नए कृषि कानून का विरोध और आंदोलन बड़े किसानों का मसला है! चुनावी बिहार से प्रतिक्रियाएं…


कृषि बिल अब राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद कानून बन चुका है। कृषि राज्यों का विषय है, लेकिन मौजूदा कृषि बिल लाने से पहले राज्यों से मशवि‍रा नहीं किया गया। 25 दिसंबर को देश का किसान एकजुट हुआ, फिर हताश होकर अपने घर लौट गया।

एक ऐसे वक़्त में जब किसान अपनी आवाज मीडिया में दर्ज नहीं करा पा रहे हैं, मोबाइल वाणी ने उन्‍हें कृषि बिल पर अपनी राय दर्ज करवाने का एक मौका दिया और उनकी बात रिकॉर्ड की। आइए जमीन से आयी किसानों की आवाज़ के जरिये समझते हैं कि कृषि बिल को लेकर वे क्‍या सोच रहे हैं।

घर को गोदाम बना दे किसान?

समस्तीपुर जिला के विभूतिपुर प्रखंड के किसान मनोज कुशवाहा कहते हैं कि सरकार तो ऐसे कानून लागू कर रही है जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी का राज हो। न पूछा, न सलाह ली, बस लागू कर दिया। वे कहते हैं, ‘’सरकार ने कृषि सुधार के नाम पर जो तीन बिल पारित किए हैं, उससे तो किसान अपने ही खेत में मजदूर हो जाएगा। उद्योगों के हाथ में खेत जाएंगे तो किसानों को वही करना होगा जो वे कहेंगे। वही उगाना होगा जो वे कहेंगे। ऐसे में किसान को क्या मिलेगा?’’

मनोज कहते हैं कि हमें सबसे ज्यादा डर इस बात का है कि अगर फसल खराब होती है या गुणवत्ता वैसी नहीं मिलती जैसी उद्योगपतियों को चाहिए तब क्या होगा। किसान धरती पर आलू उगाता है तो माटी के भाव मिलते हैं और जब वही आलू धोकर, प्लास्टिक में पैक करके एसी मॉल में बेचा जाता है तो उसके दाम 50 गुणा हो जाते हैं। अभी ये कम हो रहा है, कल ज्यादा होगा… और कुछ सालों में बस यही होगा। इससे किसान तो मार खाएगा ही, आम आदमी भी सस्ती चीजें महंगी दरों पर खरीदने को मजबूर होंगे।

समस्तीपुर के ही किसान मोहम्मद मिन्नतुल्लाह उर्फ आरजू कहते हैं कि इतने सालों में सरकार को तो अब आदत सी हो गई है किसान आंदोलनों की, इसलिए उन्हें कोई फर्क भी नहीं पड़ता। समस्तीपुर के ही एक किसान हैं सुनील कुमार, वो कहते हैं कि “किसान अपनी खेती में ही उलझा रहता है। उसके पास कोई गोदाम नहीं है इसलिए फसल कटते ही बेचना पड़ता है। अब दाम कम हो या ज्यादा उससे उसे फर्क नहीं पड़ता। व्यापारी अनाज और सब्जी खरीदते हैं और स्टॉक कर लेते हैं। जब दाम अच्छे मिलते हैं तो उसे बाजार में उतार देते हैं। अब सरकार कह रही है कि किसान खुद भी अपने पास स्टॉक कर रख सकते हैं… तो भई अगर किसान के पास यह व्यवस्था होती तो वो खुद मुनाफा ना कमा रहा होता? अगर घर को गोदाम बना दें तो किसान रहेगा कहां? इस अध्यादेश से अच्छा होता कि सरकार किसानों के लिए कोल्ड स्टोरेज और गोदाम बनाकर देती, जहां न्यूनतम किराये में स्टॉक जमा किया जा सकता।”

वे कहते हैं, ‘’सरकार ने नए कानून के जरिये किसानों को अपने राज्य से बाहर फसल बेचने और मुनाफा कमाने की आजादी दी है। फसलों के सरकारी दामों में भी इजाफा किया है, लेकिन उनके पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं कि आखिर फसल को एक राज्य से दूसरे राज्य ले जाने का खर्च उठाने वाले किसान आखिर हैं कितने? अगर किसानों के पास इतना पैसा होता तो क्या वे कर्ज लेकर खेती करते?’’

APMC पर बिहार का उदाहरण

मुंगेर के नौवागढ़ी दक्षिणी पंचायत के किसान रवीन्द्र मंडल सरकार से पूछते हैं कि हम किसान हैं तो हमें किसान रहने दें, हमारी जमीनें हैं तो हमें खेती करने दें… इसे उद्योगपतियों को देने की जरूरत ही क्या है? रवीन्द्र कहते हैं कि सरकार नयी तकनीक से खेती करने की बात कर रही है पर असल में ये सुविधाएं किसानों को नहीं बल्कि उद्योपतियों को मिलेंगी।

यह डर देश के ​अधिकांश किसानों के मन में है। इन बिलों के कारण भविष्य में निजी कंपनियों की मनमानी को लेकर आशंकाएं खड़ी हो रही हैं। पहला बिल कृषक उपज व्‍यापार और वाणिज्‍य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020 है जो एक ऐसा क़ानून होगा जिसके तहत किसानों और व्यापारियों को एपीएमसी की मंडी से बाहर फ़सल बेचने की आज़ादी होगी. पर सवाल यह कि क्या अब तक मौजूदा APMC एक्ट किसानों को बाहर किसी निजी मंडी में फसल उत्पाद बेचने से मना कर रहा था। नहीं। APMC जो सरकारी मंडी है, वहां कम से कम इस बात का भरोसा था कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलेगा लेकिन क्या यह व्यवस्था निजी मंडी में भी होगी, बिहार इसका जीता जागता उदाहरण है।

बिहार में  2006 में APMC कानून को खत्म कर निजी मंडी को ही बेहतर माना गया। बेहतर पूँजी निवेश की कामना की गयी थी लेकिन क्या ऐसा हुआ? क्या किसी के पास इसका जवाब होगा कि बिहार के किसान को पंजाब के किसान से बेहतर उपज की कीमत मिली हो जहाँ APMC कानून लागू है? क्या कृषि की बदहाली बिहार के किसान के पलायन का सबसे बड़ा कारण नहीं बनी?

दूसरा बिल कृषक (सशक्‍तिकरण व संरक्षण) क़ीमत आश्‍वासन और कृषि सेवा पर क़रार विधेयक, 2020 है। यह क़ानून कृषि क़रारों पर राष्ट्रीय फ़्रेमवर्क के लिए है। आसान शब्दों में कहें तो कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग में किसानों के आने के लिए यह एक ढांचा मुहैया कराएगा, जिसका नुकसान भूमिहीन किसानों को होगा क्योंकि अभी तक वे खेत किराये पर लेकर कुछ उपज कर ही लेते थे।

किसान कहते हैं कि सरकार ने जो भी क़ानून में कहा है वैसा तो पहले भी होता रहा है। कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग और अपनी फ़सलों को बाहर बेचने जैसी चीज़ें पहले भी होती रही हैं और यह बिल सिर्फ़ ‘अंबानी-अडानी’ जैसे व्यापारियों को लाभ देने के लिए लाया गया है। भारतीय खाद्य निगम की कार्यकुशलता और वित्तीय प्रबंधन में सुधार के लिए बनाई गई शांता कुमार समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि सिर्फ़ 6 फ़ीसदी किसान ही एमएसपी पर अपनी फ़सल बेच पाते हैं। इसमें भी हरियाणा और पंजाब के किसानों की बड़ी संख्या है जिस कारण अधिक प्रदर्शन भी इन्हीं दो राज्यों में हो रहे हैं। आंदोलन करने वाले किसान कह रहे हैं कि देश में 23 फ़सलों पर ही एमएसपी है अगर एमएसपी का प्रावधान निजी कंपनियों के लिए किया गया होता तो इससे देश के सभी राज्यों के किसानों को फ़ायदा पहुंचता और आगे उनके शोषण होने की आशंका कम हो जाती।

2015-16 में हुई कृषि गणना के अनुसार देश के 86 फ़ीसदी किसानों के पास छोटी जोत की ज़मीन है या यह वे किसान हैं जिनके पास 2 हेक्टेयर से कम ज़मीन है। कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा कहते हैं कि प्राइवेट प्लेयर्स को कृषि क्षेत्र में लाने की योजना जब अमरीका और यूरोप में फ़ेल हो गई तो भारत में कैसे सफल होगी।

किसान बाजार पर साईनाथ के सुझाव

भारत में हरित क्रांति और किसानों की बदहाली पर मुखर होकर लिखने वाले मग्सेसे अवार्ड से सम्मानित वरिष्ट पत्रकार और कई किताबों के लेखक, जिनमें एक बहुचर्चित किताब हिंदी में तीसरी फसल के नाम से चर्चित है- पी. साईनाथ कहते हैं कि सरकार क्यों न इन तीन कृषि बिलों के साथ एक और बिल ले आए, जो न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के कभी लुप्त न होने देने की गारंटी देता हो।  

साईनाथ इन बिलों को किसानों के लिए ‘बहुत ही बुरा’ बताते हैं. वे कहते हैं, इनमें एक बिल एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट कमेटी (एपीएमसी) से संबंधित है जो एपीएमसी को विलेन की तरह दिखाता है और एक ऐसी तस्वीर रचता है कि ‘एपीएमसी (आढ़तियों) ने किसानों को ग़ुलाम बना रखा है.’ लेकिन सारा ज़ोर इसी बात पर देना बहुत नासमझी की बात है क्योंकि आज भी कृषि उपज की बिक्री का एक बड़ा हिस्सा विनियमित विपणन केंद्रों और अधिसूचित थोक बाज़ारों के बाहर होता है। इस देश में किसान अपने खेत में ही अपनी उपज बेचता है। एक बिचौलिया या साहूकार उसके खेत में जाता है और उसकी उपज ले लेता है। कुल किसानों का सिर्फ़ 6 से 8% ही इन अधिसूचित थोक बाज़ारों में जाता है, इसलिए किसानों की असल समस्या फ़सलों का मूल्य है।

साईनाथ कहते हैं कि मोदी सरकार ‘कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग’ की बात कर रही है। मज़ेदार बात तो ये है कि इस बिल के मुताबिक़, खेती से संबंधित अनुबंध लिखित हो, ऐसा ज़रूरी नहीं। कहा गया है कि ‘अगर वे चाहें तो लिखित अनुबंध कर सकते हैं.’ ये क्या बात हुई? ये व्यवस्था तो आज भी है। किसान और बिचौलिये एक दूसरे की बात पर भरोसा करते हैं और ज़ुबानी ही काम होता है. लेकिन किसान की चिंता ये नहीं है। वो डरे हुए हैं कि अगर किसी बड़े कॉरपोरेट ने इक़रारनामे (कॉन्ट्रैक्ट) का उल्लंघन किया तो क्या होगा? क्योंकि किसान अदालत में जा नहीं सकता।

कॉपोरेट कई बार अपने गृह राज्यों में मुकदमा करेंगे और न्याय क्षेत्र भी वही होगा, वहां आने जाने रहने और वकील का खर्च कौन वहन करेगा? इस बिल में एक प्रावधान है कि किसान अपने जिले के कलक्टर और सब्डीविज्नल मजिस्ट्रेट के यहाँ शिकायत कर सकता है और अपने शिकायत की निपटान कर सकता है यानी अब उसे कोर्ट जाने से भी रोकना है।

साईनाथ सलाह देते हैं कि अगर किसान एकजुट होकर आपसी समन्वय स्थापित करें, तो वो हज़ारों किसान बाज़ार बना सकते हैं। किसान ख़ुद इन बाज़ारों को नियंत्रित कर सकते हैं। केरल में कोई अधिसूचित थोक बाज़ार नहीं हैं। उसके लिए कोई क़ानून भी नहीं हैं. लेकिन बाज़ार हैं।

भूमिहीनों का क्या?

विरोध के बीच में कई ऐसे किसान भी हैं जिनके जीवन में इस अध्यादेश का कोई खास फर्क नहीं दिख रहा है। ये वे किसान हैं जो अतिगरीब हैं या फिर किसी और के खेत को ठेके या बटाई पर लेकर खेती करते हैं।

परसौना गांव के किसान शशि भूषण राय कहते हैं कि बड़े किसानों को भले अपना फायदा नुकसान नजर आ रहा होगा पर हमें तो हमारी दशा में कोई बदलाव नहीं दिखता। हम गरीब हैं, हमसे पूछो कुछ नहीं मिला इतने समय में। कोरोना काल में राशन देने की बात कही थी, दुकान के चक्कर लगाते रह गए पर दाना नहीं मिला।

गिद्धौर के बाना डीह पंचायत से भूमिहीन किसान श्याम रावत कहते हैं कि उन्हें सरकार की तरफ से पास हुए बिलों की कोई जानकारी नहीं है। जब मोबाइलवाणी संवाददाता ने उन्हें बिलों के बारे में बताया तो श्याम ने कहा क्या फायदा! हमारे पास तो जमीन भी नहीं है। ये सब आंदोलन, बिल, कानून बड़े किसानों के लिए हैं। आंदोलन कर कर के तो कई किसान नेता बन गए पर उससे हमारे लिए क्या बदला? अब ये कानून बना है कि किसान व्यापारियों को सब्जी अनाज बेच सकेंगे पर हमारे पास तो इतनी उपज ही नहीं कि व्यापारी उसे खरीदे? इससे तो अच्छा होता कि सरकार हम जैसे भूमिहीन किसानों के लिए कुछ कर देती। कोरोना के कारण मजदूरी भी नहीं मिल रही है। सरकार जो सम्मान राशि देती है उसमें भी हमारा हिस्सा नहीं। तो ऐसे में हम लोग आंदोलन करके क्या कर लेंगे?

जमुई के किसान बालेश्वर रावत कहते हैं कि हम बटाई करते हैं, खेती के लिए खुद की जमीन नहीं है। अब अगर सरकार इसे भी निजी कंपनियों के हवाले करना शुरू कर देगी तो हमें कौन अपनी जमीनें देगा?

जिन्हें कुछ पता ही नहीं!

मोबाइलवाणी के माध्यम से करीब 150 से ज्यादा किसानों ने अपनी प्रतिक्रियाएं रखीं. ज्यादातर का पक्ष किसान बिल के विरोध में ही रहा पर एक और पहलू ये भी सामने आया कि बहुत से ऐसे किसान भी हैं जिन्हें कृषि सुधार बिल और नए कानूनों की जानकारी ही नहीं.

गिद्धौर से शिवांशु कुमार कहते हैं कि बहुत से छोटे किसान ऐसे हैं जिन्हें ठीक से इस बिल के बारे में जानकारी ​नहीं, फिर भी चूंकि गांव के बड़े किसानों ने कहा ​है इसलिए वे भी आंदोलन में शामिल हो गए हैं।

सारण जिले से राजेन्द्र प्रसाद और उनके कई साथी किसानों ने मोबाइलवाणी के जरिये बताया कि उन तक किसान बिल की सही जानकारी पहुंची ही नहीं है। गांव के ही गोपाल महतो कहते हैं कि हमें कुछ नहीं पता कि ये हंगामा हो क्यों रहा है।

किसान कहते हैं कि बिल के बारे में प्रचार होना चाहिए था, तब तो पता चलता। मधुबनी के साहरघाट से आरएन ठाकुर बताते हैं कि गांव के बहुत से किसान हैं जो कृषि सुधार बिल के बारे में कुछ नहीं जानते क्योंकि अधिकत्तर किसानों के घरों में टीवी नहीं है, मोबाइल फोन और अखबार नहीं आते। वे कहते हैं, ‘’सरकार को कानून लागू करने से पहले लोगों को उसके बारे में बताना भी तो चाहिए? कम से कम किसानों को तो पता हो कि उनके नाम पर क्या किया जा रहा है?”

छिंदवाड़ा के किसान जागेश्वर बताते हैं कि असल मायनों में किसानों तक बिल की पूरी जानकारी पहुंची ही नहीं है। बहुत से छोटे किसान पूंजीपति किसानों के कहे अनुसार आंदोलन में शामिल हुए हैं। जितना लोगों से सुना है उस हिसाब से यही कह सकते हैं कि मंडी खत्म न हो तो ही अच्छा है वरना किसानों को तो नुकसान ही नुकसान है। पहले किसान खेती करे और फिर फसल लेकर व्यापारियों के चक्कर काटे, इसमें किसी का फायदा नहीं।

पलासपानी के किसान भी मोबाइलवाणी पर यही बात कह रहे हैं। उन्हें कृषि बिल के बारे में जानकारी चाहिए। जो किसान ये जानकारी मांग रहे हैं वे अधिकांश निम्न स्थिति से आते हैं। उनके घरों में टीवी और फोन जैसी सुविधाएं नहीं हैं, अखबार नहीं आते।

अब जरा सोचिए कि जब देश में ऐसे किसानों का भी बहुत बड़ा तबका बसता है तो फिर ये कृषि बिल है किसके लिए? अगर कृषि का निजीकरण हो रहा है, ठेकेदारी प्रथा वापिस आ रही है तो फिर इस बिल को किसान बिल क्यों कहा जा रहा है? किसानों की भाषा में कहें तो यह उद्योगपति मुनाफा बिल है जो पारित  हो गया है, कानून बन गया है और अब लागू भी हो जाएगा।  


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