुए, जिसमें जज और ज्यूरी ने रंजिशन गलत फ़ैसले किये। शिकागो की इस घटना ने पूरी दुनिया के मज़दूरों में संघर्षों की लहर पैदा कर दी। सन् 1888 को अमरीकन फेडरेशन आफ लेबर ने अपने सम्मेलन में घोषणा की कि 1 मई 1890 से वह इस दिन को मज़दूर दिवस के रूप में मनाएगी और पेरिस में 1904 में आयोजित द्वितीय कम्युनिस्‍ट इन्टर्नेशनल ने इस दिन को पूरी दुनिया में अन्तर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया। यह घटना, कुरबानियों और संघर्षों की वह विरासत है जो पूरी दुनिया के मज़दूरों को प्रेरणा देती रही हैं। आइए, इस विरासत की रौशनी में आज के हालात का जायज़ा लेते हैं और भारत के मेहनतकश अवाम के सामने जो चुनौतियां और ज़िम्मेदारिया हैं उसे जानते हैं।

1917 की बोल्शेविक क्राँति ने एक नये निज़ाम को जन्म दिया जिससे खौफ़जदा होकर अन्तर्राष्ट्रीय पूंजीवाद ने कल्याणकारी राज्य का मुखौटा लगा लिया लेकिन 1989 में सोवियत संघ के बिखर जाने के बाद उसने एक झटके से उसको उतार फेंका। तीसरी दुनिया को आर्थिक रूप से गुलाम बनाने के लिए, दूसरी आलमी जंग के दौरान बनाई गयीं विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष जैसी संस्थाओं में अब तक की सबसे खतरनाक संस्था विश्व व्यापार संगठन को शामिल किया गया। इसने गैट का स्थान लिया। सरमायेदारों के प्रति उदार और मज़दूरों के प्रति कठोर होने की नीति को नवउदारवाद के नाम से प्रचारित किया गया। राष्ट्रीय गौरव और आत्मनिर्भरता के प्रतीक सरकारी उद्योगों को बेचने का दौर शुरू हुआ। इन उद्योगों के मज़दूरों से छुटकारा पाने के लिए छंटनी, तालाबन्दी, वीआरएस और बैंक करप्सी कोड का सहारा लिया गया। विदेशी माल को बढ़ावा देने के लिए देसी उद्योगों को खत्म करना जरूरी था। इसके लिए सीमा शुल्क को तीन सौ प्रतिशत से घटाकर बीस प्रतिशत पर ले आया गया और भारतीय लघु-उद्योग को खत्म करने के लिए उत्पाद कर में बढ़ोतरी के साथ-साथ उनके लिए आरक्षित सामानों को बड़े उद्योगों के लिए खोल दिया गया यानि मेमनों के लिए सुरक्षित क्षेत्र भेड़ियों के लिए खोल दिया गया। हालात इस हद तक बदले कि शिक्षा और स्वास्थ्य की नीतियां बनाने की जिम्मेदारी बिरला और अम्बानी बनाने लगे यानि मछलियों के कल्याण के लिए बगुले योजनाएं बनाने लगे।

जनता पार्टी के शासन के दौरान जिस लेबर मिनिस्टर रविन्द्र वर्मा ने इण्डस्ट्रि‍यल रिलेशन बिल 1978 पेश करके इन्डस्ट्रि‍यल डिस्प्यूट एक्ट 1947, ट्रेड यूनियन एक्ट 1926 और इन्डस्ट्रि‍यल इम्प्लायमेंट एक्ट 1946 को बदलने तथा 12 सेवाओं को आवश्यक व बाकी को अनावश्यक में बांटने के साथ-साथ एजूकेशनल इन्स्टीटयूश्नल बिल 1978 जैसे काले कानून को बनाने की जिम्मेदारी ली थी, उन्हीं मज़दूर विरोधी वर्मा को 1998 में दूसरे श्रम आयोग का अध्यक्ष बना दिया गया जिन्होंने मज़दूरों के पक्ष में बने सभी पुराने कानूनों को बदलने की सिफारिश की।

मार्क्स ने कहा था कि शासक वर्ग जनता को नशे मे रखने के लिए धर्म को अफीम की तरह इस्तेमाल करता है- यह बात उदारीकरण के दौर में सही साबित हुई। नई आर्थिक नीति के साथ मन्दिर-मस्जिद विवाद को जन्म देकर मजदूरों की एकता तोड़ने की कोशिश जारी रही और साम्प्रदायिक ताकतें साम्राज्यवादी एजेन्टों के रूप में सत्ता में आयीं। 2009 में बगैर वाम-मोर्च के समर्थन के सत्ता में लौटी कांग्रेस निरंकुश हो गयी और उसने महंगाई को आसमान पर पहुँचाकर मेहनतकश अवाम का जीना मुश्किल कर दिया। देश की अर्थव्यस्था सट्टेबाज़ों के हवाले कर दी गयी। अनाज, सब्ज़ी, दालें और धातुओं को सट्टेबाज़ों के हवाले किये जाने से जहां सट्टेबाज़ दिन दूनी रात चौगुनी तरक़्की करने लगे वहीं मुल्क की 83 करोड़ 60 लाख आबादी 20 रुपये रोज से भी कम की आमदनी पर पहुँचा दी गयी। इसके बाद एनडीए की सरकार आई और उसने सरकारी क्षेत्र के निजीकरण और कल्याणकारी राज्य की समाप्ति‍ की योजना को राकेट की गति दे दी। श्रम को सस्ता करने के लिए 44 श्रम कानूनों को खत्म कर उनको चार कोड में सीमित कर दिया। कार्यस्थल की कार्यदशा की जांच को रोक दिया गया। अप्रेन्टिस कानून के माध्यम से पूंजीपति को सस्ते में बंधुआ मज़दूर उपलब्ध करा दिये गये और काम के घन्टों की बढ़ोतरी के लिए कानून बना दिया गया ताकि पहले से ही मालामाल हो चुके पूंजीपति को और भी सस्ता श्रम हासिल हो सके। बैंकों में ब्याज़ दरें कम करके जनता की बचत पर मिलने वाले ब्याज़ को महंगाई दर से भी नीचे पंहुचा दिया गया। तेल पर उत्पाद करों की बढ़ोतरी ने आठ साल के शासन में लगभग 26 लाख करोड़ रुपया जनता की जेब से निकालकर पूंजीपतियों की जेब में डाल दिये गये।

दूसरी तरफ़ जिन पूंजीपतियों ने सस्ती ब्याज़ दर पर कर्ज़ लेकर चुकाने से इंकार कर दिया था उनका 10 लाख करोड़ से भी ज़्यादा कर्ज़ राइट ऑफ़ यानि माफ़ कर दिया गया। गैस सब्सिडी समाप्त कर दी गई और जनता की जेब से भारी भरकम रकम निकालकर मात्र चार लाख करोड़ रुपये मुफ्त राशन पर खर्च कर वाहवाही लूटी गई। इन मुक्त बाज़ार की आर्थिक नीतियों के कारण चंद पूंजीपति तो मालामाल होते गये जबकि किसान और मज़दूर हाशिये पर धकेल दिये गए। इस बीच मज़दूर यूनियनों को कमज़ोर और हतोत्साहित किया गया। ऐसे कठिन दौर में मई दिवस हमें रास्ता दिखाता है कि हम चट्टानी एकता कायम करें और अपने वजूद की हिफाज़त के लिए एक ठोस रणनीति बनाएं और संघर्ष करें।



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