आज विश्व पर्यावरण दिवस है। आज हमें ये मौका मिला है कि प्रकृति के साथ हमारे रिश्ते का आकलन करें– एक सामूहिकता बनाने के लिए इन पहलुओं को समझें।
इंसान के जीवन और विकास की कहानी के दौरान हमने लाखों साल का सफर तय किया है। धरती जैसे जीवित ग्रह पर पर्याप्त हवा और पानी है जिससे इस पर रहते लाखों जीवों को जीने का मौका मिला है। मनुष्य ने पिछले 40 साल में विकास के नाम पर पर्यावरण का जो विध्वंस किया है, ऐसा इन लाखों वर्षों में शायद ही हुआ हो। बड़े बांधों और कोयला खदानों ने जितनी आपदा फैलायी है, वो उसके लाये फ़ायदों से बहुत ज़्यादा है। लोग आज भी बुरी विकास नीतियों और सरकारी मनमानी का विरोध कर रहे हैं।
हां, शायद हम सब ही जिम्मेदार हैं। या शायद कुछ लोग ज़्यादा हैं? विकास के अनुपात में वैश्विक पूंजी ने जंगलों को लूट की वस्तु बना दिया है। सरकारी जुगाड़ हो जाता है और रातोंरात घने जंगल काट दिये जाते हैं, चाहे कोई कुछ भी कहे।
शायद पूरी दुनिया में बंटे हुए लोग आसानी से आपसी बराबरी की बात को मान लें और राष्ट्रीय सीमाओं से जुड़े बम बंदूकों के धंधे बंद हो जाएं अगर हम ये याद रखें कि सारे इंसानों के वंशज एक ही थे।
हमारे पहले पैदा हुए लोगों ने बड़े छोटे देश बनाये, पर साथ ही दूसरे देशों को गुलाम भी बनाया। सफ़ेद चमड़ी के लोगों ने बाकी लोगों को अपने से कम माना- उनसे बिना पैसे दिये काम करवाये, महिलाओं के साथ घिनौनी हिंसा की, बच्चों से बचपन छीन लिया। कई सदियों से दुनिया के इस भाग में जहां जाति व्यवस्था ने करोड़ों लोगों को सामाजिक हाशिये पर रखा है, सिर्फ जन्म के आधार पर लोगों को बड़ा-छोटा या बुद्धिमान माना गया। रंगभेद, जाति व्यवस्था और महिला-पुरुष का फर्क इंसान ने बनाया है, जिसने आज तक लोगों के बीच के फासले बढ़ाये ही हैं।
पर्यावरण के कई पक्ष हैं। कुछ लोगों को जंगली जानवर और खूंखार शिकारी दिखते हैं जो बेचारे जानवरों को मार उसका मांस, दांत और चमड़े को बाज़ार में ऊंचे दामों में बेच देते हैं। कुछ पेड़, नदी, झरने, और पहाड़ों की प्रकृतिक सुंदरता को देख मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। कार से सिर बाहर निकाल ठंडी हवा खाने को बेताब शहरी लोगों मे ये होड़ ज़्यादा देखने को मिलती है। कुछ वैज्ञानिक या घूमने फिरने वाले लोग होते हैं जो पता करने में लगे रहते हैं कि कैसे कोई जानवर अपने बच्चों का खयाल रखता है, या फिर कौन कौन सी मुश्किलों के बाद पेड़ पौधे और वनस्पति किस जगह उग आये हैं। जब शहरों में हवा और पानी ज़हरीली हो जाता है तब हमें पर्यावरण का खयाल आता है।
पिछले साल ब्राज़ील के अमेज़न जंगलों में लगी आग से 9 लाख हेक्टेयर से भी ज़्यादा जंगल ख़ाक को हो गये। इन जंगलों को वापस उस रूप में आने के लिए लाखों साल और लगेंगे। ताकतवर लोगों ने न केवल इसका फायदा उठाया, बल्कि वहां की सरकार ने इस मुद्दे को उठाने के लिए मीडिया को लताड़ा और इसका विरोध कर रहे लोगों को जेल में डाल दिया। ये जंगल दुनिया भर में बारिश लाने और कार्बन फुटप्रिंट कम करने में अपनी सर्वाधिक भूमिका निभाते हैं। भारत के उत्तराखंड के जंगलों में पिछले हफ्ते लगी आग ने बहुत नुकसान किया है।
दुनिया भर में पर्यावरण बचाने के प्रयास में लोग लगे हैं पर उभरती व्यवस्था में सरकारें न ही इन पर कोई ध्यान देती हैं और न ही इसमें लगे लोगों के कई साल के संघर्ष को मान्यता देती हैं। पिछले साल ही भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय ने कई उद्योगों को पर्यावरण स्वीकृति देने के लिए आदेश जारी किये जिससे पर्यावरण को हो रहे नुकसान को ठीक से नापा जा सके। यहां तक कोरोना काल में भी ये इनकी ये ज़िद में कोई बदलाव नहीं आया है और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन बदस्तूर जारी है|
आज जब हर कोने से लोगों की आवाज़ें तेज़ हो रही हैं तब ये सरकारें इन लोगों पर देशद्रोही होने या विकास को अवरुद्ध करने या फिर विदेशी अजेंडे के तहत काम करने के केस लगा कर जेल में डाल दे रही हैं। सामाजिक संस्थाएं या जन-आंदोलन भी इन आरोपों से बहुत दूर नहीं हैं। न्याय की प्रक्रिया बहुत ही दूर दिखती है।
आज शायद कोई नहीं है जो अपने आस पास हो रहे इन व्यापक बदलावों से अंजान हो। शायद ही कोई हो जिसे ये समझ न आता हो कि हमें पर्यावरण को बचा कर रखने की ज़रूरत है– फिर सरकारों को ये बात समझने से कौन सी शक्तियां रोक रही हैं?
भारत में आदिवासी समुदायों ने पीढ़ियों से जंगलों को बचाने और बेहतर करने का काम किया है, पर दिखावटी तरक्की की सनक पर सवार सरकारी तंत्र ने उन्हें अपनी ही ज़मीन पर कैद कर लिया। कॉर्पोरेट अजेंडे से चलती सरकारों ने लाखों हेक्टेयर ज़मीन, उस पर निर्भर पशु-पक्षी, पेड़-पौधे और इंसानों को उपभोग की वस्तु बना दिया है। क़ानूनों को तोड़-मरोड़ कर लूट की प्रक्रिया एक ‘नये नॉर्मल’ के रूप में उभर आयी है। इससे हम सबका जीवन खतरे में है, चाहे हम उस खदान या बांध से कितनी ही दूर हों।
राजनैतिक परिवर्तन आज की ज़रूरत है। अफसरों और सरकारों की जवाबदेही जनता और संविधान के प्रति वापस लाने की ज़रूरत है। हम पहले ही हर साल प्रकृतिक आपदाओं को झेल रहे, उनके बीच जीने के साधन जुटाने में लगे हैं।
सवाल करने की संस्कृति को कुचलने के लिए सारा तंत्र तैयार बैठा है। भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा के नाम पर पर्यावरण के मुद्दों पर काम कर रहे तमाम वकील, प्रोफेसर और सामाजिक आंदोलन से जुड़े लोगों को जेल में बंद कर दिया गया है और इनमें से कई लोगों पर यू.ए.पी.ए. के तहत आरोप लगाये गये हैं। उत्तर प्रदेश के सोनभद्र में कई सुकालो गोंड और कई महिलाओं को वन विभाग की मारपीट का विरोध करने के लिए जेल में डाला गया। छत्तीसगढ़ में लोग लामबंद हुए हैं, नहीं तो गैर-कानूनी ढंग से कोयला खदान अब तक पूरे हसदेव अरण्य के क्षेत्र को बर्बाद कर चुके होते। ऐसे कितने ही लोगों की ज़िंदगी सरकारी फरमान और लूट की प्रवृत्ति कारण मुश्किलों में फंस गयी है। ऐसे में व्यापक वैश्विक एकजुटता ही एक तरीका है जिससे हम इस चक्रव्यूह से बाहर आकर एक नयी दुनिया के सपने देख सकते हैं।
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