तकरीबन पिछले डेढ़ महीने से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कोरोना से लड़ने के तरह-तरह के नुस्खे लेकर जनता के सामने अवतरित हो रहे हैं और फिर ‘अपने काम’ में लग जाते हैं. कोरोना से लड़ने के लिए भारत सरकार ने घोषित तौर पर मात्र 15 हजार करोड़ रुपये मेडिकल सुविधा के लिए आवंटित किया है जबकि अकेले केरल सरकार ने उससे निपटने के लिए 20 हजार करोड़ का बजट रखा है. फिर भी अधिकांश राज्य सरकारें स्वास्थ्य सेवा को बेहतर बनाने के लिए तत्पर नहीं हैं.
करीब-करीब सभी राज्य सरकारें (अपवाद में केरल, ओडिशा, छत्तीसगढ़ व झारखंड को रख सकते हैं) प्रधानमंत्री मोदी के रास्ते पर चल रही हैं. राज्य सरकार यह मानती है कि कोरोना जैसी बीमारी को थाली बजाकर, शंख बजाकर या फिर मोमबत्ती जलाकर हराया जा सकता है. अधिकतर राज्य सरकारों ने जर्जर हो चुकी स्वास्थ्य सेवा को बेहतर करने की दिशा में सोचना भी नहीं शुरू किया है जबकि आज के जो हालात हैं उसके अनुसार अगर पूरी तरह निजी स्वास्थ्य सेवा का राष्ट्रीयकरण कर लिया जाय तो शायद उस महामारी से बचने में थोड़ी सी अधिक मदद मिल सकती है.
जैसा कि हमारे देश में पिछले कुछ वर्षों से होता आ रहा है, हर चीज़ को प्रहसन में बदल दिया गया है. देश में अधिकांश संस्थाओं को अपाहिज बना दिया गया है या फिर उस अवस्था में लाकर छोड़ दिया गया है जिसका एकमात्र मतलब केन्द्र सरकार को संकट के समय मदद मुहैया कराना या वैधता दिलना रह गया है. पिछले छह वर्षों में इसके अनगिनत उदाहरण सामने मौजूद हैं.
कोरोना महामारी के इस दौर में एक नया संकट महाराष्ट्र में आने की आशंका है. पिछले साल 28 नवम्बर को बीजेपी की सबसे पुरानी और विश्वसनीय सहयोगी शिवसेना उससे निकलकर बाहर आ गयी और अपनी चिरपरिचित राजनीतिक शत्रु कांग्रेस और शरद पवार वाली एनसीपी के साथ मिलकर राज्य में सरकार का गठन कर लिया. नैतिकता अनैतिकता से परे यह सरकार पिछले पांच महीने से काम कर रही है. संविधान के मुताबिक राज्य के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को 27 मई तक विधानसभा या विधान परिषद् में से किसी एक का सदस्य नियुक्त होना लाजिमी है. अगर वह विधानसभा के किसी सदन के सदस्य नहीं चुने जाते हैं तो उन्हें इस्तीफा देना पड़ेगा.
आजतक ऐसा कोई मसला हमारे देश के सामने नहीं आया था कि जब पूरा देश महामारी को झेल रहा हो, पूरा देश चालीस से अधिक दिनों से पूरी तरह बंद हो, देश भर में स्कूल-कॉलेज बंद हों और कोरोना बीमारी के अलावा आम नागरिकों के लगभग सभी तरह की बीमारियों का इलाज रुक गया हो, ऐसी परिस्थिति की भारतीय संविधान में कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं की गयी है.
इसी को ध्यान में रखकर इसी महीने की 8 तारीख को राज्य के उपमुख्यमंत्री अजीत पवार की अध्यक्षता वाली कैबिनेट ने राज्यपाल से सिफारिश की कि खाली पड़े दो मनोनीत सीटों से एक पर उद्धव ठाकरे को मनोनीत कर दें. उस अनुशंसा को 19 दिन हो गये हैं लेकिन अभी तक राज्यपाल ने कोई निर्णय नहीं लिया है. इसके उलट राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और बीजेपी नेता देवेन्द्र फणनवीस लगातार यह बयान दे रहे हैं कि राज्यपाल मौजूदा मुख्यमंत्री को किसी भी परिस्थिति में मनोनीत नहीं करेंगे.
वैसे इस बात को लेकर दोनों तरफ से तर्क-वितर्क किया जा सकता है और संविधान से लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को आधार बनाकर यह कहा जा सकता है कि छह महीने में अगर कोई मुख्यमंत्री किसी सदन का सदस्य नहीं बन सकता है तो उसे उस पद पर बने रहने का कोई हक नहीं है, लेकिन यहां सवाल यह है कि क्या आज का समय सामान्य समय है जिसमें आसानी से चुनाव हो जाय? देश में राज्यसभा के चुनाव रोक दिये गये हैं, निर्वाचन आयोग ने हर तरह के चुनाव पर रोक लगा दिया है, फिर सवाल यह है कि उस संवैधानिक संकट से कैसे बचा जाय?
यहां सवाल सिर्फ संवैधानिक संकट से बचने का नहीं है और जिसे हम सिर्फ एक मुख्यमंत्री के किसी सदन के सदस्य न बनने के रूप में देख रहे हैं, वह इतनी छोटी बात नहीं है. अगर इसे बड़े फलक पर देखें तो पता चल सकता है कि यह संकट क्यों इतना गहरा है.
अगर राज्यपाल उद्धव ठाकरे को मनोनीत नहीं करते हैं तो गठबंधन के लिए परेशानी अगला नेता चुनने की होगी। शिवसेना में कई विधायक वैसे हैं जिन्होंने सीधे बाल ठाकरे के साथ काम किया है. उनके लिए आदित्य ठाकरे को नेता मानना काफी मुश्किल होगा. इतना ही नहीं, उद्धव ठाकरे अगर मुख्यमंत्री पद से हट जाते हैं तो सत्ता के कई समानांतर केन्द्र भी स्थापित होंगे जो संकट की इस घड़ी में अधिक नुकसानदेह होगा और इस खींचातानी में इस सरकार का चलना और चलाना मुश्किल हो जाएगा.
यही मोदी सरकार की मंशा है. महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री के बाद देश का दूसरा सबसे ताकतवर व्यक्ति होता है (राजनेता कहना आज के दिन मुनासिब नहीं है, क्योंकि अब राजनीति नहीं होती है बल्कि सत्ता पर कब्जा करना ही अंतिम लक्ष्य होता है). पहले कहा जाता था कि प्रधानमंत्री के बाद दूसरा सबसे ताकतवर व्यक्ति उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री होता है लेकिन पिछले तीस वर्षों से, उदारीकरण के बाद आर्थिक राजधानी पर जिसका कब्जा है वह अपने आप देश का दूसरा ताकतवर व्यक्ति हो जाता है. उनके पास पूंजी के स्रोत की जानकारी होती है, पूंजी के प्रवाह की जानकारी होती है और राजसत्ता पर कब्जा होने के चलते व्यक्तियों व धन के ‘आवाजाही’ की भी जानकारी होती है. कहने का मतलब यह कि अगर महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री चाहे तो केन्द्र सरकार के कई माध्यमों को भी नियंत्रित करने में बाधा पहुंचा सकता है.
पिछले कुछ दिनों से उद्धव ठाकरे की चुप्पी आने वाले संकट की तरफ इशारा करता है क्योंकि उद्धव यह जानते हैं कि नरेन्द्र मोदी वैसे व्यक्ति नहीं हैं जो अपनी किसी भी हार को इतनी आसानी से स्वीकार कर लते हैं. पिछले कुछ वर्षों में जिस रूप में संवैधानिक संस्थाओं ने केन्द्रीय सत्ता के सामने समर्पण किया है यह भी उन्हें दिखाई पड़ रहा है, इसलिए उनकी चुप्पी बहुत कुछ कह जा रही है. इसका एक प्रयोग हमने मध्य प्रदेश में देखा भी था जब कमलनाथ की सरकार को अपदस्थ करने के लिए कोरोना के बीच वह सब कुछ किया गया, जिसकी तात्कालिक रूप से जरूरत नहीं थी.
हां, यह सही है कि मनोनीत सदस्य मंत्री नहीं बनते रहे हैं लेकिन ऐसा है नहीं कि कभी वैसा हुआ नहीं है. मद्रास में 1952 में सी. राजगोपालाचारी को मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया है जबकि महाराष्ट्र में ही दत्ता मेघे और दयानंद महास्के को मंत्री बनाने के बाद राज्यपाल ने विधान परिषद् के लिए मनोनीत किया था. हां, संविधान के अनुसार उन्हें ही मनोनीत किया जा सकता है जिन्होंने विज्ञान, कला या कोआँपरेटिव आंदोलन में महती भूमिका निभायी हो. अगर वह योग्यता है तो उद्धव ठाकरे को इस आधार पर भी विधान परिषद में मनोनीत किया जा सकता है क्योंकि वह वाइल्डलाइफ फोटोग्राफर रहे हैं.
या फिर जब कुछ लोग जब यह सवाल उठा सकते हैं कि नहीं, उद्धव ठाकरे में वैसा कोई भी गुण नहीं है तो तत्काल उनसे पलटकर यह सवाल पूछा जा सकता है कि फिर पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई उनमें से कौन सा गुण रखते हैं कि उन्हें राष्ट्रपति ने राज्यसभा के लिए मनोनीत किया?
हम मानते हैं कि राज्यपाल केन्द्र सरकार का राज्य में प्रतिनिधित्व होता है लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 1979 में हरगोविंद पंत बनाम रघुकुल तिलक मामले में स्पष्ट कर दिया था कि राज्यपाल न तो केन्द्र सरकार का अधिकारी है और न ही उसके नियंत्रण में है, राज्यपाल पूरी तरह एक स्वायत्त संवैधानिक पद है.
हां, हमारे देश में परपंरा यह रही है कि राज्यपाल राज्य कैबिनेट की सिफारिश को मानने के लिए बाध्य होता है लेकिन जब सारी संस्थाओं को क्षरण हुआ है तो कौन कह सकता है कि महाराष्ट्र के राज्यपाल इसे बचा लेंगे? महाराष्ट्र में एक नया राजनीतिक संकट साफ़ दिख रहा है.
जितेन्द्र कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं
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