जब तमाम राजनीतिक दलों का आर्थिक दर्शन एकसमान है, ऐसे में किसान आंदोलन का हासिल क्या होगा?

सरकार यह जानती है कि ये सारे जनसंघर्ष यदि एकीकृत हो जाएं तो फिर कोई बड़ा परिवर्तन होकर रहेगा। इसलिए वह इस किसान आंदोलन को कमजोर करना चाहती है। वह उन सारी रणनीतियों का सहारा ले रही है जो अभी तक उसके वर्चस्व को बनाए रखने और बढ़ाने में सहायक रही हैं।

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कच्छ के सिख किसान तो 15 तारीख को विरोध कर रहे थे, फिर PM के साथ बैठक में कौन था?

15 दिसंबर को कच्‍छ में जो बैठक हमें प्रधानमंत्री और पीड़ित सिख किसानों के बीच की बतायी गयी, वह दरअसल एक सुप्रीम नेता और उसके कार्यकर्ताओं के बीच की सामान्‍य शिष्‍टाचार बैठक थी।
इस बैठक का न तो किसान कानूनों से कोई लेना देना था, न ही कच्‍छ में बसे सिख किसानों की समस्‍या से।

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कृषि पर कॉर्पोरेट कब्ज़ा संवैधानिक अधिकारों और लोकतंत्र के निगमीकरण की शुरुआत है

अगर आपने मुख्यधारा की मीडिया में होने वाली विशेषज्ञ चर्चाओं और वहां परोसे जाने वाले दृश्यों को अपनी सारी बुद्धि पहले से ही गिरवी नहीं रखी है, तो आप परी कथा की तरह सवाल पूछ सकते हैं: “आईना, दीवार पर आईना, मुझे दिखाओ कि इन सबके पीछे कौन है”। और फिर, आईना सत्तारूढ़ पार्टी के दो सबसे शक्तिशाली राजनेताओं (दोनों गुजरात से) को नहीं दिखाएगा, बल्कि दो अन्य चेहरे, देश के दो सबसे अमीर कारोबारी (दोनों ही गुजरात से) को दिखाएगा।

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किसान आंदोलन की पृष्ठभूमि में तीन नए कृषि कानूनों का एक विश्लेषण

ये तीनों सुधार मौजूदा कृषि उत्पादों के बाजार की संरचना पर से सरकार का नियंत्रण हटाने के मकसद से किये गए हैं। जब कोविड और लॉकडाउन की वजह से खेती में पहले से चले आ रहे संकट में और भी इज़ाफ़ा हो गया, और जब वंचितों और हाशिये पर मौजूद परिवारों को राज्य की सहायता की जरूरत थी ताकि निर्दयी और निरंकुश बाजार की अनिश्चितताओं और क्रूरताओं से राज्य उनकी रक्षा करे तब मोदी सरकार ने बाजार को और अधिक खोलकर और अपना नियंत्रण हटाकर समाज के कमजोर तबकों को बाजार के सामने पूरी तरह असहाय छोड़ दिया। वास्तव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का देश की जनता को आत्मनिर्भर बनाने का एजेंडा यही था।

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‘अर्जित’ विचारहीनता और संवेदनहीनता का उत्सव मनाते मध्यवर्ग से आंदोलन कोई उम्मीद क्यों पालें?

वैचारिक दरिद्रता इन्हें विरासत में नहीं मिली है बल्कि इन्होंने इसे बाकायदा ‘अर्जित’ किया है। तभी, जो इनके पिताओं और दादाओं के लिए रोल मॉडल थे वे इनके लिए इतिहास के खलनायक हैं जिन्होंने ‘’70 साल में देश का बंटाधार कर दिया है”।

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पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी के किसान आंदोलन क्‍यों कर रहे हैं? बुनियादी सवाल का आसान जवाब

मीडिया आपको बताएगा कि सरकार एमएसपी को खत्‍म करने नहीं जा रही। किसान कह रहे हैं कि ठीक है, एक काम करो कि कानून में ये डाल दो कि एमएसपी से नीचे की खरीद दंडनीय अपराध होगी। सरकार ये करने से मना कर रही है।

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किसान आंदोलन के साथ जनता का सिर्फ़ पेट नहीं, उसकी बोलने की आज़ादी भी जुड़ी हुई है!

किसान आंदोलन से निकलने वाले परिणामों को देश के चश्मे से यूँ देखे जाने की ज़रूरत है कि उनकी माँगों के साथ किसी भी तरह के समझौते का होना अथवा न होना देश में नागरिक-हितों को लेकर प्रजातांत्रिक शिकायतों के प्रति सरकार के संकल्पों की सूचना देगा।

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किसानों ने बदली रणनीति: योगेंद्र यादव को खाली हाथ लौटाया, सिंघू बॉर्डर पर ही चूल्हा जलाया!

ज्‍यादातर किसानों ने मोर्चे के नेतृत्‍व की नाफ़रमानी कर दी है, तो किसान आंदोलन की आगे की दिशा के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। फिलहाल किसानों ने सिंघू बॉर्डर पर ही डेरा डाल दिया है, चूल्‍हे जला लिए हैं और रात के खाने की तैयारी में लग गए हैं।

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कॉरपोरेट को बैंक खोलने देना अशर्फियां लुटाकर कोयले पर मुहर लगवाने जैसा मूर्खतापूर्ण कदम है!

खराब राजकाज वाले बैंकों के मौजूदा ढांचे की जगह औद्योगिक घरानों के टकरावपूर्ण स्‍वामित्‍व को ले आना अशर्फियां लुटाकर कोयले पर मुहरों की छाप लगवाने जैसा कदम साबित होगा।

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प्रशांत भूषण के हाथ से फिसला वह क्षण और ‘स्‍थायी भयावहता’ में तब्‍दील होते ‘तात्‍कालिक भय’!

बीतने वाले प्रत्येक क्षण के साथ नागरिकों को और ज़्यादा अकेला और निरीह महसूस कराया जा रहा है। जिन बची-खुची संस्थाओं की स्वायत्तता पर उनकी सांसें टिकी हुई हैं, उनकी भी ऊपर से मज़बूत दिखाई देने वाली ईंटें पीछे से दरकने लगी हैं।

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