No Land’s People: डिटेन्शन कैंप का रास्ता कानून से होकर जाता है


कुछ किताबें आपको अपने परिचित भय के पास ले जाती हैं। उस डर के पास जिसके बारे में सोचने से आप घबराते हैं। ऐसा ही एक डर तब लगता है जब हम सुनते हैं कि अब भी ऐसे लोग हैं जिनकी नागरिकता तय नहीं है। या तय है तो वह आधी-अधूरी है या किसी शासक की मनमर्जी पर है उनका जीवन। एक पल के लिए आप खुद को उस आदमी की जगह पर रख कर देखते हैं जिसे अगली सुबह इस वतन से दूसरे वतन जबरिया भेज दिया जाना है, और आप सिहर जाते हैं। या आप अपने को उस दृश्य के दर्शक के रूप में देखते हैं जिसमें एक लड़की दो देशों की सीमा पर लगे बाड़ से झूल गयी है, उसे गोली मार दी गयी है, तब आप काँप जाते हैं। नागरिकता के सारे सवाल आपको डराते हैं और उस डर के मूल में है राष्ट्रवाद की खेती। नागरिकता एक ऐसा टूल बन गया है जिसका इस्तेमाल कर रातोरात हम मनुष्य अपने से ‘कमतर मनुष्य’ का सृजन कर डालते हैं। 

यह और ऐसे अनेक डर हैं जिनसे आपका सामना इस किताब से गुजरते हुए होता है- नो लैण्ड्स पीपल- दि अनटोल्ड स्टोरी ऑफ असम्‍स एनआरसी क्राइसिस। दि इंडियन एक्सप्रेस के लिए उत्‍तर-पूर्व को कवर करने वाले रामनाथ गोयनका पुरस्‍कार प्राप्‍त पत्रकार अभिषेक साहा की यह किताब आधुनिक भारत में असम प्रदेश और असमिया जनता के जीवन के ऐसे पहलुओं को पेश करती है जिनसे हमें नावाकिफ रखा गया है और नावाकिफ रखने के एवज में हमें झूठ और मौकापरस्ती की बुनियाद पर रचे गये आख्यान थमा दिये गये हैं।

उदाहरण देना जरूरी हो तो शुरुआत यहीं से कर सकते हैं कि कितने लाख या करोड़ बांग्लादेश के नागरिक भारत में आकर बस गये हैं और भारत में भी सबसे अधिक प्रभाव उनकी बसावट का असम पर पड़ा है। कभी कोई कह देता है कि करोड़ों लोग ऐसे हैं जो बांग्लादेश से निकल कर भारत आये हैं और यहीं बस गये हैं। इन अफवाहों की श्रृंखला में अगली बात यह होती है कि पचास लाख या अस्सी लाख- यह संख्या झूठ बोलने वालों के साहस पर निर्भर करती है। मुसलमान बांग्‍लादेश से आकर यहां भारत में और वह भी खास तौर पर असम में बस गये हैं- यह आख्यानबाजी इस कदर जनमानस में पैठ गयी है कि कहीं न कहीं स्थानीय मुद्दे भी इसी के इर्द-गिर्द भटकने लगते हैं। आश्चर्य नहीं कि किताब के पहले खंड ‘फाइडिंग दि फॉरेनर्स’ में अभिषेक जिस मुद्दे को सबसे पहले स्पष्ट करते हैं उस अध्याय का नाम ही है ‘अ नंबर्स गेम’। 

एक अंग्रेज़ अधिकारी सी. एस. मुलान, जो उन दिनों की इंडियन सिविल सर्विस का अधिकारी था, उसके लिखित बयान से अभिषेक यह स्थापित करते हैं कि यह समस्या हर विभाजनकारी समस्या की तरह ही अंग्रेजों की देन है। वह जो हिन्दू-मुस्लिम विभाजन अंग्रेजों का प्रिय विषय था, इस विभाजन के प्रकार से उन्‍होंने असम को भी अछूता नहीं रहने दिया था। जो आवागमन 1900 के आसपास शुरू हुआ था, वह आजादी के समय हौलनाक हिंसा के रूप में सामने आया। 1951 के उस दौर में, जब पहली बार असम में नागरिक रजिस्टर जैसा कुछ तैयार करने की कोशिश की गयी थी, उससे पहले पंजाब और बंगाल की तरह असम को भी विभाजन की त्रासदी झेलनी पड़ी थी। इस गुत्थी को तब भी सुलझाया जा सकता था, बशर्ते नीयत साफ होती।

बहुत लंबी राजनीति इस सवाल पर भी हुई है कि किसी के असमिया होने या न होने का फैसला किस वर्ष के आधार पर किया जाय। ‘दि सर्च फॉर कट-ऑफ ईयर’ में अभिषेक इस बात की गहरी पड़ताल करते हैं कि उस खास भूगोल का नागरिक होने के लिए 1971 का वर्ष ही क्यों निर्धारित किया गया। यह पड़ताल और गहराई में तब उतरती है जब ‘एवरीवन वांट्स ए करेक्ट एनआरसी’ नामक अध्याय में लेखक उन प्रवृतियों पर बात करते हैं जिनके जरिये मौजूदा सरकार अपने हठ में पूरे भारत में एनआरसी लाना चाहती थी। बड़ी बारीकी से वे समझाते हैं कि असम की मुस्लिम आबादी ने नागरिकता के कठिन प्रश्न का सामना कई बार किया है इसलिए उनकी स्थिति अलग है, लेकिन पूरे भारत में अगर मुसलमानों को कागज दिखाना पड़ गया तब मुश्किल बहुत बड़ी हो सकती है क्योंकि सबके पास अपनी जमीन-जायदाद, घर-आँगन का कागज हो यह जरूरी नहीं है। 

अगले खंड में वे उस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति की बात करते हैं जब असम में ‘डी’ वोटर्स नामक अवधारणा की रचना की गयी और फिर अनेक नागरिकों को ‘डी’ वोटर के कठघरे में रखा गया। ‘डी’ वोटर का मतलब है डाउटफुल वोटर यानी संदेहास्पद मतदाता- यह तथ्य कुठाराघात की तरह सामने आता है कि वर्ष 1997 में लेखक की दादी को ‘डी’ वोटर की श्रेणी में रख दिया गया था जबकि वे 1951 में अपने पूर्वजों के साथ पूर्वी पाकिस्तान से हिंदुस्तान आयी थीं।   

पूरी किताब नागरिकता ढूंढो के सरकारी और प्रायोजित अभियान की कलई खोलती है। खासकर ‘डिटेन्शन और डिपोर्टेशन’ पर विस्तृत चर्चा करने वाला अध्याय जब इस सरकारी और राजनीतिक कवायद से उपजी निराशा और हताशा को बयान करता है, तब कलेजा चाक हो उठता है। डिटेन्शन कैंप के निर्माण में बड़ी पूंजी लगी है, जिसमें न जाने कितने खेल हैं लेकिन जो मजदूर इस निर्माण से जुड़े हैं उनकी नियति एक है। उन्हें भी लगता होगा कि अगर उनके कागज पूरे नहीं हुए या वे कागज नहीं दिखा सके तब इसी डिटेन्शन कैंप के किसी कोने में उन्हें जगह मिलेगी, जहां मनुष्य को कम मनुष्य समझा जाता है। 

यह किताब अपनी संपूर्णता में उस रुकी हुई दास्तान का आलाप है जिसका नाम नागरिकता है और जिस पर गिद्ध राजनीतिज्ञों की नजर है। अभिषेक साहा किसी सिद्धहस्त की तरह चीजों को लिखते तो हैं ही, उनका इस मुद्दे से भावनात्मक लगाव और इस मुद्दे पर उनकी पिछले वर्षों की मेहनत किताब को गहराई प्रदान करती है।

  • पुस्तक: नो लैंड्स पीपल: दि अनटोल्ड स्टोरी ऑफ असम्‍स एनआरसी
  • लेखक: अभिषेक साहा
  • प्रकाशक: हार्पर कॉलिंस इंडिया
  • कीमत: 599 रुपये

बंगलुरु निवासी आशुतोष कुमार ठाकुर पेशे से मैनेजमेंट कंसलटेंट और कलिंग लिटरेरी फेस्टिवल के सलाहकार हैं।


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