नमस्ते सर, कैसे हैं आप? बहुत दिनों के बाद आपको लिख रहा हूं। बहुत दिनों से आपसे बात नहीं हुई। मेरी ही लापरवाही है। बीते कुछ समय से धर्म-अध्यात्म इन विषयों में मुझे अधिक दिलचस्पी हो रही है और मैं इस बारे में किताबें भी पढ़ता रहता हूं। सबसे पहले मैंने भगवद्गीता का गांधी जी द्वारा ‘अनासक्ति योग’ नाम से किया गया अनुवाद पढ़ा था। मुझे यह बेहद पसंद आई और इसने मुझे बहुत प्रभावित किया। इसके बाद से धार्मिक-अध्यात्मिक साहित्य पढ़ने के प्रति मेरी रूचि अधिक बढ़ गई।
अपने विचारों में आये इस परिवर्तन के प्रति मुझे ऐसा लगता रहा है कि आपको एवं मेरे अन्य मित्रों को मेरे विचारों में आया यह परिवर्तन पसंद नहीं आएगा और इसे पलायनवादी मानसिकता के तौर पर ही देखा जाएगा, इसलिए एवं इसके अलावा मेरी लापरवाहियों (विशेषकर कैरियर के प्रति) के लिए आपसे डांट भी पड़ सकती है या आलोचना सुननी पड़ सकती है। इस आशंका से भी मुझे यह लगता रहा कि बात करने से बचा जाए। पर आपकी याद तो बराबर बनी ही रहती है।
मेरे लिखे में जगह-जगह इस बात का जिक्र आता रहता है कि वर्मा सर ऐसा कहते हैं, ऐसा कहते हैं। जो लोग भी उस लिखे को पढ़ पाते हैं वह यह बात जान रहे हैं।
बीते दिनों मैंने पवन कुमार वर्मा की लिखी किताब ‘ग़ालिब और उनका युग’ पढ़ी थी तब आपको बहुत याद कर रहा था। मैंने अपने कई दोस्तों से यह बात कही कि इस किताब को पढ़ते हुए वर्मा सर की बहुत याद आई क्योंकि ग़ालिब के मिज़ाज़ की मस्ती की कल्पना का अनुमान तो हम सर को ही देखकर कर पाते हैं। हमने किसी और को तो ऐसा नहीं देखा जिसके लिए मैं ऐसी कल्पना कर सकूं:
गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है
रहने दो अभी साग़र-ओ-मीना मिरे आगे
जैसा कि मैंने कहा कि धार्मिक साहित्य के अध्ययन में मेरी दिलचस्पी हो रही है। केवल हिंदू धर्म ही नहीं अन्य धर्मों के धार्मिक-आध्यात्मिक किताबों को पढ़ने में, उनकी कहानियां जानने में भी दिलचस्पी रहती है। बीते दिनों मैंने इस्मत चुग़ताई का ‘एक कतरा ख़ून’ उपन्यास पढ़ा। अंशु मालवीय जी से यह किताब मिली थी पढ़ने के लिये।
पैगंबर मोहम्मद साहब के नवासे हज़रत इमाम हुसैन के जीवन और कर्बला में उनकी लड़ाई पर आधारित है यह उपन्यास। इसके साथ ही मैंने ख़ुदा-ए-सुख़न मीर अनीस के मर्सिये सुने। इस किताब की लेखिका इस्मत चुग़ताई ने यह किताब मीर अनीस को समर्पित की है। इन पंक्तियों के साथ ‘अनीस के नाम कि यह कहानी मैंने उनके मर्सियों में पाई है।’
मुहर्रम में जो कुछ सड़कों पर घटित होता है हम तो केवल उसे ही देख पाते हैं पर उसके पीछे का दर्शन क्या है, विचार क्या है, यह हम कहां जान पाते हैं। हम यदि जान पाए तो हम भी इमाम हुसैन के शैदाई हो जायें। जोश मलीहाबादी ने यूं ही नहीं लिखा है:
क्या सिर्फ मुसलमानों के प्यारे हैं हुसैन,
चर्खे नौए बशर के तारे हैं हुसैन,
इंसान को बेदार तो हो लेने दो,
हर कौम पुकारेगी हमारे है हुसैन
इस कहानी ने, मीर अनीस के मर्सियों ने, इतना प्रभावित किया कि अब तक इसका प्रभाव बना ही हुआ है। मैं तो इमाम हुसैन का मुरीद हो गया। याद रखने के लिए, जीवन में प्रेरणा पाने के लिए, सच्चाई और अपनी निष्ठा पर डटे रहने के लिए कितने बड़े-बड़े उदाहरण मौजूद हैं हमारे इतिहास में।
अन्याय, ग़ैर-बराबरी, विभाजन, भेद-भाव की कहानियां दिन-रात दोहराई जा रही है मीडिया के हजार-हजार मुखों से फिर भी इंसान के बीच बराबरी और मेलजोल का ज़ज़्बा ऐसा है कि चौदह हजार साल पहले पैदा हुआ एक शख़्स बराबरी की, सद्भाव की, अन्याय के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा देता है। यह हम पर ही है हम क्या याद रखते हैं और क्या भूल जाते हैं।
सर, आप बराबर यह बात कहते ही रहते हैं कि ‘सांप्रदायिकता संकीर्णता का ही एक रूप है।’ आज इंसान इतना छोटा हो गया है कि वह अपने आदर्शों को भी निरंतर छोटा करता चला जा रहा है जबकि इंसान की किसी भी तरह की उपलब्धि समस्त मानव संसार की उपलब्धि होती है।
गांधी जी को सत्याग्रह की प्रेरणा भी इमाम हुसैन की कहानी को जानकार ही मिली थी। उन्होंने कहा है:
I learned from Hussain how to be wronged and be a winner, I learned from Hussain how to attain victory while being oppressed.
इस किताब को पढ़ लेने के बाद मुझे उत्पला जी से बादशाह हुसैन रिज़वी की किताब ‘मैं मुहाजिर नहीं हूं’ पढ़ने को मिली। उन्होंने यह भी बताया कि लेखक आपके मित्र हैं। किताब के पहले पन्ने पर लिखा भी था:
अज़ीज़तरीन दोस्त डॉ. लाल बहादुर वर्मा को सप्रेम,
बादशाह हुसैन रिज़वी
23-04-09
आपने तो पढ़ी ही होगी यह किताब, पर अन्य पढ़ने वालों के लिए बता दूं कि लगभग 100 पेज के इस छोटे से उपन्यास में ऐसा होता है कि शमीम नाम के एक शख़्स जो लाहौर में रेलवे में कार्यरत थे जीएम के पद से रिटायर हो चुके हैं, वह करीब बीस-पच्चीस सालों के बाद बस्ती जिले के हल्लौर कस्बे के अपने गांव में अपनी बहन के यहां वापस आते हैं। ‘मैं मुहाजिर नहीं हूं’ यह उनका ही कथन है। उनकी त्रासदी यह है कि वह लाहौर में रेलवे में फोरमैन के पद पर कार्यरत थे। यह नौकरी करते हुए उन्हें पांच साल बीत चुके थे। देश का विभाजन हो जाने से वह देश के जिस हिस्से में रह रहे थे वह पाकिस्तान हो गया। आर्थिक कारणों से वह अपनी नौकरी नहीं छोड़ पाये, पर उनका मन और सबकुछ तो यहीं छूट गया। इस विडंबना, इस पीड़ा को क्या कहें जिसने उनके जैसे लाखों लोगों को अपने ही देश में अचानक से पराया बनाकर रख दिया।
इस किताब की एक विशेषता यह है कि इसमें कुछ भी बुरा नहीं घटित होता बल्कि शमीम नाम के इस पात्र के माध्यम से लेखक ने गांव-कस्बे के अपने जीवन की स्मृतियों को सहेजने का प्रयास किया है। हिन्दुओं-मुसलमानों की मिली-जुली संस्कृति के मूल्यों को सहेजने का जो अब अतीत की बात होती जा रही है। इसमें लेखक ने अपने बचपन के दिनों में अपने गांव कस्बे में देखे गए मुहर्रम का बहुत ही विस्तार से और रोचक वर्णन किया है।
इसके अलावा इन दिनों पत्रकार सईद नक़वी की किताब ‘वतन में पराया’ (हिन्दुस्तान का मुसलमान) यह किताब पढ़ी। बहुत ही शानदार किताब है। शीर्षक बड़ा नकारात्मक सा है, पर किताब बहुत ही तथ्यात्मक और व्यवस्थित ढंग से लिखी गई है। शीर्षक से नकारात्मकता की बात मैं इस संदर्भ में भी कह रहा हूं कि बहुसंख्यकवाद आजकल इस रोग से भारतीय समाज ही नहीं बल्कि दुनिया के बहुत से देश जूझ रहे हैं। अधिकांश देशों में अल्पसंख्यकों के प्रति अच्छी भावना नहीं रखी जा रही और भेदभावपूर्ण बर्ताव किया जा रहा है। ऐसे में इसका शीर्षक कुछ इस तरह का ही होना चाहिए था जो बहुसंख्यकवाद की इस समस्या को दर्शाये।
पर यह किताब केवल परायेपन के बारे में ही बात नहीं करती बल्कि शुरुआत के दो अध्यायों में अपने घर-परिवार और अवध क्षेत्र की उस तहज़ीब की बात करती है जिसके लिए गंगा-जमुनी तहज़ीब का मुहावरा प्रयोग किया जाता है। यह वर्णन इतना व्यापक और इतना सुंदर है कि रश्क़ होता है कि हम क्यों नहीं उस समय में पैदा हो पाये कि हम इस साझेपन को महसूस कर पाते। मेरे जैसे 90 के दशक के बाद पैदा हुए लोग तो आश्चर्य के साथ इनकी कहानियां सुनते हैं। सांप्रदायिकता के विस्तार के अलावा मैं तो इसके लिए भूमंडलीकरण के बाद परिवर्तित होती दुनिया में जहां समाज समाप्त होता जा रहा है, तो सामाजिकता की अपेक्षा हम कैसे कर सकते हैं, इसे भी जिम्मेदार मानता हूं।
इस किताब में प्रधानमंत्रियों की श्रृंखला शीर्षक से एक अध्याय है जिसमें भारत के लगभग सभी प्रधानमंत्रियों का सांप्रदायिकता के प्रति क्या रूख़ रहा, किस प्रधानमंत्री के कार्यकाल में क्या-क्या हुआ या नहीं हुआ, इन बातों का मूल्यांकन किया गया है। लेखक की टिप्पणियां बहुत ही सधी हुई एवं सटीक हैं। ‘वीभत्स दंगे’ शीर्षक से सांप्रदायिक हिंसा से जुड़ी घटनाओं की ग़ैर-जिम्मेदार रिपोर्टिंग और अफ़वाहों का प्रचार कितना हानिकारक साबित होता है इसका वर्णन है।
बेहद महत्वपूर्ण किताब है यह। जिन्हें भी साझा संस्कृति में, विभिन्न धर्मों की एकता और बराबरी में विश्वास हो उन्हें तो यह किताब पढ़नी ही चाहिए पर जिन्हें विश्वास न हो वे तो जरूर ही पढ़ें। शायद यह किताब उनके पूर्वाग्रहों, दूराग्रहों को दूर करने में कामयाब हो पाए।
यह बातें मैंने अपने दोस्त किशन को बताईं। उनका कहना था कि मैं यह सब लिख दूं। मेरी भी इच्छा थी कि यदि मैं लिख दूंगा तो यह बातें आप तक भी पहुंच जायेंगी। सर, मेरी इच्छा रहती है कि मैं आपको अपना लिखा हुआ पढ़कर सुनाऊं और आप कहें कि ”तुम्हारी चिट्ठी सुनने का सुख मिला।”
आजकल के फेसबुक के इस दौर में लोग दूसरों के माध्यम से भी अपना आत्मप्रचार ही करते रहते हैं। इस वजह से संकोच ही हो रहा था सार्वजनिक रूप से लिखते हुए, पर इन महत्वपूर्ण किताबों के बारे में और भी लोग जानें, इसलिए लिख दिया।
प्रणाम सर
आपका अंकेश