लंबे समय से एक बात कही जा रही है कि हिंदुस्तान में विपक्ष लगातार पिट रहा है। यह बात अभिधा से ज़्यादा लक्षणा और व्यंजना में कही जाती रही है। बिहार विधानसभा में कल से शुरू हुआ विपक्षियों के पिटाई अभियान का धारावाहिक आज दूसरे दिन भी जारी रहा और यहां बाज़ाफ़्ता अभिधा में उनकी पिटाई होते देखी गयी।
पाठकों को इन तीनों तरह की शब्द शैलियों के बारे में संक्षेप में बताना ज़रूरी है। अभिधा उसे कहते हैं जो वाकई हो रहा है, भौतिक रूप से जो हो रहा है वही बताया भी जा रहा है। लक्षणा में होता ये है कि भौतिक रूप से चाहे वैसा न हो रहा हो लेकिन उसकी तरह होता हुआ दिखता है। जैसे मीडिया में जब सत्ता के काम को विपक्ष का कांड बनाकर पेश किया जाता है और उसे जी भर कर मीडिया के तमाम एंकरों-एंकरानियों द्वारा लताड़ा जाता है तो उसे लक्षणा शैली में विपक्षियों की धुनाई, पिटाई आदि कहा जाता है। व्यंजना में दूर से कौड़ी लायी जाती है, मसलन चुनाव में विपक्षी दल हर जाएं तो कहा जाएगा कि विपक्ष की धुनाई हो गयी या पिटाई हो गयी या वह पिट गया।
भारत के ताज़ा-ताज़ा नये कलेवर के लोकतंत्र में हालांकि कई बार अभिधा में विपक्ष की कुटाई की घटनाएं सामने आती रहीं हैं, लेकिन ज़्यादातर मामलों में लक्षणा और व्यंजना से काम लिया जाता रहा है। बड़े पैमाने पर इस तरह अभिधा में कुटाई-पिटाई का मामला पहली दफा मंजरे आम हुआ है।
बिहार विधानसभा में विपक्षियों की संख्या सत्तापक्ष से थोड़ी ही कम है और इसमें कई दल शामिल हैं। पिटाई के मामले में दलगत भावना से ऊपर उठाकर काम लिया गया है। क्या राजद, क्या कांग्रेस, क्या लेफ्ट, सभी को एक लाठी से उतारा गया है। महिला विधायकों की हुज्जत भी समान भाव व तीव्रता से की गयी है। तस्वीरें और वीडियो सोशल मीडिया पर शाया हो रही हैं।
मुख्यधारा कहे जाने वाले मीडिया पर इसकी कवरेज का पता नहीं क्योंकि इस पिटाई अभियान में पत्रकारों को भी लपेटा गया है। इसलिए संभव है कि मुख्यधारा का बेआबरू मीडिया इस घटना के प्रति ब्लैकआउट की आचार संहिता से काम ले रहा हो। इससे मीडिया के आंतरिक समायोजन के लिए खतरे पैदा हो सकते हैं। जब उसी का रिपोर्टर पिट रहा हो और वो रिपोर्ट करेगा तो बहुत संभव है वो अपने दर्द और कष्ट का चित्रण भी कर सकता है। ऐसे में लाख कोशिशों के बावजूद उससे झूठ नहीं बुलवाया जा सकेगा। बहरहाल… इस धारावाहिक अभियान से कुछ सबक मिलते हैं जिन पर नजरे इनायत हो तो यह लोकतंत्र के कुछ बुनियादी मामलों पर केरोसिन से प्रदीप्ति उत्पन्न करने लायक एक डिबरी जितना काम तो कर ही सकेगा।
इस सत्ता प्रायोजित पिटाई अभियान में किस विधायक को कैसे पीटा जा रहा है, कैसे उन्हें बाल पकड़कर ज़मीन पर घसीटा जा रहा है, कौन-कौन उन्हें पीट रहा है और किसके कपड़े-फाड़े जा रहे हैं, किसके उतारे या उतरवाए जा रहे हैं, कौन फाड़ रहा है, कौन उतार रहा है, ये सब इस अभियान के ब्यौरे मात्र हैं जिन पर बहुत तवज्जो देने की ज़रूरत नहीं है। हमें बुनियाद को पकड़ना है। ऐसे ब्यौरे तो हर घटना के होते ही हैं।
इस अभियान के मूल में है एक कानून- बिहार विशेष सशस्त्र पुलिस विधेयक। इसे सत्ता पक्ष किसी भी हाल में पारित करवाना चाहता है और विपक्ष इसे किसी भी हालत में पारित होने से रुकवाना चाहता है। यह कानून बक़ौल विपक्ष, पुलिस को असीमित शक्तियां देता है और हम जानते हैं कि पुलिस की शक्तियों व जनता की असुरक्षा के बीच सैद्धांतिक व व्यावहारिक दोनों ही तरह से व्युत्क्रमानुपातिक संबंध है। अगर पुलिस की शक्तियां बढ़तीं हैं तो जनता की शक्तियां उसी अनुपात में क्षीण होती हैं। चूंकि मौजूदा स्वरूप में पुलिस को जो और जितनी भी शक्तियां मिली हुई हैं वह जनता की शक्तियों के हरण के लिए ज़्यादा से भी बहुत ज़्यादा हैं इसलिए इसे अतिरिक्त शक्तियां दिये जाने का सीधा मतलब होगा कि प्रदेश में पुलिस का राज कायम होगा जो देश के लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है।
विपक्ष की चिंता ये भी है कि जैसा मौजूदा शक्तियों का दुरुपयोग होता है, इन असीम शक्तियों का असीम दुरुपयोग होगा और जनता के पास बचा खुचा जनतापन भी उससे छीन लिया जाएगा। पुलिस कुछ भी करे अंतत: वह सत्ता को मजबूत करती है और राजनैतिक रूप से सत्ता का मजबूत होना विपक्ष की पिटाई (सभी शब्द शैलियों में) के लिए नित नये अवसरों को पैदा करेगा। इन अवसरों के इस्तेमाल से विपक्ष भी जनता की तरह लगातार कमजोर होता जाएगा और इन दोनों के कमजोर होने से अंतत: राज्य में लोकतंत्र नामक व्यवस्था का लोप हो जाएगा।
सत्ता पक्ष इसे नाहक डर बता रहा है और उसका कहना है कि ऐसा कुछ नहीं होगा। विपक्ष कह रहा है कि ऐसा ही होगा। इस बीच एक संवाद यहां इन्सर्ट किया जा सकता है जिसमें कल्पना के अंश उतने ही हैं जितने सत्ता पक्ष द्वारा इस कानून के दुरुपयोग न होने का आश्वासन।
तो जब पक्ष-विपक्ष के बीच इसी बात पर बहुत देर तक जुगलबंदी चलती रही कि इसका दुरुपयोग होगा या नहीं और इससे आगे बढ़ना मुश्किल हो गया, सदन में गतिरोध की स्थिति पैदा होने लगी, तब मुख्यमंत्री का पीए उनके आसन तक दौड़ा-दौड़ा आया और उन्हें फोन थमाया। मुख्यमंत्री ने फोन पकड़ा, कान से लगाया और कुछ आदेश जैसा सुना। फिर फोन कट गया। उसे उन्होंने वापिस अपने पीए को थमा दिया। इसके बाद मुख्यमंत्री ने पटना पुलिस, सीआरपीएफ और डीएम को फोन लगाया और उन्हें तत्काल सदन में बुलवाया। जब सब सदन में पहुँच गए तो उन्होंने मुख्यमंत्री से पूछा- हमें इस तरह सदन में क्यों बुलाया गया? मुख्यमंत्री ने कहा– ‘’सदन इस पॉइंट पर आकर अटक गया है कि इस कानून का दुरुपयोग होगा या नहीं? हम चाहते हैं कि आप लोग विपक्ष को बतलाएं कि यह कानून किस प्रकार से काम करेगा। मान लीजिए कि आपको मेरे जैसे विश्वशनीय सूत्र ने बताया कि अगले आधे घंटे तक अगर ऐसा ही गतिरोध सदन में रहा तो विपक्ष कोई भारी हरकत कर सकता है, तब आप लोग इस नए कानून के अनुसार क्या करेंगे?’’
इतना सुनना था कि बाहर से आए हुए तमाम आगंतुकों ने अपने लट्ठ निकाल लिए और जिसे जैसा मन किया मारा-पीटा, नोचा काटा, घसीटा, कपड़े फाड़े, बाल नोचे और उन्हें सदन से बाहर खदेड़ दिया।
यानी इससे यह साबित हुआ कि अगर किसी स्रोत से किसी के बारे में कोई सूचना मिलती है तो पुलिस को अपराधी (संभावित)बतलाए गए लोगों से कैसे निपटना है। ऐसे मामलों में प्राथमिकी दर्ज़ करने की ज़रूरत नहीं होगी, बल्कि ऑन द स्पॉट कार्रवाई होगी। इसके बाद थाने ले जाकर मनमाफिक धाराएं थोप देने की कार्यवाही की जा सकेगी। शास्त्रों में इसे ‘रिस्पॉन्स टाइम’ कहा जाता है। यहां रिस्पॉन्स टाइम का महत्व है, जिसे त्वरित होना है। यानी एक सेकंड की देरी किए बिना पहले कार्रवाई, फिर पूछताछ जैसी औपचारिकताएं।
यह वास्तव में एक डेमो था, मतलब मुख्यमंत्री सदन में विपक्ष को पहले यह बताना चाह रहे थे कि क्या आप लोग ऐसा मानकर चल रहे हैं कि जैसा आपके साथ हुआ जनता के साथ भी वैसा ही होगा? तो सत्ता पक्ष मानता है और आश्वस्त करना चाहता है कि ऐसा बिलकुल नहीं होगा। अब इसे फालतू तूल देने की ज़रूरत नहीं है। हमने आपकी फिजूल आशंकाओं को प्रदर्शन में रुपांतरित करके दिखला दिया है। अब वापिस सदन में लौटें और इस कानून को पास करवाएं।
यह सदन के अंदर सदन द्वारा आयोजित की गयी एक प्रायोगिक कार्रवाई थी जिसमें यह साबित होना था कि विपक्ष के तसव्वुर में कानून के स्वरूप को पहले करके दिखलाया जाए, फिर बाद में यह समझाया जाय कि जो अभी यहां हुआ वैसा कुछ नहीं होने जा रहा है। आपकी यानी विपक्ष की शंकाएं निर्मूल हैं।
दो दिन से चल रहे इस घटनाक्रम में नया केवल यह है कि बाहर से आयी फोर्स ने विधायकों को मारा-पीटा है वरना आपस में गुत्थमगुत्थी से तो यूट्यूब भी अंटा पड़ा है। किसी भी सदन की कार्यवाही देख लो यही होते आया है, हालांकि यह पुराने और उबाऊ हो चले दृश्यों में बाहरी किरदारों की एंट्री से जान डालते प्रतीत हो रहे हैं। फिर भी यह घटना तूल क्यों पकड़ रही है?
क्योंकि इसमें विधायकों यानी जनप्रतिनिधियों को पीटा जा रहा है, लेकिन वे जिनके प्रतिनिधि हैं या जिस जनता ने उन्हें प्रतिनिधि चुना है या माना है और सदनों में भेजा है उनके पिट जाने और पीटे जाते रहने का लंबा तजुर्बा और अभ्यास इस देश को रहा है और यहां जनता के बीच में पक्ष-विपक्ष करने की कोई गुंजाइश नहीं रहती। जनता है तो उसे पिटना ही है- अभिधा में भी, लक्षणा में भी और व्यंजना में भी।
धारावाहिक रूप से चल रहे इस घटनाक्रम में अनोखा क्या है? पुलिस द्वारा विधायकों की मारपीट? नहीं, यह तो होता रहा है पहले भी। इसमें नया है कि पुलिस द्वारा विधायकों को विधानसभा के सदन और परिसर में पीटा जाना। सदन और परिसर में ऐसा होना ही इसे अनोखापन देता है। ऐसा इसलिए क्योंकि हमें ऐसा बताया गया है या कहें कि हमारी दृढ़ मान्यता है कि विधासभा का सदन और सदन का परिसर लोकतांत्रिक रूप से ज़्यादा विशिष्ट है और इस विशिष्टता प्राप्त परिसर के अंदर लोकतंत्र को बाहर से ज़्यादा सुरक्षित, मर्यादित, निर्भय और सभ्य होना चाहिए। इसे तमाम ऐसी कार्यवाहियों से दूर रखा जाना चाहिए जो सड़क पर होती रहती हैं। इसलिए जब बाहर यानी सदन के अलावा कहीं भी ऐसा कुछ घटित होता है तो उसे हमारे दिल दिमाग ने मान्यता दी हुई है कि यहां तो ये चलेगा, लेकिन सदन में नहीं चलेगा।
अब इसमें दिलचस्प और मूल बात ये है कि अगर बाहर यानी सदन के अलावा कहीं भी ठीक यही सुरक्षा, संरक्षण, मर्यादा व सभ्यता नहीं है तो सदन पर भी इसका प्रत्यक्ष प्रभाव होगा। सदन को मिली विशिष्टता उसे सुरक्षा देने में कभी भी चूक जाएगी। अब इसी से जुड़ा मौलिक और बुनियादी सवाल यह है कि पहले सदन की विशिष्टता खंडित हुई या इस विशिष्टता से मुक्त माना गया भू-भाग? सवाल यह भी है कि सदन के विशिष्टता क्षेत्र से बाहर जब ठीक यही और इससे भी बर्बर हमले होते रहे हैं, तो सदन में बैठी विशिष्टताओं से लैस विभूतियां क्या करती रहीं और आज जब इन विभूतियों पर हमले हो गए तो सदन के विशिष्ट क्षेत्र से बाहर रखे गए इलाकों की इस पर क्या प्रतिक्रिया रही?
जनप्रतिनिधि को सामान्य भाषा में जनता का दूत अगर कहा जा सकता है, तो यह दूतों के साथ हुआ दुर्व्यवहार है जो एक अभियान के रूप में संचालित किया गया है। इसमें इतना तो तय है कि स्वत: स्फूर्त जैसा कुछ दिखलायी नहीं पड़ रहा है। पुराने जमाने में दूत अभयदान प्राप्त होते थे। यानी एक मरियल सा राजा भी अगर सौ अक्षौहिणी सेनाओं से सम्पन्न सम्राट के यहां यह संदेश भेजता कि तुम्हारे साम्राज्य का अंत करने को हमारे राजा आतुर हैं, तब भी सम्राट भुजाएँ फड़फड़ाते हुए अपने सिंहासन पर ही बैठे रहते थे। दूत को एक शब्द बुरा भला तक नहीं बोलते थे। मार-कुटाई तो छोड़ ही दो। अगर बुरा लगा तो सीधा राजा से निपटते थे।
आज जब बिहार विधानसभा में जनता के दूत पिट रहे हैं तब दायित्व उसका है जिसने उन्हें भेजा था। जनता को हर समय कमजोर और लाचार होने का स्वांग भरना छोडना चाहिए। कभी-कभी ऐसे अवसरों पर राजा टाइप भी फील कर लेना चाहिए। संभव है इस मजमून को पढ़कर जनता अपनी चुप्पी तोड़ सके और राजा टाइप फील करके दूसरे राजा के साथ युद्ध की मुनादी कर दे।
यह समर्थकों की भूमिका और परीक्षा की भी एक घड़ी है जिससे उन्हें गुजरना होगा या जिनके प्रतिनिधि इस कदर कूटे जा रहे हैं, उनकी भी परीक्षा है कि वे अपने प्रतिनिधि को केवल सदन की विशिष्टता ही सौंप सकते हैं या कालांतर में उनकी सुरक्षा भी कर सकते हैं?
इस घटना से प्रतिनधि व्यवस्था कमजोर हुई है। सत्ता के पास जब तमाम हथियार हों और राजाज्ञा का विशेषाधिकार हो, तब महज़ कुछ दूतों की संख्या जाहिर है कमजोर ही पड़ेगी। इससे जनता के मनोबल पर भी प्रतिकूल असर होगा। वैसे भी, जब प्रतिनिधि भेड़-बकरियों के माफिक खरीदे बेचे जाने लगे हों और ये चलन आम हो गया हो तब हमें यह मान लेना चाहिए कि प्रतिनिधि व्यवस्था के दिन लद गए हैं। अब जनता को मोर्चा लेना चाहिए। जितने प्रतिशत ने सत्ता को वोट दिया वो एक तरफ, जितने प्रतिशत ने विपक्ष को वोट दिया वो एक तरफ। जिन्होंने किसी को वोट नहीं दिया उन्हें अंतिम मौका मिले और बस आमने -सामने। जो जीता वही सिकंदर। जो हारा वो जंतर-मंतर!