नीतीश कुमार नए पुलिस कानून से बिहार की नयी राजनीतिक नस्ल को कुचल देना चाहते हैं!

मैं नीतीश कुमार को भी जानता हूं और इन विधायकों को भी। पूरे जिम्मेदारी के साथ कहना चाहता हूं कि मुख्यमंत्री को इन विधायकों के साथ संवाद करना चाहिए। लोकतंत्र और राजनीति के कुछ अभिनव पहलुओं को वह उनसे सीख सकते हैं।

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COVID-19 लॉकडाउन का एक साल पूरा होने पर मानव समाज के लिए एक घोषणापत्र

कोविड-19 की वार्षिकी पर, हमें निश्चित रूप से मनुष्य जीवन पर केंद्रित विश्व – परस्पर देखभाल, समानता और लोक सार्वभौमिकता से भरपूर दुनिया का निर्माण करना होगा।

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देश भर में LIC वाले हड़ताल पर क्यों चले गए? क्या है IPO और क्यों हो रहा है विरोध?

सरकार निगम मे विनिवेश क्यों करना चाहती है? क्या निगम ने अपनी ऐतिहासिक भूमिका नहीं निभाई है? क्या निगम ने जनता के पैसे को मोबि‍लाइज नहीं किया है? क्या निगम ने उस पैसे का राष्ट्रीय और सामाजिक उपयोग नहीं किया है? क्या निगम ने जनता का विश्वास बरकरार नहीं रखा है? क्या निगम ने प्रतियोगी माहौल का सामना सफलतापूर्वक नहीं किया है?

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अनामिका को साहित्य अकादमी: हिंदी की पुरस्कारधर्मी लॉबी का नया तर्कशास्त्र

हिंदी में पुरस्कारधर्मी मानसिकता और उससे जुड़े साहित्यिक भ्रष्टाचार के सवाल न तो किसी एक संस्था से जुड़े हैं न किसी एक व्यक्ति या पुरस्कार से और न ही वे …

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जर्मनी में नाज़ी शासन और आइंस्टीन: कुज़नेत्सोव की पुस्तक से एक प्रसंग

वैज्ञानिकों की सूची में आइंस्टीन शीर्ष स्थान पर थे और उन्हें पता था कि किसी भी समय बगल के देश जर्मनी का कोई नाजी एजेंट मुसीबत बनकर आ सकता है और यह भी उन्हें पता था कि जर्मनी में रहने वाले उनके घनिष्ठ मित्र भी उनके प्रति चिंतित रहते हैं।

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आंदोलन उम्मीद जगाता है कि बैलों की तरह मनुष्य खेती से चुपचाप बेदखल नहीं किए जा सकते!

आंदोलन उम्मीदें जगाते हैं, मनुष्यों की चेतना का परिष्कार करते हैं। किसान आंदोलन भी उम्मीदें जगा रहा है, चेतनाओं का परिष्कार कर रहा है। तभी तो, बेरोजगारों के मानस में भी उथल-पुथल के संकेत नजर आने लगे हैं, छात्रों का जुड़ाव भी आंदोलित किसानों से होता जा रहा है, कामगारों के बीच भी हलचल मच रही है।

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हिन्दुत्व की परिभाषा: ‘दिनमान’ में 8 दिसम्बर, 1968 को छपा कवि-संपादक अज्ञेय का संपादकीय

संघ का ऐब यह नहीं है कि वह ‘हिंदू’ है; ऐब यह है कि वह हिंदुत्व को संकीर्ण और द्वेषमूलक रूप देकर उसका अहित करता है, उसके हज़ारों वर्ष के अर्जन को स्खलित करता है, सार्वभौम सत्यों को तोड़-मरोड़ कर देशज या प्रदेशज रूप देना चाहता है यानी झूठा कर देना चाहता है.

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कौशिक बसु के साथ राहुल गांधी की बातचीत में जो अनकहा रह गया, उसे भी समझें

पैंतालीस साल पहले के आपातकाल और आज की राजनीतिक परिस्थितियों के बीच एक और बात को लेकर फ़र्क़ किए जाने की ज़रूरत है। वह यह कि इंदिरा गांधी ने स्वयं को सत्ता में बनाए रखने के लिए सम्पूर्ण राजनीतिक विपक्ष और जेपी समर्थकों को जेलों में डाल दिया था पर आम नागरिक मोटे तौर पर बचे रहे। शायद यह कारण भी रहा हो कि जनता पार्टी सरकार का प्रयोग विफल होने के बाद जब 1980 में फिर से चुनाव हुए तो इंदिरा गांधी और भी बड़े बहुमत के साथ सत्ता में वापस आ गईं। इस समय स्थिति उलट है।

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अमीर किसान, वैश्विक साजिशें और स्थानीय मूर्खताएं

पिछले एनएसएस सर्वेक्षण के अनुसार, पंजाब में एक किसान परिवार की औसत मासिक आय 18,059 रुपये थी। प्रत्येक किसान परिवार में व्यक्तियों की औसत संख्या 5.24 थी। इसलिए प्रति व्यक्ति मासिक आय लगभग 3,450 रुपये थी। संगठित क्षेत्र में सबसे कम वेतन पाने वाले कर्मचारी से भी कम।

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राष्ट्र एक व्यक्ति में बदल जाए, उससे पहले एक आंदोलन क्या राजनीतिक विपक्ष बन पाएगा?

यह बात अभी विपक्ष की समझ से परे है कि किसी एक बिंदु पर पहुँचकर अगर किसान आंदोलन किन्हीं कारणों से ख़त्म भी हो जाता है तो जो राजनीतिक शून्य उत्पन्न होगा उसे कौन और कैसे भरेगा। किसान राजनीतिक दलों की तरह पूर्णकालिक कार्यकर्ता तो नहीं ही हो सकते। और यह भी जग-ज़ाहिर है कि कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलन को विपक्षी दलों का तो समर्थन प्राप्त है, किसानों का समर्थन किस दल के साथ है यह बिलकुल साफ़ नहीं है। टिकैत ने भी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को सार्वजनिक तौर पर उजागर नहीं किया है।

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