मिलायी की पर्ची के इंतज़ार में साल भर से खामोश कैदियों के लॉकडाउन पर कब बात होगी?


कईं फुट ऊंची दीवारों के पीछे, सूरज की किरणों से भी महरूम कर दिये गये बन्दियों की नज़रें दौड़ती हैं उन शहरों, गलियों और अपने घरों की ओर जिनसे उनका जीवन जुड़ा है। शाम होते-होते ये थकी, उदास नज़रें जेल के विशाल गेट पर आकर सूनी हो जाती हैं। पिछले एक साल से ये हजा़रों आंखें सुबह की रोशनी में चमकती हैं कि शायद आज मिलायी की इजाज़त मिल जाये, लेकिन शाम होते-होते मद्धम पड़ जाती हैं। जेल की जो तनहाइयां कभी मिलायी की पर्ची के आते ही गुलज़ार हो जाती थीं, इन दिनों वहां खौफ़नाक खामोशी है। धीरे-धीरे बाहर का डर भीतर समाता चला जा रहा है।

नन्हा राजा मां से बिस्कुट, टॉफी और खिलौनों की ज़िद करता है जो उसकी नानी लाकर देती थी मिलायी पर। मारिया की दवाइयां खतम हो गयी हैं और उसके गर्दन का दर्द बढ़ता जा रहा है। जेल में दवाएं मिलती नहीं, परिजन बेबस हैं कि घर से निकल सकते नहीं। नदीम चाचा टूटे चश्मे को किसी तरह जोड़ कर सालभर से इस आस में पहने हुए हैं कि जल्द ही मिलायी खुलेगी और बेटी नया चश्मा और ज़रूरत का खर्च भी दे जाएगी। काली का अवसाद अपनी नयी नवेली पत्नी की याद में बढ़ता जा रहा है। लाखों लोग हैं जेलों के भीतर जो पिछले एक साल से परिजनों से मिलायी न हो पाने, समय पर खर्च के लिए पैसा न मिल पाने के कारण कईं भीषण दिक्कतों का सामना कर रहे हैं। इसी देश के नागरिक इन बन्दियों की सुध लेने वाला कोई नहीं है।

लॉकडाउन में जब हम सब कई प्रकार की दिक्कतों का सामना कर रहे हैं, ऐसे समय में जेल का मंज़र क्‍या होगा- जहां पहले से ही अभाव और दुश्वारियों का बोलबाला है- कोई नहीं जानता। सिद्धान्त रूप में जेलों को सुधारगृह भी कहा जाता है, लेकिन जिस तरह का सामन्ती, तनावग्रस्त, दमघोंटू, गन्दगी और बीमारियों वाला वातावरण जेलों में होता है, उसमें नकारात्मकता विकसित होने के भरपूर अवसर होते हैं। साफ पानी, स्वच्छ हवा, विषाणु और कीटाणु रहित परिवेश और पौष्टिक भोजन आदि जेल के जीवन से कोसों दूर होते हैं। देश की ज्यादातर जेलों की अन्धेरी कोठरियां, अण्डा सेल और बैरकें किसी भी वायरस को फैलने का माकूल अवसर देती हैं। यही कारण है कि महामारी की दूसरी लहर में जेलों में कोरोना संक्रमण तीव्र हुआ है। इस दौर में भी भारत की ज्यादातर जेलें कैदियों से खचाखच भर दी गयी हैं, बल्कि पिछले कुछ साल में बन्दियों की संख्या में वृद्धि दर्ज की गयी है। जो नियम पूरी दुनिया में संक्रमण को रोकने के लिए उपयोगी माने जा रहे हैं वे जेलों पर लागू नहीं किये गये हैं, जिसके कारण हजारों कैदियों की जान खतरे में है।

आला अदालत के आदेश के बाद भी जेलों की भीड़ क्यों नहीं कम की जा रही है?

2019 की जेल बन्दी रिपोर्ट के अनुसार देश की जेलों में कुल क्षमता से 18.5 प्रतिशत कैदी अधिक हैं। कुल कैदियों में से 69.05 प्रतिशत विचाराधीन कैदी थे। जेलों में क्षमता से 118.05 प्रतिशत कैदी अधिक रखे गये हैं। इन आंकड़ों में पश्चिम बंगाल की जेलों के आंकड़े नहीं हैं। देश की कई जेलों में क्षमता से दोगुने कैदी रखे गये हैं। सीएचआरआइ (कामनवेल्थ हयूमन राइट्स इनिशिएटिव) बताता है कि इस वक्त पांच लाख कैदी जेलों में हैं और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों की जेलों में कैदियों की संख्या सीमा से दुगनी है। संगठन की प्रमुख मधुरिमा धानुका का मानना है कि कोरोना की पहली लहर में 18 हजार से अधिक कैदियों और जेल कर्मचारियों को संक्रमण हुआ था। इनके अनुसार 27 मई 2020 से 14 दिसम्बर 2020 तक पूरे देश में 18157 कैदियों और जेल कर्मचारियों को कोविड का संक्रमण हुआ। इस आंकड़े के अनुसार केवल उत्तरप्रदेश की जेलों में पिछले साल लगभग 7000 कोविड के मामले आये।

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महाराष्ट्र की जेलों में 2752 और असम की जेलों में 2496 कोविड के मामले सामने आये। इस दौरान 17 लोगों की मौत हुई। ये मीडिया में रिपोर्ट हुए आंकड़े हैं, वास्तव में यह आंकड़ा कहीं ज्यादा हो सकता है। इसी संगठन की अमृता पाल कहती हैं कि सरकार ने न तो दूसरी लहर के विषय में सोचा ओर न ही उसने न्यायिक क्षेत्र को इस सन्दर्भ में सूचित किया। जेलों में संक्रमण की बढ़ती स्थिति को देखते हुए 8 मई को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि जिन बन्दियों को पूर्व में 90 दिन की पैरोल दी गयी थी उनको फिर पैरोल पर रिहा कर दिया जाय ताकि संक्रमण को नियन्त्रित किया जा सके।

वास्तव में हमारे समाज का नजरिया कैदियों के प्रति नकारात्मक है। यह मान लिया जाता है कि उनको देखभाल की जरूरत नहीं है। जेल बन्दियों के प्रति हमारे समाज में विभिन्न प्रकार की किस्सागोई की जाती है। पुलिस, अदालतें, वकील और मीडिया सभी इसका हिस्सा होते हैं। एक बन्दी के तौर पर मैंने इन सबको महसूस किया है और झेला भी है। यदि एक बार पुलिस केस बना दिया गया तो फिर आप मुकदमे का फैसला होने से पहले ही अपराधी घोषित हो जाते हैं। सालों साल चलने वाली न्यायिक प्रक्रिया इन्सान को कहीं का नहीं छोड़ती है।

पिछले एक साल से न्यायालयों में जरूरी मुकदमों की सुनवाई नहीं हो रही है। समय पर सुनवाई नहीं होने का खामियाजा बन्दियों और उनके परिजनों को भुगतना पड़ रहा है। फैसले और ज़मानत के इंतज़ार में कितने ही मुजरिम अनावश्यक रूप से जेल में रहने को मजबूर हैं। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस डी. वाई. चन्द्रचूड़ ने भारत में पीक पेंडेंसी पर नेशनल जयूडिशियल डेटा ग्राइंड का डेटा साझा किया है जिसके अनुसार 24 मई तक भारत में लंबित मामलों की कुल संख्या 32.45 मिलियन है। 9.045 लाख सिविल मामले हैं और 23.39 मिलियन आपराधिक मामले हैं। उन मामलों में 32 प्रतिशत मामले एक वर्ष पुराने हैं। 28 प्रतिशत मामले एक से तीन साल तक लंबित मामलों की श्रेणी में आते हैं। 15 प्रतिशत मामले तीन से पांच साल की पेंडेंसी की श्रेणी में आते हैं। फिर 15.28 प्रतिशत मामले उन वर्गों के हैं जो पांच से दस साल पुराने हैं। 7.1 प्रतिशत मामले 10 से 20 साल की अवधि के लिए लंबित हैं।

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लगभग एक वर्ष से जेल बन्दियों को अदालतों में पेशी, वकीलों, परिजनों, दोस्तों की मुलाकात से जिस तरह महरूम कर दिया गया है, यह उनके मानवाधिकारों का हनन है। इस विषय को प्रमुखता से नहीं उठाया जा रहा। इन दिनों जेल बन्दी जिन शारीरिक व मानसिक परेशानियों का सामना कर रहे हैं उसको व्यक्त करने और उसका समाधान करने के अधिकार से उन्हें वंचित कर दिया गया है। डर और भय के माहौल में रहने को मजबूर किये गये जेल बन्दी पहले से ही तनावग्रस्त होते हैं। ऐसे में जब बाहरी दुनिया की महामारी की खबरें उनको मिल रही होंगी और तो उनका मानसिक तनाव कितना गुना बढ़ जाता होगा यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं क्योंकि आज समाज में हर दूसरा इन्सान किसी न किसी वजह से तनाव में है और इस विषय पर आज खुल कर बात हो रही है।

सरकार कहती है कि बन्दियों को परिजनों से फोन पर बातें करने की सुविधा दी गयी है। पहली बात तो यह है कि हमारे देश की जेलों में आधुनिक सुविधाओं का सख्त अभाव है, उस पर भ्रष्टाचार में डूबे जेल प्रशासन के कारिंदे गरीब कैदियों को तो इन्सान ही नहीं समझते। तब यह प्रश्न स्वभाविक है कि कितने कैदी फोन से अपने परिजनों से बात कर पा रहे होंगे? दूसरी बात यह कि महीने में एक या दो दिन, कुछ मिनट फोन से बात कर लेने से न तो उनको मानसिक सुकून मिल सकता है और न ही उनकी रोजमर्रा की जरूरी चीज़ों और जरूरी खर्चों की पूर्ति हो सकती है।

जेल बन्दियों के परिजनों की मनः स्थिति भी इस दौर में कम भयानक नहीं है, जबकि मौत का खतरा चारों और मंडरा रहा है और अधिकांश जेलों में न तो अस्पताल की सुविधा है और न ही डॉक्टर की। कुछ मामूली दवाइयों और कम्पाउंडर के भरोसे बड़ी से बड़ी जेलें संचालित की जाती हैं। आज जब देश के अधिकांश सरकारी-प्राइवेट अस्पतालों की सच्चाई उघड़कर दुनिया के सामने आ गयी है, ऐेसे समय पर यदि कोई बन्दी गम्भीर बीमार हो जाता हो तो उसके लिए अस्पताल और बेड की उपलब्धता हो पा रही होगी? क्या बन्दियों के सही इलाज के वास्तव में प्रयास किये जा रहे होंगे? एक या दो प्रतिशत बंदियों के परिजन अदालत के माध्यम से यह सुविधा दिलवाने में सक्षम हुए भी होंगे, लेकिन 98 प्रतिशत बंदियों को तो भाग्य के भरोसे छोड़ दिया गया है।

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पीटीआइ की 9 मई की खबर के अनुसार बॉम्‍बे हाइ कोर्ट ने आर्थर रोड जेल में कोविड फैलने से रोकने के लिए महाराष्ट्र सरकार को उचित नीतिगत फैसले लेने का निर्देश दिया है। आर्थर रोड जेल में कम से कम 77 कैदी और 26 कर्मी बीते हफ्ते कोरोना से संक्रमित पाये गये। न्यायमूर्ति भारती डांगरे जब कैदी अली अकबर श्राफ की जमानत याचिका पर सुनवाई कर रही थीं तब उन्होंने यह वक्तव्य दिया कि “हालात गंभीर हैं और ऐसी आकस्मिक स्थिति में राज्य सरकार तथा नीति निर्माताओं को फैसला लेना चाहिए। जेल में क्षमता से अधिक बंदी न हो जिससे कि संक्रमण को बढ़ावा मिले। अधिकारियों को यह याद रखना चाहिए कि कैदियों के पास भी सुरक्षित और स्वस्थ माहौल में रहने का अधिकार होता है।” लेकिन क्या हमारी सरकारें कैदियों के इन अधिकारों के प्रति ज़रा भी ध्यान देती हैं? क्या देश की अन्य जेलों में कितने बन्दी संक्रमित हुए, कितनों की मौत हुई, ये आंकड़े कभी दर्ज हो पाएंगे?

पिछले वर्ष सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अपराध की प्रकृति, जेल की सजा और अपराध की गंभीरता के आधार पर पैरोल और जमानत पर लगभग 68 हजार से अधिक कैदियों को रिहा किया गया था। यही बात इस वर्ष भी कही गयी है। भले ही यह निर्णय कुछ हद तक सही रहा है, लेकिन अधिक उम्र और बीमारी के कारण जेल के वातावरण में जिन बन्दियों को संक्रमण का अधिक खतरा है, क्या न्यायालय को इस प्रकृति को ध्यान में नहीं रखना चाहिए था?

यहां पर यह कहना इसलिए जरूरी है कि महाराष्ट्र, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र, ओडिशा, जम्मू, कश्मीर, उत्तर-पूर्व के राज्यों, पश्चिम बंगाल और दिल्ली में बहुत बड़ी संख्या में राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं को यूएपीए और राजद्रोह के झूठे आरोपों में जेल में बन्द किया गया है। इनमें से बहुत से बन्दी बुजुर्ग और विभिन्न प्रकार की बीमारियों से ग्रसित कार्यकर्ता हैं। चूंकि राजद्रोह की सजा तो आजीवन कारावास है, तो क्या इसलिए ये बन्दी पैरोल और जमानत के हकदार नहीं माने जाएंगे? क्या इनके सारे अधिकारों को सिर्फ इसलिए ताक पर रख दिया जाएगा कि इन्होंने शासक वर्ग के विचार और नीतियों के विरुद्ध आवाज़ उठायी? ये कहां का न्याय है?

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क्या हम जेल बन्दियों के अधिकारों को जानते-समझते हुए भी खामोश रहें? हम इसलिए न बोलें कि कि हमें जेलों में ठूंस दिया जाएगा?  जेल बंदियों की मिलायी पर जब पूरी तरह रोक लगी हुई है, इन परिस्थितियों में उनकी जो बुनियादी ज़रूरतें हैं इस पर ध्यान दिया जाना आज फौरी ज़रूरत है। जेल बन्दी की परिजन होने का जो दर्द और पीड़ा मेरे भीतर खदबदा रही है, वही दर्द मैं आप सबसे साझा करना चाहती हूं। मेरे जैसे कई परि‍जन देश भर की जेलों में बंद अपने लोगों के लिए चिंतित हैं। अत: मेरा सभी इन्साफपसंद लोगों से आग्रह है की जेल बंदियों के अधिकारों पर खुलकर चर्चा हो और उनकी रिहाई के लिए सामूहिक प्रयास किए जाएं। 


लेखिका उत्तराखंड स्थित सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हैं


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