किसान आंदोलन को लेकर दो सवाल सबसे ज्यादा पूछे जा रहे हैं। पहला, कृषि कानूनों का विरोध किसान क्यों कर रहे हैं जबकि मंडी सिस्टम खत्म होने से उन्हें अच्छी कीमत पाने के मौके हैं। दूसरा सवाल, केवल पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी के किसान ही क्यों आंदोलनरत हैं। सुखजीत सिंह ने इस सवाल का एक आसान जवाब आसान शब्दों में समझाने की कोशिश अपनी फेसबुक वॉल पर की है। उसका अविकल हिंदी अनुवाद जनपथ के पाठकों के लिए नीचे प्रस्तुत है।
संपादक
“किसान विरोध क्यों कर रहे हैं? ये कानून तो उनके फायदे के लिए हैं। मंडी सिस्टम खत्म होने से तो उन्हें अच्छी कीमतें लेने की छूट होगी!” एक दोस्त ने पूरी गंभीरता से यह सवाल मुझसे पूछा है।
स्वामिनाथन आयोग की रिपोर्ट (जिसे राष्ट्रीय किसान आयोग कहा जाता है) ने कृषि संकट पर काफी विस्तार से पड़ताल करते हुए किसानों की आय और आजीविका को सुधारने के लिए कई समाधान सुझाये थे। इसकी सिफारिशों में एक प्रमुख आयाम यह था कि सरकार कोई भी प्रयोग किसानों के जोखिम पर नहीं कर सकती। आप नयी प्रौद्योगिकी अपनाना चाहते हैं, नये समाधान लाना चाहते हैं, कुछ भी, लेकिन इसे आप सरकार के जोखिम पर करिए, किसानों के नहीं। नोटबंदी याद है? जैसे ही बाजार से नकदी गायब हुई, बड़ी संख्या में सीमांत किसानों की खड़ी फसल बरबाद हो गयी। बाजार में खरीददार ही नहीं मिला। उस एक फसल की बरबादी से आज तक कई किसान नहीं उबर पाए हैं (क्योंकि हर फसल कर्ज पर लगायी जाती है या उसमें बचत के पैसे लगे होते हैं)। यह एक ऐसी नीति का उदाहरण है जहां सबसे ज्यादा हाशिये के लोगों के कंधों पर सबसे ज्यादा जोखिम लाद दिया गया (जो हमारे देश में एक बड़ी संख्या है)।
स्वामिनाथन कहते हैं कि सरकारों को किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) सुनिश्चित करना चाहिए। उसकी गणना का वे एक फॉर्मूला देते हैं- लागत मूल्य गुणा 50 परसेंट मुनाफा। लागत मूल्य के तीन घटक होते हैं। किसी भी सरकार ने यह तय नहीं किया कि एमएसपी को इस तरह से निकाला जाए। आज हम एक ऐसे चरण में हैं जहां केवल दो घटकों को ध्यान में रखा जाता है (वो भी पूरे 100 फीसदी नहीं)।
सवाल है कि किसानों का विरोध मुख्य तौर पर क्यों सिर्फ पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी में देखने में आ रहा है (हालांकि बाकी देश धीरे धीरे जाग रहा है)। इसलिए क्योंकि वर्तमान में भारत में केवल 6 परसेंट किसानों को एमएसपी मिलता है और यह भी उनके कुल उत्पदों के 35 परसेंट के लिए ही। इस तरह से देखें तो केवल 2 परसेंट उत्पादों को एमएसपी हासिल है। यानी न तो एमएसपी किसान आयोग की सिफारिशों के हिसाब सेदिया गया और न ही सभी फसलों के लिए दिया गया (वैसे भी एमएसपी की आधिकारिक सूची में केवल 23 फीसदी फसलें शामिल हैं लेकिन ज्यादातर क्रियान्वयन केवल गेहूं और धान के लिए ही होता है)। स्वामिनाथन रिपोर्ट मंडी के लिए प्रति वर्ग किलोमीटर की परिभाषा सुझाती है। फिलहाल हम इसके मुताबिक निकलने वाली संख्या के 25-30 फीसदी संख्या पर हैं। यानी हमने अभी तक मंडी ही उपलब्ध नहीं करायी है किसानों को। फिर सवाल उठता है कि किसानों को मंडी कहां उपलब्ध है? इसका जवाब है- केवल वहीं जहां एमएसपी तक किसानों की पहुंच है। यानी मोटे तौर पर पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी।
आइए, देखते हैं कि आज सरकार जो पूरे भारत में करने जा रही है उसे जब बिहार में लागू किया गया (मंडी सिस्टम हटा कर निजी खिलाडि़यों को जब लाया गया) तो क्या हुआ। यह बात 2005-06 के आसपास की है। क्या वहां कामयाबी मिली? इसका जवाब उन मजदूरों की संख्या में देखा जा सकता है जो हर फसल के सीज़न में बिहार से पलायन कर के काम करने उत्तर भारत में जाते हैं। वे अपनी फसलें निजी खरीददारों को 1100 से 1300 रुपये प्रति क्विंटल पर बेचते हैं जबकि उसी धान या गेहूं के लिए एमएसपी 1800 से 1900 रुपये प्रति क्विंटल है। क्या मंडी समाप्त करने से उनकी आय में इजाफा हुआ? सरकार इसका जवाब जानती है।
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री देविंदर शर्मा ने इसका एक विश्लेषण किया है। उन्होंने आय वृद्धि पर एक डेटा प्रस्तुत किया। डेटा सरकारी कर्मचारियों बनाम किसानों का है। अवधि 1960-70 के दशक से लेकर कुछ साल पहले तक की है। उस वक्त सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाह 150 से 200 गुना बढ़ी थी लेकिन किसानों की आय केवल 10 से 15 गुना बढ़ी। वेतन के मद में सरकारी कर्मचारियों को 100 किस्म के भत्ते मिले जबकि किसानों को अपनी लागत मूल्य की गणना करने के लिए सही फॉर्मूला तक नहीं दिया गया।
इन सब के बावजूद मीडिया आपको बताएगा कि सरकार एमएसपी को खत्म करने नहीं जा रही। किसान कह रहे हैं कि ठीक है, एक काम करो कि कानून में ये डाल दो कि एमएसपी से नीचे की खरीद दंडनीय अपराध होगी। सरकार ये करने से मना कर रही है (जाहिर है इसके पीछे उसकी दीर्घकालीन मंशा है)।
ये विरोध प्रदर्शन बुनियादी रूप से सरकार को एमएसपी के प्रति वचनबद्धता जाहिर करने को बाध्य करने के लिए है और यदि सरकार ऐसा नहीं करती है, तो वह तीनों कानूनों को वापस ले।
मुक्त बाज़ार एक अच्छा विचार हो सकता है, लेकिन स्वतंत्र और निष्पक्ष दो अलहदा चीजें हैं।
भारत में ज्यादातर किसान सीमांत हैं। यानी इनके पास एक हेक्टेयर से कम ज़मीन है। इनके पास अपने उत्पाद शहरों तक ले जाने के संसाधन नहीं हैं, दूसरे राज्य तक ले जाना तो भूल ही जाएं। इस तंत्र में उन्हें और मंडियां दी जानी थीं लेकिन इसके बजाय स्थापित मंडियों को भी उनसे छीना जा रहा है।
जब सरकार कहती है कि निजी खरीददार किसानों के पास से उनके उत्पाद उठाएंगे, तो याद करें कि कैसे गांवों में बैंकों की उपलब्धता के बजाय हमने सहाराश्री को ग्रामीणों की चौखट पर भेज दिया था? आज भी करोड़ों लोग अपनी जिंदगी भर की बचत के लुट जाने से महरूम हैं। इसीलिए, एक मुक्त बाजार और एक स्वतंत्र व निष्पक्ष बाज़ार दो अलग चीजें हैं।
मौजूदा मंडी सिस्टम सरकार द्वारा संग्रहित करों/अधिभारों के सहारे कायम है। एपीएमसी के बाहर टैक्स लागू न होने से धीरे-धीरे निजी कारोबारी मंडियों तक पहुंचेंगे और फिर एपीएमसी गायब हो जाएंगे। कुल मिला कर बचेगा मुक्त बाज़ार। एक और जियो मोबाइल जैसी कहानी- पहले प्रतिस्पर्धा, फिर गलाकाट। यहीं पर हमें फ्री और फ्री प्लस फेयर का अंतर समझ में आ जाना चाहिए।
और भी कई बिंदु हैं किसानों के विरोध के, लेकिन कुल मिला कर सरकार की मंशा जांचने के लिए वे बस यही मांग कर रहे हैं कि साफ शब्दों में कह दिया जाए कि एमएसपी के नीचे खरीद नहीं होगी।
सुखजीत सिंह ने यह पोस्ट अंग्रेज़ी में अपनी फेसबुक दीवार पर लिखी है।