इस इलाके में अब न डाकू मानसिंह के किस्से हैं न लाखन और फ़ूलन के। न किसी अपहरण और उसके बदले मांगी गई फ़िरौती की चर्चा हैं और न ही किसी सेठ के घर में पड़ी डकैती की। घने बीहड़ अब भी हैं लेकिन वह वीरान हैं। अब उनमें न गोलियों की आवाज़ आती है और न ही पुलिस की दबिश का शोर सुनाई पड़ता है। किसी नर्तकी के पांव में बंधे घुंघरुओं की झंकार, तबले की थाप और गाने की आवाज़ को बीहड़ में गूंजे तो बरसों बीत चुके हैं। पूरे बीहड़ में अजीब सा सन्नाटा पसरा है। आखिर हुआ क्या है? क्या इलाके में अत्याचार समाप्त हो गया है या पुलिस इतनी चुस्त और चाक-चौबंद हो चुकी है कि उसने इलाके को अपराध मुक्त करा लिया है।
डाकुओं के जीवन पर फ़िल्म बनाने के लिए जब मुम्बई से एक टीम वहाँ पहुंची तो उसके निर्देशक ने कुछ ऐसे ही सवाल वहाँ के निवासियों से पूछे। जवाब चौंकाने वाला था। लोगों ने बताया कि अधिकांश बूढ़े हो चुके डकैत मर चुके हैं। जो बच गए थे वह पंचसितारा बाबा बन गए हैं या शहर में अपनी औलादों के पास जा बसे हैं। हाँ, अनेक डकैतों ने अपने बच्चों को इस मेहनत व खतरे भरी ज़िंदगी से बचाने के लिए शहर में शिक्षा के लिए भेज दिया था। बच्चों पर शहरी शिक्षा ने यह असर डाला है कि उन्होंने अपने पुश्तैनी लूट के पेशे को तो नही छोड़ा है, बस तरीके बदल डाले हैं। अब वह अपने पिताओं की तरह कंधे पर बंदूक रखे बीहड़ में धूल उड़ाते इधर से उधर नहीं फिरते हैं। सिर पर पगड़ी बांधे उसके पल्लू से मुंह पर ढाटा भी वह नहीं बांधते हैं। बेहतरीन सूट पहने, शरीर पर परफ्यूम लगाए, शानदार कार में वह इधर से उधर यात्रा करते हैं। शहर की पॉश कालोनियों में उन्होंने कोठियां बना ली हैं और उनकी पत्नियां आए दिन ब्यूटी पार्लर में नज़र आती हैं। डकैतों की इन औलादों ने तरह-तरह के पेशे अपना लिए हैं। कुछ ने चिकित्सा के पेशे को चुना है तो कुछ वकील बन बैठे हैं। कुछ ने पैथोलोजिकल लैब खोल ली है तो कुछ ने शिक्षा के धंधे को अपना लिया है। राजनीति में भी इन्हें देखा जा सकता है। गरज़ यह कि जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं बचा है जहाँ यह नहीं पाए जाते हों या जहाँ इनका दबदबा न हो।
चिकित्सा के क्षेत्र में इन्होंने डाक्टर बनने के बाद अपना पेशा शुरू करते ही पैथोलॉजिकल लैब और दवा कम्पनियों से ऐसा गठबंधन कायम किया है कि लिखी गई जांचों से इन्हे कमीशन के रूप में अच्छी आमदनी हो जाती है। बेज़रूरत तरह-तरह की जांच लिखने से लैब वाले 50 प्रतिशत तक कमीशन घर पंहुचा आते हैं। महंगी दवाइयां लिखने की एवज़ में दवा निर्माता कम्पनियां अनेक तरह के तोहफ़े व मुनाफ़े में भारी-भरकम हिस्सा देने के साथ-साथ विदेश की यात्राएं कराती हैं। शिक्षा के क्षेत्र में इन्होंने स्कूल-कालेज और विश्वविद्यालय खोल लिए हैं। महंगी फ़ीस के रूप में इन पर दौलत की वर्षा होती रहती है। अभिभावक शिक्षा-कर्ज़ लेकर इनकी भारीभरकम फ़ीस चुकाते हैं। प्रकाशकों और इन स्कूल संचालकों में एक ऐसा अपवित्र गठबंधन क़ायम हो चुका है कि बिना हथियार के ही यह अभिभावकों की जेब पर डाका डालने में सफल हो जाते हैं, हालांकि हर साल अपनी लूट के खिलाफ़ अभिभावक आवाज़ उठाते हैं। वह स्थानीय प्रशासकों से इस लूट की शिकायत भी करते हैं। प्रशासक इन शिकायतों पर स्कूल संचालकों और अभिभावकों की मीटिंग भी बुलाते हैं लेकिन व्यवहार में नतीजा ज़ीरो निकलता है क्यूंकि बदस्तूर जारी रहती है।
इस लूट का एक उदाहरण देखिए। बाकी शहरों की तरह हमारे शहर में भी एक पुस्तक व स्टेशनरी विक्रेता ने शहर के अनेक अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों से गठबंधन क़ायम कर लिया है। स्कूल या तो सीबीएसई या आईसीएसई माध्यम के हैं लेकिन सभी स्कूलों में कोर्स की किताबें अलग-अलग प्रकाशन की लगी हैं जबकि सीबीएसई माध्यम के स्कूलों में केन्द्रीय विद्यालय संगठन की तरह ही एनसीआरटी की किताबें लगनी चाहिए। प्रकाशक अपनी किताबों को छापने से पहले पुस्तक-विक्रेताओं से सम्पर्क साधने के स्थान पर स्कूल संचालकों से भेंट करते हैं। ज़ाहिर है कि इस भेंट में पुस्तक में दी गई पठनीय सामग्री की गुणवत्ता के स्थान पर पुस्तक की कीमत तथा उसमें पुस्तक विक्रेता व स्कूल संचालक के बीच तय होने वाले कमीशन पर चर्चा ही होती है। पुराने ज़माने के डकैत जिस तरह लूट से पहले उसकी योजना बनाने के लिए आपस में बैठा करते थे, वैसे ही आज प्रकाशक-पुस्तक विक्रेता व स्कूल संचालक मिल बैठकर अभिभावकों को लूटने की योजना बनाते हैं। इस पुस्तक व स्टेशनरी विक्रेता की दुकान पर आप जाएंगे तो ऐसी भीड़ लगी रहती है कि जैसे सामान मुफ़्त में बंट रहा हो। कई तल में बना यह बुक-हाउस अपने हर तल में अलग-अलग स्कूलों के कोर्स की किताबें-कापियों और अन्य सामग्री के तैयार बैग, दीवारों में बने रैक में रखता हैं। काउंटर पर आपको केवल स्कूल व कक्षा का नाम बताना है और वहां मौजूद सेल्समैन पल भर में आपके सामने एक बैग और उसमें रखी गई सामग्री की मूल्य सूची पेश कर देगा। आप मूल्य सूची देखकर हैरान हो जाएंगे और फ़िर मजबूरी में अनिच्छापूर्वक बिल्कुल इस तरह से जैसे किसी डकैत ने आपके सीने पर बन्दूक रख दी हो अपनी जेब से पैसे निकालेंगे और उसे भुगतान करके वहाँ से इस अंदाज़ में बाहर की ओर चल देंगे जैसे आप लूट लिए गए हों। लूट इतनी होशियारी से और संगठित रूप से की जाती है कि लूटने वालों के पुरखे भी दाँतों तले उँगली दबा लें। इस पर होशियारी यह कि जो लूट का शिकार हुआ है वह कहीं इसकी रिपोर्ट भी नहीं लिखा पाता है। इन आधुनिक लुटेरों और इनके पुरखों में इतना अंतर है कि वह कड़ी मेहनत और जान को जोखिम में डालकर जितना माल बड़ी मुश्किल से एक महीने में लूट पाते थे यह उससे कहीं ज़्यादा एक दिन में बिना जोखिम के लूट लेते हैं।
ज़रा आप लूट की इनकी कला को देखें। कक्षा दो के लिए दो किताबों का एक सेट है। प्रत्येक किताब की पृष्ठ संख्या 208 है, साथ ही उसमें 40 पृष्ठ की एक वर्क-शीट लगी है। अब इनकी कीमत पर नज़र डालें। एक किताब की कीमत छपी है 449 रुपये 90 पैसे। आजकल एक रुपये से कम के सिक्के कहीं भी दिखाई नहीं पड़ते लेकिन यह बात जानते हुए भी प्रकाशक ने 90 पैसे छापे हैं। अब आप 450 रुपये इन्हें देंगे तो यह 10 पैसे वापस नहीं करेंगे या तो पूरे चार सौ पचास रख लेंगे या आप पर अहसान करते हुए 449 रुपये लेकर 90 पैसे छोड़ देंगे। प्रकाशक ने 90 पैसे लिखकर यह ज़ाहिर किया है कि कीमत निर्धारित करने में वह 10 पैसे भी अधिक नहीं लेता है। अगर लागत 10 पैसे कम आ रही है तो वह 10 पैसे कम ही कीमत रख रहा है। जब आप किसी ऐसे प्रेस पर जाते हैं जहां आपको कोई पोस्टर-पुस्तक अथवा कोई अन्य सामग्री प्रकाशित करानी पड़ती है तो आप उससे अगर इस किताब की लागत निकलवाएंगे तो यह बमुश्किल लागत और मुनाफ़ा व पुस्तक विक्रेता का कमीशन निकालकर 100 रुपये की बैठेगी लेकिन इसकी चार-पांच गुना कीमत बढ़ाकर रखने का मतलब खुले आम खरीदार की जेब पर डकैती डालना है और फ़िर लूट के इस माल में शामिल सभी को पहले से निर्धारित उनकी भूमिका के अनुरूप हिस्सा बंट जाता है। कक्षा दो के कोर्स की सूची में कुल 10 किताबें हैं तथा उसके अनुसार कापियां हैं। आपको जब स्कूल पुस्तकों की सूची देता है तो उस पर केवल किताबों का नाम लिखा है कीमत नहीं, जबकि उस स्कूल के संचालक को कीमत की भी अच्छी तरह जानकारी है क्योंकि प्रकाशक ने स्कूल-संचालक से मुलाकात करके ही कोर्स स्वीकृत कराया है और कमीशन के रूप में प्रतिशत तय किया है। आपने स्कूल से सूची पाकर इन 10 किताबों के मूल्य का अनुमान 1000 रुपये लगाया होगा और 500 रुपये अलग से कापियों तथा अन्य सामग्री के माने होंगे लेकिन जब आप इस बुक-हाउस पर पहुंचकर मूल्य सूची देखेंगे तो आपके पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक जाएगी। कक्षा दो की 10 किताबों पर आधारित जिस कोर्स की कीमत आप 1500 मानकर घर से चले थे उसका बिल तो 2774 रुपये 80 पैसे का बना हुआ रखा है। पहली ही दो किताबों का मूल्य 999 रुपये 80 पैसे है। यानि यह दो किताबें ही कुल बिल का तिहाई भाग हैं।
अब आप इस बुक-हाउस पर अन्य किताबों की पृष्ठ संख्या व उसका मूल्य देखें। उन दो के अलावा तीसरी किताब ‘सेल्फ़ लरनिंग इन्गलिश कोर्स’ पृष्ठ संख्या 98 कीमत 210 रुपये, चौथी किताब ‘करसिव स्ट्रोक’ पृष्ठ संख्या 46 कीमत 110 रुपये, पांचवीं किताब ‘साक्षी हिंदी पाठमाला’ पृष्ठ संख्या 96 कीमत 180 रुपये, छठी किताब ‘भाषा-कौशल’ पृष्ठ संख्या 56 कीमत 160 रुपये, सातवीं ‘एप्टीट्यूड’ पृष्ठ संख्या 40 कीमत 113 रुपये, आठवीं किताब ‘गेटिंग इन टच’ पृष्ठ संख्या 56 कीमत 169 रुपये, नवीं ‘गोल्डन मोरल वेल्यू’ पृष्ठ संख्या 48 कीमत 125 रुपये और 10वीं किताब ‘पीएमपी आर्ट एण्ड क्राफ्ट’ पृष्ठ संख्या 40 कीमत 299 रुपये है। इन सभी 10 किताबों की कीमत 2265 रुपये 80 पैसे है। कोर्स में 9 कापियां दी गई हैं जिसकी कीमत 230 रुपये है। शेष में कापी कवर, बुक कवर, नाम की चिट, पेन्सिल व कलर सेट शामिल है जिसकी कीमत 279 रुपये है। इस सेट की खरीद पर खरीदार को एक पैसे की छूट हासिल नहीं है यानि सारी सामग्री छपी हुई कीमत पर अदा करनी है जबकि कीमत इतनी ज़्यादा है कि प्रकाशक, स्कूल संचालक व पुस्तक विक्रेता में बंटकर भी अभिभावकों को छूट दी जा सकती है, लेकिन जब लुटेरे हृदयहीन और क्रूर हों तो जिसको लूटा गया है उसके प्रति उनमें दया का भाव कहां से आएगा।
उत्तर प्रदेश में सरकार में पहली बार मुख्यमंत्री बनने पर श्री योगी आदित्यनाथ ने शपथ लेने के बाद घोशणा की थी कि गुन्डे और अपराधी उत्तर प्रदेश छोड़कर चले जाएं। स्कूल खुलने के बाद जिस तरह अभिभावकों की लूट होती है यह भी संगठित अपराध की श्रेणी में आता है। अन्तर इतना है कि यह अपराध नज़र न आने वाले हथियारों के माध्यम से शहर में स्थित सफ़ेदपोश करते हैं। इन अपराधियों को नियंत्रित करने और अभिभावकों को इस खुली लूट से बचाने के लिए दोबारा बने मुख्यमंत्री क्या कोई कदम उठाएंगे? क्या इन अपराधियों को वह यूपी से बाहर निकालेंगे और क्या सरकार, शिक्षण सामग्री को भी दवाओं की तरह मूल्य नियंत्रण सूची में डालकर लागत के अनुसार इसकी कीमत निर्धारित करने का साहस दिखा पाएगी उनकी सरकार या वह भी इनके आगे नतमस्तक रहेगी। यह आज का एक बड़ा सवाल है।