राग दरबारी: क्या एक समाजशास्त्री की व्याख्या हमेशा निष्पक्ष होती है?


पिछले हफ्ते समाजशास्त्री प्रोफेसर बद्री नारायण ने बीबीसी हिन्दी की वेबसाइट पर एक लेख लिखा जिसका शीर्षक था- ‘कोरोना वायरस ने भारत से जाति की दीवार को ढहा दिया है?’ वैसे तो शीर्षक में प्रश्नवाचक चिह्न लगा हुआ है लेकिन पूरे लेख को पढ़ने पर पता चलता है कि कोरोना ने देश में जाति प्रथा को पूरी तरह जड़ से हिला दिया है.

पिछले कई वर्षों से हम बद्री नारायण को काफी गंभीरता से पढ़ते-विचारते रहे हैं. दलितों, खासकर उत्तर प्रदेश के दलितों पर उनका विस्तृत काम है और जब भी उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति के बारे में वह कुछ कहते हैं तो उनकी बातों को गंभीरतापूर्वक लिया जाता है. लेकिन बद्री नारायण का यह लेख कई तरह से शक पैदा करता है. बद्री नारायण के लेख को पढ़ने से लगता है कि इतने दिनों से वह एक ‘सेट पैटर्न’ पर काम करते रहे हैं. वे वस्तुस्थिति व परिस्थितिजन्य साक्ष्य को कुछ अलग नजरिये से देखते हैं जो दोषपूर्ण व भ्रामक हो चुका है.

यह लेख 7 जून को छपा है. उससे एक दिन पहले अर्थशास्त्री अश्विनी देशपांडे ने इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख लिखा था जिसमें सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनोमी (सीएमआइई) के कंज्यूमर पिरामिड हाउसहोल्ड सर्वे (सीपीएचएस) के सालभर (मार्च 19 से मार्च 20 तक) के आंकड़ों का विश्लेषण किया गया है. देशपांडे के विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि कोरोना और लॉकडाउन में महिलाओं और अवर्णों ने ज्यादा नौकरियां गंवाई हैं. अपने विश्लेषण में देशपांडे बताती हैं कि यह परेशानी पूरे देश में है लेकिन ग्रामीण क्षेत्र में दलितों व महिलाओं की परेशानी सबसे अधिक है.

इसी से मिलती-जुलती खबर इंडियन एक्सप्रेस ने 9 जून को छापी है. भोपाल से मिलिंद घटवई की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि मध्यप्रदेश लौटे 7 लाख 30 हजार मजदूरों में 60 फीसदी लोग अनुसूचित जाति/जनजाति के हैं. मध्यप्रदेश में एससी/एसटी की संख्या 15.3 फीसदी है अर्थात अगर साठ फीसदी लोग सिर्फ दलित हैं तो बचे हुए 40 फीसदी व्यक्ति कौन होंगे?

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक मध्य प्रदेश में पिछड़ी जातियों की संख्या कम से कम 53 फीसदी है. अब इन आंकड़ों के आधार पर इसका आकलन करें तो बहुत आसानी से कहा जा सकता है कि बचे हुए में से कम से कम 35 फीसदी से अधिक व्यक्ति पिछड़ी जाति के होंगे अर्थात 95 फीसदी दलित/आदिवासी/पिछड़ों को रोजगार से बाहर किया जा रहा है जबकि इसका विश्लेषण यह किया जा रहा है कि देश से जाति प्रथा खत्म हो रही है!

लगभग एक दशक पहले समाजशास्त्री सतीश देशपांडे ने अपनी महत्वपूर्ण किताब ‘कंटेंपररी इंडिया’ में एनएसएसओ के आंकड़ों का विश्लेषण करके बताया था कि ग्रामीण भारत में 94 फीसदी व शहरी भारत में 91 फीसदी दलित गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करते हैं. यह निष्कर्ष उन्होंने 1992-93 के एनएसएसओ के आंकड़ों के आधार पर निकाला था.

फिर बद्री नारायण किस बिनाह पर ‘जाति विनाश’ की बात कर रहे हैं और किस आधार पर बीबीसी में लिखे अपने लेख में इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ‘किसी भी ऐसे विपदाजनित आपातकाल में बनी बनाई सामाजिक रूढ़ियां थोड़ी ढीली होती हैं, कुछ टूटती-फूटती हैं, कुछ नये स्वरूप ग्रहण कर आती हैं. कोरोना के भय ने भारतीय गांवों के जातीय समीकरण को छिन्न-भिन्न किया है. भले ही यह टूट-फूट अस्थायी हो, परन्तु यह ऐसे सामाजिक अनुभव को पैदा करेगी जो भारतीय समाज में जातीय भाव को शायद थोड़ा कम करे.’

बद्री नारायण इलाहाबाद स्थित जीबी पंत सामाजिक अध्ययन संस्थान के डायरेक्टर हैं जिसके बारे में कहा जा सकता है कि वह उत्तर भारत का इकलौता शोध संस्थान है जहां फिलहाल गंभीरतापूर्वक शोध किया जाता है. इसलिए उनका लिखा इस तरह का लेख न सिर्फ चौंकाता है बल्कि निराश भी करता है. बद्री नारायण ने अप्रैल के अंत में अंग्रेजी पत्रिका आउटलुक में एक लेख लिखा, जिसका शीर्षक था- ‘योगी आदित्यनाथ ने कोरोना संकट को जिस रूप में संभाला है उससे राजनीति की अवधारणा बदल रही है’. यह लेख मोटे तौर पर योगी आदित्यनाथ का प्रशस्ति गान है जिसमें बद्री नारायण लगभग यह साबित करते हुए दिखाई देते हैं कि कोरोना के संकट से निदान पाने का सबसे बढ़िया उपाय योगी आदित्यनाथ ने किया है.

अभी अभी पिछले हफ्ते की बात है जब उत्तर प्रदेश के चीफ सेक्रेटरी एक युवा जिलाधिकारी को अधिक कोरोना जांच करवाने के लिए यह कहते हुए फटकार लगा रहे थे कि बहुत तेजी से जांच करवाने से मेडल नहीं मिलेगा! उस मीटिंग की सूचना को सार्वजनिक किए जाने से उत्तर प्रदेश के ही एक पूर्व चीफ सेक्रेटरी के ऊपर मुकदमा तक दर्ज करवा दिया गया है. मतलब यह कि जिस योगी आदित्यनाथ की राजनीति को बद्री नारायण अवधारणा बदलने वाला करार दे रहे हैं वह पूरी तरह झूठ, मनगढ़ंत व फरेब है, लेकिन योगी आदित्यनाथ को बद्री नारायण विकास का एक नया मॉडल विकसित करने वाले के रूप में पेश कर रहे हैं. योगी आदित्यनाथ के पुराने कृत्य को भूल भी जाएं तो पिछले कुछ महीनों से राज्य के विभिन्न समुदायों पर किए जा रहे जुल्म को नजरअंदाज करते हुए इस तरह की भूरि-भूरि तारीफ संशय पैदा करती है. 

बद्री नारायण उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में रहकर शोध करते हैं जहां सभी तरह की सूचनाओं का आदान-प्रदान हो पा रहा है. कोरोना संकट शुरू होते ही जब मजदूर गांव की तरफ वापस लौट रहे थे, उसी समय से देश के विभिन्न हिस्सों से तरह-तरह की जातिगत उत्पीड़न की खबरों की बाढ़ आ गई थी. जब लोगों को गांव की पंचायत में क्वॉरंटीन किया गया तब उत्तराखंड, झारखंड और हिमाचल प्रदेश से कई ऐसी खबरें अखबारों में छपी कि क्वॉरंटीन में सवर्ण युवकों ने दलितों द्वारा बनाया हुआ खाना खाने से इनकार कर दिया था! आखिर जब जाति प्रथा कमजोर पड़ गया है तो यह भेदभाव किस बात की तरफ इशारा करता है? यह कैसे हो सकता है कि जाति व दलित पर काम करने वाले किसी समाजशास्त्री की नजर से यह बात छुप जाए? और इस बात पर गौर कीजिए कि ऐसी घटनाएं किसी एक राज्य या एक दिन में नहीं घटी हैं बल्कि कई राज्यों में कई बार हुआ है! लेकिन इस तथ्य को नकारकर अपना निष्कर्ष पाठकों पर थोप देना अकादमिक बेईमानी ने अलावा उनके जातिगत दुराग्रह की तरफ भी इशारा करता है.

बद्री नारायण के लिखे को पढ़कर यह सवाल तो उठाने का वक्त है ही कि वह जो लिख रहे हैं उसकी कोई जातिगत ‘लोकेशन’ है क्या? बिना किसी जातिगत लोकेशन के इस तरह के अंतिम निष्कर्ष पर कोई समाजशास्त्री कैसे पहुंच जा सकता है?

हम इस बात को बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि मंडल की राजनीति शुरू होने के बाद सवर्णों की गोलबंदी पूरी तरह बीजेपी के पक्ष में हुई है. इसका प्रमाण चुनाव पर काम कर रहे विभिन्न संस्थानों ने बार-बार दिया है. सीएसडीएस-लोकनीति का पिछले लोकसभा चुनाव का विश्लेषण देखें तो पता चलता है कि उत्तर प्रदेश में 82 फीसदी ब्राह्मणों ने और 89 फीसदी राजपूतों ने बीजेपी को वोट किया है, मतलब कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश के 77 फीसदी सवर्णों ने भाजपा को वोट दिया है. आखिर जब जातीय गोलबंदी इस रूप में हो गई है तो सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषण में इसका असर क्यों नहीं दिखाई पड़ सकता है? आखिर यह कैसे हो सकता है कि जब वैचारिक धरातल एक हो तब आप एक ही सच्चाई को बहुरंगी तरीके से कैसे देख सकते हैं? अभी तक हम मानते रहे हैं कि बद्री नारायण मोटे तौर एक लिबरल धरातल पर खड़े हैं लेकिन हाल के दिनों में उनके लेखन में जातिगत पूर्वाग्रह दिखाई पड़ने लगा है!

यहां सवाल सिर्फ यह नहीं है कि बद्री नारायण जो लिख रहे हैं उसका वही मतलब है जो वह देख रहे हैं. उनके लिखे का वृहद मतलब यह भी है कि उनको पढ़ने वाले यह सोचकर भी उन्हें पढ़ते हैं कि जब पंत शोध संस्थान के डायरेक्टर भी अपनी बात ईमानदारीपूर्वक नहीं कह पाते हैं और उन्हें भी समझौता करना पड़ता है तो जो सामान्य लोग समझौता करते हैं उसमें क्या परेशानी है! और अगर यह समझौता नहीं है तो यह मानना पड़ेगा कि बद्री नारायण के भीतर का ‘तिवारी’ बार-बार उनके लेखन में हिचकोले खाकर बाहर आ जा रहा है!


लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं


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5 Comments on “राग दरबारी: क्या एक समाजशास्त्री की व्याख्या हमेशा निष्पक्ष होती है?”

  1. जितेंद्र भाई,
    बहुत ही खुल के आपने लिखा है और सही सवाल उठाए हैं। आख़िर कौन सी मजबूरी है जो बदरी रैना देख नहीं पा रहे हैं उत्तर प्रदेश में घटित घटनाओं को। एलाहाबाद में हैं तो दिल्ली के अख़बारों से तो ज़्यादा ही खबरें प्रदेश की आती होंगी। ऐसे में यह बात कह देना की योगी आदित्यनाथ ने corona से लड़ाई में अहम भूमिका निभायी है, बिलकुल ग़लत है। कोई बात तक नहीं हो रहा है की कितनी टेस्टिंग हो रही है, अस्पतालों के हालात लोगों से छुपे नहीं है। बिहार में लोग टेस्टिंग कितनी हो रही है, कितने ज़िले में इन आँकड़ों के ऊपर बात हो रही है बहस हो रही है। जो लोग पहले नहीं पूछते थे अभी बोल रहे हैं। वैसे में बदरी रैना जी के बदले सुर कोई राजनैतिक और संस्थानिक मजबूरी से ज़्यादा कुछ और नज़र नहीं आती, दुर्भाग्यपूर्ण।

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