तसलीमा नसरीन हिंदुत्व का काम कैसे आसान कर देती हैं?


क्या बांग्लादेश की मशहूर लेखिका तसलीमा नसरीन की यह मांग जायज़ है कि तबलीगी जमात पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाना चाहिए? जिस समय कोरोना वायरस के फैलाव के लिए पूरे देश में मुस्लिम विरोधी लहर चल रही है, उस समय उनका यह बयान कितना प्रासंगिक है? कहीं यह अल्पसंख्यकों के  खिलाफ जल रही आग में घी डालने का काम तो नहीं करेगा और जाने अनजाने हिंदुत्व के लिए मददगार साबित हो जायेगा?

दैनिक जनसत्ता (13 अप्रैल) ने उनका बयान प्रमुखता से छापा है: “मैं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में भरोसा करती हूँ. लेकिन कई बार इंसानियत के लिए कुछ चीज़ों पर प्रतिबन्ध लगाना ज़रूरी है. यह [तबलीगी] जमात मुसलमानों को 1400 साल पुराने अरब दौर में ले जाना चाहती है”.  

जामात पर ‘बैन’ लगाने के पीछे उन्होंने मुख्य रूप से दो दलीलें पेश की हैं. पहला, यह संगठन लोगों को अंधविश्वास की तरफ धकेल रहा है. दूसरा, इस की वजह से कोरोना का संक्रमण फैला है. उनकी दूसरी दलील प्रशासन और हिंदुत्ववादी संगठन के तबलीगी जमात विरोधी आरोप से मेल खाती है. 

तसलीमा नसरीन ने कहा कि “हम मुस्लिम समाज को शिक्षित, प्रगतिशील और अंधविश्वास से बाहर निकालने की बात करते हैं लेकिन लाखों की तादाद में मौजूद ये लोग लोग अंधकार और अज्ञानता फैला रहे हैं. मौजूदा समय में साबित हो गया है कि ये अपनी ही नहीं दूसरों की ज़िन्दगी भी खतरे में डाल रहे हैं”.  उन्होंने ने इस बात पर हैरानी ज़ाहिर की है कि जमात के लोग कैसे भारत आ गये. “मुझे समझ में नहीं आता कि इन्हें मलेशिया में संक्रमण की खबर आने के बाद भारत आने ही क्यूँ दिया गया. ये इस्लाम की कोई सेवा नहीं कर रहे हैं.”

बात पहले उनकी उनकी दूसरी दलील से शुरू करते हैं. क्या जमात की वजह से कोरोना का संक्रमण फैला है? आरोप लग रहा है कि जमात ने अवैध भीड़ इकट्ठा की और रोग के संक्रमण में “खलनायक” की भूमिका निभाई. 30 मार्च के बाद से, जब जमात के दिल्ली स्थित मरकज़ ऑफिस पर पुलिस का धावा पड़ा, मीडिया जमात और मुसलमानों के खिलाफ सांप्रदायिक खबरें चला रहा है.

तबलीगी जमात के लिए “जेहालत”, “जेहाद“ और “मानव बम“ जैसे भड़काऊ शब्दों का प्रयोग किया जा रहा है. मुसलमानों के “देश-विरोधी गतिविधियों“ में लिप्त होने की अफवाह भी तेज़ हो गयी है. इस बहाने उनको निशाना भी बनाया जा रहा है. यही नहीं, जमात को “आतंकवाद“ से भी जोड़ा दिया गया है. एक हिंदी समाचार चैनल के एंकर ने दानिस्ता तौर पर तबलीगी जमात को “तालिबानी” जमात कहा!  उन पर विज्ञान से दूर रहने और अज्ञानी होने का आरोप लगाया गया. धीरे धीरे मुसलमानों पर हमले शुरू हुए. कहीं कहीं उनका आर्थिक बायकाट भी किया जा रहा है.

अपने पक्ष में तबलीगी जमात का कहना है कि लॉकडाउन अचानक से लागू कर दिया गया. यातायात के साधन ठप होने से लोग उनके दफ्तर में फंस गए. उसने यह भी दावा किया कि वह प्रशासन के संपर्क में था और उनके साथ सहयोग भी कर रहा था. मगर जमात का पक्ष जानने की कोशिश ज्यादातर पत्रकारों ने नहीं की. 

एक क्षण के लिए अगर यह मान भी लिया जाए कि तबलीगी जमात ने भीड़ जमा की तो क्या इस मामले को “कम्युनल लेंस” से देखा जाना चाहिए? हरगिज़ नहीं. भारत में कोरोना का पहला केस केरल में सामने आया और इसकी आधिकारिक पुष्टि जनवरी के आखिरी हफ्ते में हो गयी थी. तब से लेकर मार्च के आखिर सप्ताह तक अगर कोई समाचारपत्र के पन्नों को पलट कर देखें तो बहुत सारी ख़बरें मिल जाएँगी जहाँ बड़ी तादाद में लोग जमा हुए थे. लॉकडाउन से कुछ रोज़ पहले तक लोग हवाई अड्डे पर फंसे रहे. रेल और बस की सुविधा नहीं होने से दिल्ली के आनंद विहार स्टेशन पर हजारों मजदूरों का जमावड़ा बना रहा. अब तो मुंबई के बांद्रा स्टेशन पर हजारों की संख्या में मजदूर जमा हुए. जब रहने और खाने की के सारे दरवाज़े बंद हो जाये तो मजदूर क्या करेगा? क्या इन सब भीड़ की घटनाओं के लिए प्रशासन ज़िम्मेदार नहीं है? तसलीमा नसरीन ने क्या कभी इन सवालों पर कुछ लिखा या बयान दिया था?

अयोध्या में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी पूजा करने के लिए गए थे और वहाँ भीड़ एकत्र हुई थी। तिरुपति बालाजी मंदिर में भक्तों की बड़ी भीड़ जमा हो गयी थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के स्वागत में खुद हजारों लोगों को गुजरात के एक स्टेडियम में जमा करवाया था। क्या इन सभी घटनाओं ने देश में वायरस नहीं फैलाया होगा? क्या “सोशल डिस्टेंस” का पालन न करने के लिए तसलीमा नसरीन ने इन बड़ी हस्तियों की आलोचना की थी?  

उन्होंने बहुत ही “सेलेक्टिव” तरीके से जमात पर हमला बोला, जब उनके खिलाफ माहौल बिगड़ चुका था. तसलीमा नसरीन का पहला तर्क है कि तबलीगी जमात “अंधकार”, “अज्ञानता” और “अंधविश्वास” फैला रही मामले को सरलीकरण कर के पेश करना है. मुस्लिम धार्मिक संगठन पर  इस तरह की आलोचना वह करती रही हैं और उनको इसकी पूरी आज़ादी भी है. वह खुद को “सेक्युलर”, “मानववादी” और “नारीवादी” कहती हैं. उनका धर्म पर आस्था रखने वालों के साथ जबरदस्त असहमति है.

अगर तबलीग की आलोचना तसलीमा नसरीन ने किसी और समय में की होती तो इसे एक विचार समझ कर गौर किया जाता. मगर उन्होंने ने उस वक़्त यह बयान दिया है जब तबलीग और मुसलमानों के पीछे पूरी भगवा ब्रिगेड पड़ी हुई है. पाबन्दी लगाने की बात करना भी जायज़ मालूम नहीं होता क्यूंकि अगर जिस पर प्रतिबंध लग जायेगा उससे बहस कैसे होगी? पाबन्दी की मांग तब ही उठाई जा सकती है जब कोई संगठन लोकतान्त्रिक रास्तों से भटक जाये और खूनी बन जाये. विचारों की असहमति कभी भी पाबन्दी की दलील नहीं बन सकती है. काश, यह बात तसलीमा नसरीन बयान देने से पहले सोच ली होती.

एक विरोधाभास उनकी लेखनी में दिखता है. जिस तरह बांग्लादेश के अल्पसंख्यक समाज का दर्द उनके दिल में दिखता है, उस तरह की संवेदनशीलता वह भारत के “माइनॉरिटी” मुस्लिम समाज के सवालों के साथ नहीं दिखा पाती हैं. क्या उन्होंने हाल के दिल्ली दंगों पर कुछ कहा था? क्या कभी उन्होंने भगवा ताकतों से हिंसा न फैलाने के लिए मांग की थी?

बार बार वह मुस्लिम समाज के अन्दर बैठी “कट्टरपंथी” ताकतों पर चीख पुकार करती रहती हैं. उनको किसी ने रोका भी नहीं है. मुस्लिम समाज के अन्दर, जैसा कि दूसरे समाज में देखने को मिलता है, कट्टरवाद है मगर यह तो सच है कि बहुसंख्यक समाज का कट्टरवाद राज्य की शक्ति से पोषित होता है, जबकि अल्पसंख्यक समाज की शिद्दतपसंदी को जायज़ करार देने के लिए “स्टेट मशीनरी” दूर दूर तक तैयार नहीं होती.

तसलीमा नसरीन की लेखनी में यह अमूमन देखने को मिलता है कि मुस्लिम समाज की सारी समस्याओं के लिए ज़िम्मेदार मुस्लिम समाज के अन्दर काम कर रहे धार्मिक संगठन हैं. धार्मिक संगठनों की अपनी खामियां हैं जिस पर खुल कर बहस होनी चाहिए और मुस्लिम समुदाय में हो भी रही है. मगर क्या चंद धार्मिक संगठनों को मुस्लिम समाज की राजनीति, समाजिक और आर्थिक बदहाली का दोषी करार दिया जा सकता है? क्या बार बार और ज़रूरत से ज्यादा धार्मिक संगठनों के निशाना बना कर आर्थिक और सामाजिक सवाल दरकिनार नहीं हो जाते? और इन सब से हिन्दुत्वादी संगठनों के लिए भी बनी बनाई जमीन मुफ्त में हाथ लग जाती है? क्या इन सब से निकम्मी सरकारों को “क्लीनचिट” नहीं मिल जाती है कि अगर मुस्लिम समाज पसमांदा है तो उसके लिए उनकी धार्मिक सोच और उनके धार्मिक संगठन ज़िम्मेदार हैं.

तभी तो तसलीमा नसरीन और उनके जैसे अन्य विद्वान जितनी ऊर्जा मुसलमानों की “कट्टर धार्मिक” संस्था पर चोट करने में लगाते हैं, उसका अगर एक छोटा सा हिस्सा वह संस्थागत भेदभाव और आर्थिक विषमता पर लगाते तो मुस्लिम समाज का बड़ा भला हो जाता. अगर वह उन सवालों पर भी सोचते कि आखिर क्यूँ सरकारी बजट में अल्पसंख्यक मुसलमानों की शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार के लिए कम खर्च होता है? क्या इसके लिए किसी मुस्लिम धार्मिक संस्था ने आ कर किसी मंत्री का हाथ पकड़ा या कोई फतवा जारी किया कि मुसलमानों के लिए सरकारें बजट न बढ़ाए?

सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में यह दर्ज है कि मुस्लिम इलाकों में पुलिस की तादाद ज्यादा होती है और स्कूल, अस्पताल और बैंक की संख्या कम. आखिर यह कम क्यूँ होती है? क्या इसके लिए भी मुसलमानों के मुल्ला और मौलवी ज़िम्मेदार हैं? आखिर क्यूँ मुस्लिम समाज के लोग संसद और विधानसभा से गायब होते जा रहे हैं? आखिर क्यूँ नौकरियों में वह अपनी आबादी से बहुत ही कम प्रतिनिधित्व पाते हैं? आखिर क्यूँ जेल में उनका अनुपात कहीं ज्यादा होता है? क्या इन सब सवालों के लिए मुसलमानों की धार्मिक संस्था ज़िम्मेदार है?

क्या सिर्फ मुसलमानों और उनकी धार्मिक संस्था को “कट्टर” और “जेहालत” में धंसा हुआ कह कर मुसलमानों का भला हो सकता है? क्या सरकार को किसी मुस्लिम संगठन ने स्कूल, अस्पताल खोलने और मुसलमानों के लिए आधुनिक संस्थाओं में नौकरी देने से रोका है? क्या तथाकथित मुस्लिम कट्टर संस्थाओं के कहने पर मुसलमानों ने उनको अपना नेता मान लिया है? क्या यह ग़लत बात है कि आज़ाद भारत में मुसलमानों के वोट अक्सर सेक्युलर पार्टियों को गये हैं?

जहाँ तक बात तबलीगी जमात की आलोचना की है तो उससे तसलीमा नसरीन को कोई नहीं रोक रहा है. मगर कई बार उनकी लेखनी में मुस्लिम समाज की ऐसी तस्वीर चित्रित की जाती है गोया मुस्लिम समाज ठहरे हुए पानी की तरह बैठा हुआ है. उनको इस्लाम के अन्दर मजूद विभिन्न मतों के बीच चल रही हलचल दिखाई ही नहीं देती. कुछ इसी तरह की गलती “क्लैश आफ सिविलाइज़ेशन” नज़रिए के मानने वाले मुस्लिम विरोधी लेखक भी करते हैं. उनको लिए पश्चिम का समाज आधुनिक, सेक्युलर, लोकतान्त्रिक  और प्रगतिशील है, जबकि इस्लामिक दुनिया इसका बिगड़ा हुआ रूप है.

ऐसी मुस्लिम विरोधी स्कालरशिप इस्लाम के अन्दर मौजूद “विभिन्नता” को देखने के लिए तैयार नहीं है. उनकी नज़र में सारे मुसलमान तबलीगी हैं और सारे तबलीगी मुसलमान. मगर ऐसा नहीं है.

तबलीगी जमात का इतिहास ही ले लीजिये. यह 1920 के दशक में कांधला (मुज़फ्फरनगर) के मौलाना इलियास के नेतृत्व में वजूद में आया. यह आम मुसलमानों में, हिन्दुओं में नहीं, इस्लाम की बुनियादी बातों को घूम घूम कर बतलाता है. मुसलमानों के एक समूह के लिए जमात दीन से भटक गये मुसलमानों को सही इस्लाम की तरफ लाने वाला संगठन है जो उनके अन्दर में ईमान और नेकी पैदा करता है. मगर मुसलमानों में ही उनके बहुत सारे विरोधी भी हैं. उनकी नज़रों में यह “कट्टर” और “वहाबी” इस्लाम फैलाने वाला गिरोह है, जो “सूफी” इस्लाम को नकारता है और आपसी भाईचारे पर आधारित “सहिष्णु” इस्लाम पर चोट करता है. परिणामस्वरूप, समाज में तनाव पैदा होता है.

मिसाल के तौर पर साल 2001 में, गुजरात के दाहोद में मुसलमानों के एक ग्रुप बरेलवी और तबलीगी जमात के समर्थकों के बीच झड़प हो गयी जिसमें कई लोग गिरफ्तार हुए. उनके बीच मतभेद इतना ज्यादा है कि बरेलवी मुसलमान अपनी मस्जिदों में तबलीगी जमात को आने नहीं देता हैं. खुद तबलीगी जमात में भी शीर्ष पदों को लेकर काफी मुकाबला चल रहा है. 2016 में हालात कुछ इस तरह से ख़राब हो गए कि तबलीगी जमात के अन्दर दो ग्रुपों के बीच में दिल्ली स्थित निजामुद्दीन मरकज़ ऑफिस में मारपीट की घटना सामने आ गयी. मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक मौलाना साद और मौलना ज़हीरुल हसन इन दो खेमों का नेतृत्व कर रहे थे. इन पहलुओं पर तसलीमा नसरीन ध्यान नहीं देती.

जिस तरह दुनिया के दूसरे धार्मिक समुदायों के बीच बीच “सही धर्म” की तरफ लौटने के लिए विभिन्न संगठन काम कर रहे हैं, कुछ वैसा ही तबलीगी जमात भी काम कर रहा है. इसकी आलोचन करते वक़्त इस का भूत नहीं खड़ा किया जाना चाहिए क्यूंकि इस का संबंध इस्लाम  से है. कुछ लोग इसकी तुलना हिन्दू कट्टर संगठन से करते हैं. मगर मैं इसे जायज़ नहीं मानता क्यूंकि भारत में काम करने वाला जमात एक अल्पसंख्यक संगठन है जिसको ‘स्टेट पावर’ हासिल नहीं है. जबकि हिंदुत्व से जुड़े नेतागण देश की सरकार चला रहे हैं और उनके अधीन ‘स्टेट मशीनरी’ काम कर रही है.

क्या तबलीगी जमात अधविश्वास नहीं फैला रहा है? यह सवाल भी इतना आसान नहीं है. धर्म और अंधविश्वास की सीमा कहाँ ख़त्म होती है, इसपर भी विद्वानों की राय एक नहीं है. जहाँ तक बात आस्था रखने वालों और न रखने वालों के बीच के विरोध की है, तो यह कल भी मौजूद था और आज भी है. मगर जब तबलीगी जमात और आम मुस्लमान पर कोरोना फ़ैलाने का आरोप लगा कर हमला किया जा रहा हो, तब इस पर पाबन्दी की बात कर तसलीमा नसरीन किसका भला चाहती हैं?

लेखक जेएनयू से पीएचडी हैं

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