अभी बहुत समय नहीं बीता जब कल का सूरज कौन देखेगा या कौन-कौन नहीं देखेगा जैसी बातें सामूहिक चिंता के रूप में यत्र, तत्र, सर्वत्र प्रकट होने लगी थीं। ऐसे में आम के मौसम ने एक राहत की सांस दी। आम के बौर तो खैर एक अलग मदहोशी लेकर आते ही हैं, लेकिन इस बार आम के परिपक्व हो चुके फलों ने उदासी के इस तमस को उजास से भर दिया जब कटे हुए आमों, भुने हुए मसालों और काँच की चमचमाती बरनियों की तस्वीरें सामने आने लगीं- जिनके आसपास घरों की अम्माएं, दीदियाँ, भाभियाँ और पत्नियाँ उनका अचार बनाने (डालने, अचार बनाया नहीं डाला जाता है) में मशगूल दिखीं।
यहां आकर कोई पॉलिटिकली करेक्ट जुझारू व्यक्ति तोहमत लगा सकता है कि अचार डालने की तस्वीरों में केवल महिलाओं का ही ज़िक्र क्यों किया गया? मामला जेंडर्ड बन जा सकता है, लेकिन जो दिखा वो कहा गया और जो हुआ वो तस्वीरों में दिखाया गया। होने को बदल दीजिए, तस्वीरें भी बदल जाएंगी और कहन भी। खैर…
इन तस्वीरों ने भारतीय समाज की उस भविष्योन्मुखी दृष्टि और जीवन के प्रति उत्कट अभिलाषा को अपनी तटस्थ (पैसिव) मौजूदगियों से प्रकट किया।
आम का अचार डालने का यही एक मौसम है और अचार साल भर के लिए ज़रूरी संसाधन है। यह देश में मुख्य भोजन नहीं है, बल्कि मुख्य भोजन में ज़ायके को बढ़ाने का एक सहायक समान है। ज़ायका, देखा जाय तो विलासिता है। विलासिता तब आती है जब बुनियादी जरूरतों की पूर्ति हो जाय। विलासिता भविष्य की थाती है। उसी विलासिता को पाने की जद्दोजहद करते हुए लोग मौजूदा दुख से मुक्ति पाना चाहते हैं। अचार एक ज़रूरी विलासिता है। अचार डालने की प्रक्रिया ही भविष्य के प्रति एक सुरक्षाबोध का निर्माण करती है। जो तस्वीरें आयीं उनके कैप्शन हालांकि तंज में ही थे। तंज़ की दो वजहें रहीं होंगी। पहली, कि यह महिलाओं का उद्यम है और दूसरी, कि कल की खबर नहीं है लेकिन अचार डल रहा है। महिलाएं यहां तंज़ का विषय हैं। लॉकडाउन-जनित लतीफ़ों के बड़े पैमाने पर हुए उत्पादन के केंद्र में महिलाएं ही रहीं। महिलाएं लतीफ़ों का बायस होते हुए भी भविष्य रचती हैं।
अचार की तरह हिंदुस्तान में बारहवीं कक्षा का इम्तिहान भी भविष्य के महलों की बुनियाद है। बारहवीं कक्षा की अंकसूची और उसका पर्सेंटाइल भी अचार की तरह का एक जायका है। इन दोनों तरह के जायकों पर ही जैसे मोदीयुग में संकुचित होते मध्यवर्ग का वजूद टिका है। ऑक्सीज़न और अन्य जीवनरक्षक दवाइयों की बेसाख्ता कमी, कालाबाजारी और मौतों की खबरों के बीच भी अगर बारहवीं के इम्तिहान अखबारों और न्यूज़ चैनलों का ध्यान बराबर रख पाये; जिस तरह सरकार ने इन जीवन-मरण के सवालों के लिए कमेटियाँ बनायीं, मंत्री समूह बनाये उसी प्रकार बारहवीं की परीक्षा के लिए मंत्री समूह गठित करने की घटना बताती है कि इस देश में बारहवीं का कितना महत्व है। अगर बारहवीं का संबंध थोड़ी देर के लिए शिक्षा प्रणाली से विच्छिन्न मान लिया जाय तो इसकी लय एकदम तेरहवीं, एकादशी, चतुर्थी, तीज जैसी धार्मिक भावनाओं की द्योतक लगती है। और यह पूछना या इस पर टिप्पणी करना बेसबब है कि इन तिथियों का कितना महत्व हिंदुस्तान के सार्वजनिक जीवन में है। ‘बारहवीं’ नये युग की ऐसी ही तिथि है जिसमें परलोक की चिंता निहित है। तब भी जब सब जानते हैं कि परलोक जैसा कुछ नहीं है। जैसे सब यह भी जानते हैं कि बारहवीं पढ़कर, उसके बाद इंजीनियरिंग या अकाउंटेंसी या भूगर्भशास्त्र पढ़कर या रसायन या भौतिकी में स्नातक या इतिहास या राजनीतिशास्त्र में मानद करने के बाद भी परलोक में बतायीं गईं सुविधाएं नहीं मिलनी हैं।
बारहवीं के इम्तिहान से हलकान हुआ मध्यवर्ग इस बात से हालांकि खुश हो सकता है कि यह पहली दफा है जब एक सरकार ने इनकी तरफ ध्यान दिया वरना तीन प्रतिशत आबादी, जिसे वोट देने से ज़्यादा ज़रूरी नेटफ्लिक्स पर चल रही एक सिरीज़ लगती हो, जिसका सारा ध्यान जीवन बीमा निगम की पॉलिसियों और सरसों तेल की पड़ताल में लगा रहता हो, उसे सरकार कोई भाव नहीं देती। सरकार किसी भी दल की हो उसे पता है कि ये वर्ग किसी काम का नहीं है। इसे पैकेज से मतलब है तो बदले में स्वामी-भक्ति भी दिखाता ही है। इस पैकेज में ही जन्नत तलाशने वाले बच्चे इस बात से परेशान नहीं हैं कि जिन बच्चों ने पांच साल पहले बारहवीं पास कर ली थी, सौ में अट्ठावन नंबर लाकर भी उनके लिए ही कोई काम इस सरकार के पास नहीं है। वो इस बात से भी परेशान नहीं हैं कि मेडिकल में जाने के लिए केवल पर्सेंटाइल से काम नहीं बनेगा बल्कि बहुत बड़ा शिक्षा ऋण भी लगेगा। वो इस बात से भी परेशान नहीं हैं कि इंजीनियरिंग करने के बाद उन्हें एमबीए करना पड़ेगा तब कहीं जाकर किसी कॉल सेंटर में जॉब मिलेगी।
असल में वो किसी और बात से परेशान नहीं हैं बल्कि वो केवल इस बात से परेशान हैं कि उनकी पर्फार्मेंस बारहवीं में ऐसी होना चाहिए कि उनके माँ-बाप रिश्तेदारों को गर्व से बता सकें। बाकी चिंता माँ-बाप की है। उल्लेखनीय बात यह है कि यही बच्चे अगले साल से ‘अपनी सरकार बनाने’ लगेंगे। चूंकि किसी बात से परेशान होने का अभ्यास इन्हें नहीं है, तो वोट डालते समय इन्हें अचार डालने की सी अनुभूति होगी, जो इनकी ज़िंदगी में भी थोड़ा जायका बढ़ा देगा। स्याही लगी उंगली को इंस्टाग्राम पर पोस्ट करने का एक नया ईवेंट बन जाएगा।
इनसे इतर आबादी के 70 फीसद बच्चे ऐसे भी हैं जो बाकी सब बातों से परेशान हैं सिवाय इस इम्तिहान के। उनके लिए इम्तिहान केवल तीन घंटे में साल भर की मेहनत का वमन करने का जरिया नहीं है, बल्कि हर घड़ी वे इम्तिहानों के कठिन दौर से गुज़र रहे हैं। उनके घर में न अचार जैसी भविष्योन्मुखी परियोजना है और न ही इम्तिहान से उपजते भविष्य की कोई छवि। जब साल भर वे बिना संसाधनों के अपने शिक्षकों की डांट खाते रहे और हर समय माफी मांगते रहे उन गुनाहों की जो उन्होंने नहीं किये, तो इम्तिहान यहां क्या खाकर उनका इम्तिहान लेगा?
उनका बचा रहना ही इम्तिहान है। मर जाना असफलता और जी जाना सफलता। अगर बारहवीं की कक्षा के इम्तिहान नहीं होंगे तो उनकी प्रतिक्रिया उदासीन ही होगी। हो जाते तो भी उदासीन ही होती। वे उदासीन होकर ज़िंदगी की चुनौतियों का सामना करना जानते हैं। जैसे घरों में महिलाएं अपनी उदासीन उपस्थिति से अचार डालती हैं।
लेकिन रुकिए! कहानी अभी पूरी नहीं हुई। कल से, जब से माननीय प्रधानमंत्री ने इन सद्य: प्रसूत मतदाताओं के लिए फैसला लिया है कि बच्चों की सुरक्षा प्रथम है, तभी से कई बच्चे और उनके अभिभावकों की आती-जाती साँसों में मेरिटिक्रेसी की गंध आने लगी है। अब मेरिट का क्या होगा? सब पास हो जाएंगे? वो भी जो गदहे थे, और वो भी जिन्होंने खूब मेहनत की? ऐसे तो देश में अजीब तरह की अराजक समानता फैल जाएगी? इन आती-जाती तेज़ चढ़ी साँसों में यह स्वर नहीं सुनायी पड़ता कि जो बच्चे मेहनत नहीं कर पाये, वो ऐसा क्यों नहीं कर पाये? या जो बच्चे मेहनत कर सके, वो ऐसा क्यों कर सके?
अभी अटकलों का दौर घर-घर में व्याप्त है। अगर दसवीं के मार्क्स जोड़े तो? अगर ग्यारहवीं को आधार बनाया तो? अगर कोर विषयों को ही देखा तो? अगर सारे विषयों को आधार माना जाएगा तो? सबके घरों में दीवारों पर लटके झाड़फानूस उतारकर उनकी खाली हुई जगहों पर यही विवरण लिखे जा रहे हैं। इन विवरणों में उनका ज़िक्र नहीं है जो ऐसे किसी भी आधार पर होने वाले मूल्यांकन में आपके बच्चों को कोई चुनौती नहीं देंगे क्योंकि उनका आधार ही तो खिसका हुआ है। वो बच्चे पैदा ही हुए हैं आधारहीन। आधार आपके पास थे, हैं और शायद रहेंगे भी। वो आपके बच्चों के कंपिटीटर नहीं बनेंगे।
कंपिटीशन तो आपका शगल है, वो सरवाइव करने की जुगत में जिंदा हैं। उनके जीवन में अचार नहीं है। उनके जीवन में मुख्य कहा जाने वाला भोजन भी नहीं है। आप मुख्य भोजन के साथ अचार खाते हैं, वे कुछ नहीं होने पर बिना कुछ को ही मुख्य भोजन समझकर खाकर सो जाते हैं।
इसी बारहवीं और दसवीं बोर्ड के इम्तिहान से पहले इन्हीं हलकान बच्चों के नाम महामहिम ने मन की बात का एक एपिसोड समर्पित कर दिया था। और तब देखा गया था कि मोदी की भवों से लेकर दाढ़ी तक की मुरीद इस ‘क्लास’ ने पहली दफा मोदी की किसी बात को बच्चों के लिए गरिष्ठ बताया था। मोदी ने कहा था कि पहले कठिन प्रश्न हल करें। क्या तो कोहराम मचा था। इसी अवसर पर पहली दफा यह बात इस क्लास ने मानी थी कि मोदी पढ़ा-लिखा और बाल-बच्चों वाला इंसान नहीं है। अगर होता तो ये अनर्गल प्रलाप न करता। बताइए, अगर कठिन प्रश्न में ही बच्चा उलझ जाएगा तो उसके मार्क्स का क्या होगा? पहली दफा इस क्लास ने मोदी की योग्यता पर मुखर होकर सवाल उठाया था- लगता है इसने कभी कोई परीक्षा नहीं दी? पता नहीं तब क्या-क्या कहा गया था।
जिस क्लास ने नोटबंदी से लेकर लॉकडाउन तक के सनकी निर्णयों पर मोदी की योग्यता पर सवाल न उठाये हों वो एक सलाह पर इस कदर बिफर गया था। बात ताज्जुब की फिर भी इसलिए नहीं है क्योंकि जिस तरह इन बच्चों के लिए अपनी परफ़ॉर्मेंस ज़रूरी है उसी तरह इनके माँ-बाप के लिए भी बच्चों की परफ़ॉर्मेंस ज़रूरी है। बाकी बातें दीगर हैं। इन्हें एक ऐसे परिस्थितिकी तंत्र में रहने का आभास बना रहता है जिसे बाहरी दुनिया की गतिविधियों से इम्यून रखा गया है। एक गुब्बारे में इनकी दुनिया है और जो एयरप्रूफ है, वाटरप्रूफ है और साउंडप्रूफ भी है। यहां न हवा का प्रवेश है, न जल का, न ध्वनि का।
अब इम्तिहान नहीं होंगे, इसकी सूचना प्रधानमंत्री ने दी है। ध्यान दें- सीबीएसई ने नहीं। इन्हें कायदे से अब भी इस बात पर भरोसा नहीं करना चाहिए क्योंकि परीक्षा लेने या न लेने का निर्णय उसका होना चाहिए जो इसके लिए जिम्मेदार है। आपके लिए ये एक क्लू है- चाहें तो लगे हाथ एक ट्विटर ट्रेंड करा दें!