अभी कल ही एक वरिष्ठ से बात हो रही थी। बिहार में शिक्षा को लेकर बात हो रही थी। उन्होंने हंसते हुए कहा, ‘बिहार नहीं, पूरे देश की ही ये बात है। जो संस्थान पहले से हमारे पास हैं, उनको सुधारने की जगह हरेक सरकार कुछ नए भवन, इमारतें बनाने की घोषणा कर देती है। भूमि-अधिग्रहण से लेकर इमारत के मुकम्मल होने तक, हरेक चीज में पैसा जो बनता है।’
देवभूमि भारतवर्ष में हालांकि यह मामला कुछ और भी आगे चला जाता है। यहां नयी चीज बनाने की घोषणा मात्र होती है, बननी तो दूर की बात है, पुरानी चीज को भी बर्बाद कर दिया जाता है। यह बात मुझे बहुत बार महसूस होती है और बहुत जोर की महसूस होती है कि पश्चिम से असीमित कूड़ा-आयात ने हम लोगों को बौद्धिक रूप से कितना लचर और अक्षम बना दिया है।
एक पूंजीवादी देश से होड़ की चक्कर में, उसके जैसा बनने के हिसाब में, अक्सर यह भुला दिया गया कि पश्चिम तकनीकी या आर्थिक क्रांति से पहले या साथ-साथ एक सामाजिक क्रांति से भी गुजर चुका है। यह भी अगर बड़ी शर्त लगे तो उनके यहां दोहरापन कम है। वे पूंजीवादी हैं तो पूंजी की पूजा भी करते हैं। यहां तो आप मिश्रित अर्थव्यवस्था हैं- उर्दू न फारसी, मियां जी बनारसी। यहां तो अंबानी-अडानी आपके वर्गशत्रु हैं, आप उनको खलनायक मानते हैं। आपके पास चीन जैसा गूदा भी नहीं, जो वहां के अरबपति जैक मा अचानक ख़बरों से ही गायब हो जाएं, ‘अनपर्सन’ कर दिए जाएं।
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हाल ही में अशोक यूनिवर्सिटी चर्चा में रही है। वहां से एक के बाद एक दो भारी-भरकम हस्तियों के इस्तीफे के बाद एक बार फिर मोदी सरकार और उसकी शिक्षा-नीति निशाने पर आ गयी। प्रताप भानु मेहता जेएनयू में लॉ एंड गवर्नेंस नामक नए खुले स्कूल में पढ़ाते थे। (जेएनयू में विषयों को सेंटर और विभागों को स्कूल कहते हैं, जैसे सामाजिक विज्ञान के लिए ‘स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज’ तो भाषाओं के लिए ‘स्कूल ऑफ लैंग्वेजेज़’ और हिंदी-चीनी-जापानी आदि के लिए ‘सेंटर ऑफ इंडियन लैंग्वेजेज़’ या सेंटर फॉर कोरियन इत्यादि)। उनका रौला तब भी था, डंका तब भी बजता था और वह तब भी ‘थिंक टैंक’ थे।
जनता के साथ दिक्कत यह होती है कि वह बुद्धिजीवियों का भरोसा करती है, जबकि बुद्धिजीवी, खासकर भारत के लेफ्ट-लिबरल कब किसके हैं, यह कहना कतई मुश्किल नहीं है। जब अशोक यूनिवर्सिटी पर अधिक दाम और नाम के साथ उनको जाना हुआ, तो उन्होंने जेएनयू का मोह कतई नहीं किया। वह अच्छी तरह जानते थे कि जेएनयू में जिस तबके के विद्यार्थियों का आना बढ़ा था और अब भी संभव था, प्रोफेसर मेहता जिस तरह उन विद्यार्थियों के जीवन को प्रभावित कर सकते थे, वह लाखों रुपए वार्षिक फीस के तौर पर लेने वाली अशोक यूनिवर्सिटी में तो कतई संभव नहीं था।
अब यहां से वापस बात का सिरा पकड़ते हैं, जहां से यह शुरू हुई थी। दअसल, ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज बनाने वाले नौकरशाह या नेता यह भूल जाते हैं कि वह आज जो भी बना है, उसके पीछे कई शताब्दी की ट्रेनिंग और पॉलिश है। वे भूल जाते हैं कि इन देशों में शिक्षा (साक्षरता मात्र नहीं) का क्या स्तर है। वे भूल जाते हैं कि वहां उच्च शिक्षा कितनी महंगी है और सबसे बड़ी बात वे भूल जाते हैं कि इन देशों का शोध और ज्ञान के प्रति रवैया क्या है और हमारे भारत में इन दोनों के प्रति कितना तीखा तिरस्कार है।
श्रीमान अर्जुन सिंह ने मानव संसाधन मंत्री रहते हुए ओबीसी आरक्षण को शिक्षण-संस्थानों में लागू कर दिया, जिसके बाद जेएनयू और डीयू जैसी जगहों पर भी डेमोग्राफी अचानक से बदल गयी। इसका मुजाहिरा करने के लिए केवल एक उदाहरण दूंगा। जेएनयू जैसी जगह में बिरसा अंबेडकर फुले स्टूडेंट्स असोसिएशन (बाप्सा) का एक बड़ी ताकत बनकर उभरना, हालांकि इसकी स्थापना उसी 2014 में हुई थी जब भाजपा की सरकार बनी थी। इसके पहले पांच-छह साल उसी समय के थे, जब अर्जुन सिंह ने शिक्षण-संस्थानों की सूरत बदलने की सोची, जिसे उनके बाद कपिल सिब्बल ने भी जारी रखा।
समाज का जो उच्चतम इलीट वर्ग है, उसे यह स्थिति असहज करने वाली थी। जेएनयू और डीयू का थोड़ा सा इलीट चरित्र इसी वजह से था और जेएनयू में मिनिस्टर या नेताओं के बच्चों का पढ़ना कोई नयी बात नहीं थी। जिनके भी बच्चे अमेरिका या इंग्लैंड नहीं जा पाते थे, वे जेएनयू और डीयू से अपनी खलिश मिटा लिया करते थे। जेएनयू की सूरत बदली औऱ उधर कपिल सिब्बल बड़ी लकीर खींचने के चक्कर में प्राइवेट यूनिवर्सिटी की बाढ़ पर आमादा हो गए।
ये उसी समय की बात है, जब दिल्ली के पास सोनीपत में राजीव गांधी एडुकेशन सिटी बनाने की बात हुई। दावे हुए कि वहां वैश्विक ज्ञान का केंद्र बनेगा, जहां कैंब्रिज और ऑक्सफोर्ड भी अपनी दुकान लगाएंगे, बोले तो विस्तार-शाखा खोलेंगे। अशोक यूनिवर्सिटी और जिंदल यूनिवर्सिटी उसी इलीट खुजली का परिणाम था, जिसमें प्रताप भानु मेहता जैसे बुद्धिजीवी भर्ती की लाइन में खड़े थे। आखिर, लाखों का पैकेज लेकर उनको करना ही क्या था, अशोक यूनिवर्सिटी तो उनके नाम पर अपनी ब्रैंडिंग कर ही रही थी। आखिर, वह इन निजी विश्वविद्यालयों से अलग इस बात में ही तो थी। उसने अधिकांश जेएनयू और डीयू के फैकल्टी को अपने यहां भर्ती किया था, इसी से इसकी विश्वसनीयता आइआइपीएम और राय यूनिवर्सिटी के मुकाबले अधिक थी।
हस्बेमामूल यह कि जैसे बिहार में नीतीश कुमार ने ऐतिहासिक ‘नालंदा विश्वविद्यालय’ को पुनर्जीवित करने का ख्वाब देखा और वह 2700 करोड़ का एक बदनुमा घाव बनकर रह गया। जिन अमर्त्य सेन के नाम पर उसकी खूब मार्केटिंग हुई, वे भी रिटायर हो गए और अब वह लगभग ठंडे बस्ते में चला जा चुका है।
उसी तरह राजीव गांधी एडुकेशनल सिटी भी एक ऐसा भद्दा मज़ाक बन कर रह गया है, जहां विश्वस्तरीय संस्थानों की जगह ज़िला-स्तर के संस्थानों की संख्या उनमें अधिक है, अगर आइआइटी दिल्ली की विस्तार-शाखा और अशोक, जिंदल यूनिवर्सिटी को छोड़ दें तो। कुल 40 प्लॉट में से केवल 12 ही अभी तक आवंटित हुए हैं। 2008 में तत्कालीन हुड्डा सरकार का शुरू किया हुआ और अब ठंडे बस्ते में जा चुका यह भद्दा मजाक भी हजारों करोड़ का है।
जिस देश में हमेशा कोई न कोई चुनाव लगा ही रहता है औऱ हरेक नयी सरकार आने के साथ पुरानी सरकारों के काम को या तो निरस्त करती हैं, या फिर ठंडे बस्ते में डाल देती हैं, वहां अशोक यूनिवर्सिटी के किसी प्रोफेसर के इस्तीफे को वाक्-स्वातंत्र्य या फिर तानाशाही से जोड़ने का काम करने की हिम्मत इस देश के पहले ही हाशिये पर जा चुके वाम-उदार चिंतक ही कर सकते हैं।
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प्रताप भानु मेहता हों या अरविंद सुब्रमण्यम, ये लोग समाज के उसी वर्ग, उसी क्लब का हिस्सा हैं, जिसके प्रधानमंत्री मोदी। इन लोगों का आपसी कुछ द्वंद्व हो तो हो, व्यक्तिगत आशाएं-अपेक्षाएं भले जिम्मेदार हों, विवाद की, लेकिन ये आएगा ‘बड़े लोगों के आपसी हास्य-विनोद’ वाली श्रेणी में ही। इसके आधार पर यदि आप यह सोचना चाह रहे हैं कि मेहता साब हों या सुब्रमण्यम जी, वे भारत में शिक्षा की स्थिति को लेकर वाकई कुछ चमत्कार चाह रहे हैं, या उसके लिए, लोकतंत्र औऱ संवाद के लिए जिबह हो रहे हैं, तो आप भोले बलम हैं।
यह सरकार शिक्षा के साथ खिलवाड़ के मामले में अब तक की सभी सरकारों से अधिक सक्रिय है, तो यह बहुत राहत की बात है कि अब तक इस सरकार ने कोई नयी यूनिवर्सिटी खोलने की नहीं सोची है, वरना नालंदा के बाद बारी तो तक्षशिला की ही थी।