अंधेरे गड्ढे में जिंदा रहने का गर्वबोध है हिंदी, हिंदू और हिंदुस्‍तान


नरेंद्र मोदी ने किसानों की मौत के फ़रमान पर आख़िरी हस्ताक्षर कर दिया है। अब जबकि नेहरू द्वारा पैदा किये हुए नेक्सस की संतानों को किसान, चरवाहे, कारीगर, मछुआरे और आदिवासी हर फील्ड में मात देने लगे, तो सरकार बहादुर ने बचे हुए किसानों को बंधुआ बनाने की दिशा में आख़िरी कदम बढ़ा दिया है।

रोजगार और नौकरी को निजीकरण के हवाले कर दिया गया है। अपनी निकम्मी औलादों के भ्रष्‍टाचार को छुपाने के लिए कह दिया गया है कि सरकारी सेक्टर बहुत नुकसान की स्थिति में हैं। जैसे पारम्परिक किसानी में घर, परिवार और रिश्तेदार अपने काम-धंधे के मामले में स्वतंत्र थे और विमर्श करके निर्णय लेते थे, वैसे ही निजीकरण में भी अपने ही भाई बंधुओं को सेटल किया जाता है और बाकी को मजूर बनाया जाता है। हक़ीक़त यह है कि इन्‍हें अपने लोगों को इकट्ठा करके दुकानदारी चलानी है।

अब तो ऑटोमेशन के ज़माने में आपकी ज़रूरत मजूर के रूप में भी खत्म हो गयी है। ऐसे में मनोज बाजपेयी से एक गाना गवा दिया गया कि ‘बम्बई में का बा।’ ये सोच रहे हैं कि इन जबरन बनाये गये मजूरों का शहरों से मोहभंग हो जाये और ऑटोमेशन को लागू करने के लिए कोई जोर जबरदस्ती, मजूरों से संघर्ष की स्थिति, न बन सके।

पहले हमें-आपको बीमार बनने को मज़बूर किया। कारखानों के अपशिष्ट और उत्पादों से जमकर बीमार बनाया। फिर मेडिकल माफ़िया के रूप में अपनी औलादों को सेट किया। अब, जब मजूरों की भी कोई ज़रूरत नहीं रह गयी तो अस्पतालों को अपने ही देश के नागरिकों की पहुँच से दूर कर दिया। इलाज को इतना महंगा और जटिल बना दिया कि मुल्क़ की नब्बे फ़ीसदी आबादी अपना उपचार ही न करा सके। इसके लिए देसी वैदकी (चिकित्सा पद्धति) को पहले ही तबाह कर दिया गया है। अब आपको अगर उपचार कराना है तो किसी तरीक़े से बच गयी ज़मीन और बच गये जेवर बेच कर इलाज करवाइये। फिर भी आपके जिन्दा बचने का कोई चान्स नहीं है।

डायरेक्ट ब्रिटिश राज और परोक्ष ब्रिटिश शासन में अंतर यह आया है कि पहले लोग अपने हित-अहित को जान समझ रहे थे और उसी अनुरूप प्रतिक्रिया कर रहे थे। आज़ाद भारत की ग़ुलाम सरकारों ने अपने बुद्धिजीवियों को जनता के बुद्धिजीवियों के रूप में जिस तरह से इंजेक्ट किया है, वह प्राणघातक बन गया है।

इसकी पहली और सबसे ताकतवर शुरुआत उत्पादन को केंद्रित और गांव, परिवार को विकेन्द्रित करके जवाहर लाल नेहरू ने की। बड़ी-बड़ी फैक्टरियां, उद्योग के नाम पर व्यापारिक घराने, बांध, आइआइटी, आइआइएम जैसे संस्थान बनाकर और नौकरशाही के गठन के जरिये भारत को न सिर्फ टुकड़ों में तोड़ दिया, बल्कि इन नये थोपे गये हाड़खाऊ उपक्रमों में ऊपर से नीचे तक अपने हितों के अनुरूप समर्पित लोगों को भर दिया।

नेहरू के विज़न के लिए जिनकी ज़मीनें इस महायज्ञ में हड़पी गईं, उन्हें आज तक कोई मुआवजा नहीं मिल पाया है।

यह तो शुरुआत थी। रीढ़ की हड्डी तोड़ी गयी हरित क्रांति के माध्यम से। किसान के बीज, बैल, खाद, दवाई, सब छीन लिए गये और उसके बदले में बीमार बनाने वाले, ज़मीन की उत्पादकता को जहरीला बनाने वाले रसायनों का अंधाधुंध उपयोग किया जाने लगा। सत्ता के बुद्धिजीवियों ने यह राग अलापना शुरू किया कि पारम्परिक खेती और धंधे घाटे का सौदा हैं।

इसका एक बड़ा परिणाम यह हुआ कि अब किसान, मछुआरे, कारीगर, चरवाहे चाहें या न चाहें, उन्‍हें सरकार के लागू किये गये टैक्स की शक्‍ल में फिरौती देनी ही पड़ेगी क्योंकि उत्पादन केंद्रीकृत हो चुका था। इसी जानलेवा प्रक्रिया को चरम पर पहुँचाया मनमोहन सिंह ने। पचास साल तक किसी तरह बचे रहे किसानों को वैश्वीकरण के ज़लज़ले में झोंककर मजूर बना दिया गया। कारीगर, मछुआरा, चरवाहा पहले ही महानगरों में मजूर बन चुका था।

अब जिस तरीक़े के नियम, क़ायदे, क़ानून बन रहे हैं, किसी भी सूरत में आप सरकारी नौकरी नहीं कर सकते। अम्बानियों, अदानियों की संपत्ति लाखों गुना बढ़ गयी है और सरकार इतनी ग़रीब हो गयी है कि शोधार्थियों को कई महीने की फेलोशिप तक नहीं दे सकती। विश्‍वविद्यालय बन्द कर दिये गये हैं इस डर से कि कहीं विद्यार्थी इकट्ठा होकर आकाओं के मंसूबे पूरे होने में कोई मुसीबत न पैदा कर दें। आप ट्वीट करते रहिए, अपने ही घरों में रहकर जितना विरोध हो करते रहिए। इस जनसंहारक मशीनरी पर इसका कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला है।

लोगों को तबाह करने वाली नीतियों की आड़ में धर्म, सामाजिक न्याय, सेकुलरिज्म जैसे नारे गढ़े जाते रहे और हक़ीक़त में इन नारों, प्रवचनों और उन्माद के बहाने भारत की बहुत बड़ी आबादी को अँधेरे गड्ढे में धकेला जाता रहा। अपनी ही ज़मीन पर बंधुआ मज़दूर होना और तिस पर कभी अपने हिन्दू होने का गर्व, कभी हिंदीभाषी होने पर गर्व, तो कभी कुछ और होने पर गर्व।

हमें अपनी बद से बदतर स्थिति में भी जिंदा रह पाने तक जिंदा रहने का गर्वबोध तो रहेगा ही। अगर मर गये, तो कोई बात ही नहीं है।


लेखक डीएवी पीजी कॉलेज, वाराणसी के इतिहास विभाग में शोधार्थी हैं


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