बिजॉय दिबोश: अदावतें थीं तग़ाफ़ुल था रंजिशें थीं बहुत, बिछड़ने वाले में सब कुछ था बेवफ़ाई न थी…


16 दिसंबर यानी की आज के ही दिन 50 साल पहले पाकिस्तान ने हार कबूल कर ढाका में बांग्लादेश के स्वतंत्रता सेनानियों और भारतीय सैनिकों की सहयोगी सेनाओं के सामने बिना शर्त आत्मसमर्पण किया था। बांग्लादेश मुक्ति संग्राम की जीत का यह दिन हमारा पड़ोसी मुल्क बिजोय दिबोश (विजय दिवस) के रूप में मनाता है। इसके स्वर्ण जयंती आयोजन में भारतीय राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भी शामिल हो रहे हैं।

बिजोय दिबोश के बहुत संक्षिप्त इतिहास के बाद आगे बातें इस मौके पर लिखी एक लाजवाब और मशहूर ग़ज़ल की।

अदावतें थीं, तग़ाफ़ुल था, रंजिशें थीं बहुत
बिछड़ने वाले में सब कुछ था, बेवफ़ाई न थी

चंद महीने पहले फोन पर एक अज़ीज़ दोस्त बातचीत के किसी सिरे से जोड़कर अचानक यह शेर गुनगुनाने लगे। शेर लाज़वाब था तो मैं भी पूछ बैठा कि यह किस ग़ज़ल का शेर है, किसने गाया है। जवाब में व्हाट्सएप पर क़ुरतुलैन बलोच की आवाज़ में ढली एक ग़ज़ल का वीडियो लिंक मिला जिससे पता चला कि इसके शायर हैं नसीर तुराबी। बातचीत के बाद वीडियो देख-सुन ऐसा लगा कि बलोच ने जितना गाया है यह ग़ज़ल उतनी भर नहीं है। फिर मैंने गूगल पर पूरी ग़ज़ल खोजी जिसका शीर्षक था, “वो हम-सफ़र था मगर उस से हम-नवाई न थी।” ग़ज़ल इतनी शानदार लगी कि इससे बार-बार पढ़ा, रह-रह कर पढ़ता रहा।

पूरी ग़ज़ल से रूबरू होने के बाद लगा कि यह इश्क, इश्क के सफ़र और रिश्ते के उतार-चढ़ाव पर लिखी एक खूबसूरत ग़ज़ल है। उनवान-ए-ग़ज़ल ने समझाया कि इश्क का सफ़र हसीन पड़ावों से गुजरता हुआ मंजिल-ए-मक़सूद तक पहुंचे इसके लिए हमसफ़र का हमनवा होना ज़रूरी है यानी की उसके साथ मतैक्य होना ज़रूरी है। वहीं यूट्यूब ने बताया कि तमाम दूसरे कलाकारों के साथ-साथ इसे लिविंग लेजेंड आबिदा परवीन ने भी अपनी आवाज़ में सजाया है।

इस ग़ज़ल के बारे में यूँ टुकड़े-टुकड़े में जानना मुझे यह भी बतला रहा था कि साहित्य और संगीत पर मेरा अध्ययन (ज्यादा सही शब्द होगा जानकारी) बहुत कम है। बहरहाल, यह ग़ज़ल रूपी मोती हाथ लगने से मैं बहुत खुश था, ज्ञान का खज़ाना थोड़ा और समृद्ध लग रहा था। साथ ही अब आलम यह भी था कि रह-रह इसे पढ़ने के साथ-साथ सुनने भी लगा था। इसी दौरान यूट्यूब से जो जानकारी मिली वह मेरे लिए चौंकाने वाली थी।

दरअसल यूट्यूब ने एक ऐसे वीडियो का लिंक सुझाया जिसका उनवान यानी शीर्षक था, “Woh humsafar tha by Naseer Turabi”। ज़ाहिर है कि इस लिंक पर जाना ही था। ग़ज़ल सुनाने से पहले इस वीडियो की शुरुआत में नसीर बताते हैं:

“दरअसल मैंने यह ग़ज़ल ‘फ़ॉल ऑफ़ ढाका’ पर लिखी थी। 16 दिसंबर, 1971 को ‘फ़ॉल ऑफ़ ढाका’ की इत्तिला मुझे दिन के 11 बजे पता चली तो बस मैं एकदम टप-टप रोने लगा। आंसू बहने लगे। बहुत ज़ज्बाती मसला था ईस्ट पाकिस्तान तो उस पर मैंने ग़ज़ल लिखनी शुरू कर दी।”

यह वीडियो देखने के बाद नसीर तुराबी के बारे में सर्च किया तो उनके और इस ग़ज़ल के बारे में और भी दिलचस्प जानकारियां मिलीं। उर्दू के मशहूर रचनाकार और आलोचक नसीर तुराबी का जन्म 15 दिसंबर, 1945 को हैदराबाद के दक्कन में प्रख्यात धार्मिक विद्वान और खतीब अल्लामा रशीद तुराबी के घर हुआ था। पाकिस्तान बनने के बाद उनका परिवार कराची चला गया जहां वे बड़े हुए। नसीर का इंतकाल साल 2020 की 10 जनवरी को हुआ। उनके रचना संसार पर चर्चा करने की न मेरी काबिलियत है और न ही मौक़ा। तो आगे मुख़्तसर सी बात करेंगे बस इस ग़ज़ल की।

जानकारी के मुताबिक इस ग़ज़ल को सबसे पहले संभवतः आबिदा परवीन ने ही गया था जो कि नसीर के मोहल्ले में रहती थीं और उनके नसीर से अच्छे ताल्लुकात थे। लेकिन यह ग़ज़ल लोगों, खास कर पाकिस्तानी अवाम की ज़बान पर तब चढ़ी जब यह मशहूर पाकिस्तानी टीवी ड्रामा हमसफ़र का टाइटल साउंड ट्रैक बना। तब लोगों को आम तौर पर लगा था कि यह ग़ज़ल इसी टीवी ड्रामा के लिए लिखी गयी है। आज भी मेरे जैसे सैकड़ों लोगों को पहली बार ग़ज़ल सुनने पर यह इश्क और मोहब्बत पर लिखी ग़ज़ल ही लगती है या लगेगी, लेकिन जैसा कि ऊपर खुद नसीर साहब के अल्फाज़ में यह दर्ज है कि इसकी पृष्ठभूमि अलग है जो इसे इतना खास बनाती है।

नसीर तुराबी की इस ग़ज़ल की तरह ही फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की एक ग़ज़ल “हम कि ठहरे अजनबी इतनी मदारातों के बाद” है। यह ग़ज़ल फ़ैज़ ने पूर्वी पाकिस्तान के पाकिस्तान से अलग होने पर लिखी थी। फ़ैज़ ने इसका उनवान भी “ढाका से वापसी पर” रखा है। यह गज़ल भी कई मायने खोलती है लेकिन पहली बार पढ़ने-सुनने पर यह भी एक प्रेम पर लिखी उम्दा रचना ही लगती है।

ये तो हुई किसी एक रचना में छुपे हज़ार मायनों की बात, उससे निकलते कई प्रकार की संकेतों की बात।

आख़िर में नसीर तुराबी की रूह की शांति के लिए दुआएं। और बांग्लादेश के नागरिकों को उनकी स्वतंत्रता की स्‍वर्ण जयंती पर बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं। और बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में भारत की निर्णायक भूमिका के कारण बतौर भारतीय यह दिन मेरे लिए भी खास है, बिजोय दिबोश पर मुझे भी बहुत गर्व और ख़ुशी होती है।



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