जब राजभवन भी झोपड़ी बन जाए: दलित साहित्य के एक संरक्षक राजनेता माता प्रसाद का जीवन


दिनांक 20 जनवरी 2021 को सामाजिक कार्यकर्ता, संस्कृतिकर्मी, लेखक, राजनेता और अरूणाचल प्रदेश के पूर्व राज्यपाल डॉ.माता प्रसाद का लखनऊ के एसजीपीजीआई में निधन हो गया।

माता प्रसाद का जन्म जौनपुर जिले के मछलीशहर तहसील क्षेत्र के कजियाना मोहल्ले में 11 अक्टूबर 1924 को हुआ था। साल 1942-43 में मछलीशहर से उन्होंने हिंदी-उर्दू में मिडिल परीक्षा पास की। गोरखपुर के एक स्कूल से ट्रेनिंग के बाद वह यहां के मड़ियाहूं के प्राइमरी स्कूल बेलवा में सहायक अध्यापक के रूप में नियुक्त हुए। इस दौरान उन्होंने गोविंद, विशारद के अलावा हिंदी साहित्य की परीक्षा पास की। उन्हें लोकगीत और गाने का शौक था। उनकी कुशलता को देखते हुए उन्हें 1955 में जिला कांग्रेस कांग्रेस कमेटी का सचिव बनाया गया।

माता प्रसाद जिले के जौनपुर के शाहगंज (सुरक्षित) विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर 1957 से 1974 तक लगातार पांच बार विधायक रहे। वे 1980 से 1992 करीब 12 वर्ष तक उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य भी रहे। प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी सरकार में वह राजस्व मंत्री रह चुके थे। केंद्र की नरसिम्हा राव सरकार ने 21 अक्टूबर 1993 को माता प्रसाद को अरुणाचल प्रदेश का राज्यपाल बनाया था। इसके अलावा वह भारत सरकार की अनेक समितियों में भी रहे।

साहित्यकार राज्यपाल

वे कभी रुके नहीं, कभी थके नहीं, जब भी दिखे हाथ में एक फोल्डर वाली फ़ाइल, उसमें कुछ पत्रिकाएँ, कुछ किताबें और टाइप कराने के लिए कुछ लेख लिए हुए ही विधायक निवास, दारुल शफा हजरतगंज लखनऊ में  मिले. मैं उनसे कभी इत्मीनान से बात नहीं कर पाया लेकिन लखनऊ के साहित्यिक और सांस्कृतिक सम्मेलनों में उनको कई बार सुना और देखा। इन साहित्यिक और सांस्कृतिक सम्मेलनों में कभी वह वक्ता के तौर पर और कभी श्रोता के रूप में उपस्थित रहते। एक बड़े राजनेता और सार्वजनिक जीवन को जीते हुए उनके लिए पद- प्रतिष्ठा, बड़ा-छोटा, आगे की कुर्सियां-पीछे की कुर्सियां – यह सब मायने नहीं रखता था। उन्हें बड़े पदों पर होने और रहने का गुमान भी नहीं था। माता प्रसाद के जीवन  में जो भी था, उसमें व्यक्तिगत कुछ था ही नहीं। जो भी था वह पूरे समुदाय के लिए सार्वजनिक था।

हमारे लिए वे क्यों महत्वपूर्ण हैं? समाजशास्त्र का विद्यार्थी होने के कारण जब मैंने शोधछात्र के रूप में एम.फिल. समाज विज्ञान की डिग्री हेतु डिजर्टेशन लिखने के लिए विषय का चुनाव किया तो ‘उत्तर प्रदेश में दलित प्रस्थिति और आरक्षण’ पर काम करना शुरू किया। इस दौरान तमाम तरह के साहित्य की छानबीन करने के बाद कुछ हाथ नही लग रहा था। मुझे यह समझ में नहीं आ रहा था जब आँकड़े ही नहीं हैं तो इस काम को आगे कैसे बढ़ाया जाये? यह स्थिति हिन्दी पट्टी खासकर उत्तर प्रदेश में एक निराशाजनक स्थिति की तरफ इशारा है कि सरकारों  के तमाम तरह के दावों के बावजूद लोगो-समुदायों की जानकारी का आंकड़ा ही नहीं है। यह स्थिति सरकार, राजनेताओं, नौकरशाही के नजरिये और कार्यों की प्राथमिकताओं को उजागर करती है कि उनकी प्राथमिकताएं क्या और वह कर क्या रहे हैं? जब राज्य और सरकार की पहुँच समाज सबसे जरूरतमंद व्यक्ति और अंतिम तबके तक होनी चाहिए तो उनके पास आंकड़ा ही नहीं है !

यही स्थिति अकादमिक जगत में भी देखने को मिली, तमाम तरह के साहित्य की छानबीन करने के बाद बहुत कुछ हाथ नहीं लगा क्योंकि हमारे विश्वविद्यालय और  शिक्षक इस तरह के शोध कार्यों से बहुत दूर रहे हैं। फिर इसके बाद बड़ी मशक्कत के बाद मुझे माता प्रसाद की एक किताब उत्तर प्रदेश की दलित जातियों का दस्तावेज हाथ लगी। इस पतली सी किताब में उन्होंने उत्तर प्रदेश की दलित जातियों की सामाजिक-आर्थिक सांस्कृतिक प्रस्थिति का शोधपूर्ण तरीके से वर्गीकरण किया था।

सामाजिक विज्ञान  का विद्यार्थी होने की वजह से मेरा जोर इस किताब पर अधिक इसलिए है क्योंकि दलित समुदायों पर जो लोग शोध कार्य कर रहे हैं, मैंने जितना भी देखा है इस किताब का सन्दर्भ हमेशा ही देखेने को मिल जाता है। इस किताब को देखने पर लगता है कि एक ही किताब में एक साथ कितनी सारी सूचनाएं सम्मिलित की गई हैं। सरकारों, नौकरशाही और अकादमिक जगत ने ऐसा कोई काम किया ही नहीं तो यह काम माता प्रसाद जी ने किया था। जो समाज विज्ञान के लिए और  हम सबके लिए एक महत्वपूर्ण दस्तावेज की तरह है।

झोपड़ी से राजभवन : जब राजभवन भी झोपड़ी बन जाए

माता प्रसाद जी ने अपनी आत्मकथा ‘झोपड़ी से राजभवन’ नाम से लिखी है। जो लोग उनके अरुणाचल प्रदेश में राज्यपाल (1993 से 1999) रहते हुए अरुणाचल प्रदेश घूमकर आये हैं, वे लोग यह किस्सा सुनाते हैं कि राजभवन के दरवाजे साहित्यकारों, लेखकों, विद्वानों और संस्कृतिकर्मियों के लिए हमेशा खुले रहते थे।

इसलिए इस किस्से को जिस तरह से मैंने सुना है या जानता हूँ तो मैं यह कहता हूँ कि झोपड़ी से राजभवन तो माता प्रसाद जी की अपनी कहानी है लेकिन जब माताप्रसाद जी ने राज्यपाल रहते हुए सभी के साथ इतना सादगीपूर्ण और सरल व्यवहार किया हो और जब झोपड़ी से निकले लेखकों, साहित्यकारों, विद्वानों के लिए राजभवन के दरवाजे खुले रहते थे। डॉ. भीमराव आंबेडकर ने जिस ‘पे बैक टू सोसायटी’ की बात की थी, उसके लिए माता प्रसाद जी ने अपना जीवन लगा दिया।

लखनऊ की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में वह हमेशा ही सबके साथ होते। उन्होंने एक लेखक बुद्धिजीवी के रूप में दलित साहित्य और दलित अन्दोलन को अपनी किताबों में दर्ज किया है।

सार्वजानिक जीवन की नैतिकताओं के पतन की आजकल जो कहानियाँ और खबरे सुनने को मिलती हैं, उनमें माता प्रसाद जी का सार्वजानिक जीवन सुकून देता है। अपनी आत्मकथा में वह लिखते हैं :

सन् 1957 ई. में प्रथम बार जब मैं विधानसभा का चुनाव लड़ने लगा तो मेरे पास कुछ भी पैसा नहीं था। श्रीमती जी के चार-पाँच चाँदी के गहने को बेचा गया जिससे पौने पाँच सौ रुपये मिले। इसी रुपये से जमानत राशि 125 रूपये जमा की गई। श्रीमती जी के गहने एक बार जो गए तो आज तक मैं उन्हें बनवा न सका। कभी- कभी इसका उलाहना सुनना पड़ता है। उस समय हमारे समाज में यह प्रवृत्ति चल रही थी कि पढ़े -लिखे लोगों की स्त्रियाँ यदि अशिक्षित हैं तो उन्हें छोड़कर दूसरी पढ़ी-लिखी लड़की से विवाह कर लेते रहे । इनमें अध्यापक नेता व दूसरे कर्मचारी भी थे। मैं समझता हूँ यह बहुत खराब बात थी। जब हम कुछ नहीं थे, अनपढ़ पत्नी ने मजदूरी करके घर का सारा काम करते हुए कष्ट उठाया। हमारे लोग पढ़-लिखकर ऊँचे स्थान पर पहुँच गये तो उस पत्नी का बहिष्कार कर देते हैं, इससे उनके मन पर क्या गुजरती होगी? यह विचारने की बात है। मेरा तो विश्वास है मैं जो कुछ हूँ समाज में जो कुछ सम्मान मिला है, वह मेरी पत्नी के ही त्याग तपस्या का परिणाम है।

ऐसे थे माता प्रसाद जी।

दलित लेखक जय प्रकाश कर्दम झोपड़ी से राजभवन के ब्लर्ब पर लिखते है कि … ‘झोपड़ी से राजभवन’ माता प्रसाद जी की राजनीतिक जीवन यात्रा का वृतांत भर नहीं है अपितु यह आत्मकथा अभाव और उत्पीड़न के शिकार दलित समाज की पीड़ा, दर्द, संघर्ष, स्वाभिमान और जिजीविषा की कहानी है। 

माता प्रसाद का रचना संसार

माता प्रसाद जी की अन्त्येष्टि की तस्वीर

माता प्रसाद का  एक  लेखक के तौर रचना संसार बहुत ही व्यापक रहा जिनमें उन्होंने काव्य खण्ड, नाटक, आत्मकथा के साथ ही अनेक किताबों का सम्पादन भी किया।

लोकगीतों में वेदना और विद्रोह के स्वर, हिंदी साहित्य में दलित काव्य धारा, भारत में दलित जागरण और उसके अग्रदूत, भारत में सामाजिक परिवर्तन के प्रेरणास्रोत (भाग-1), भारत में सामाजिक क्रांति के प्रेरणास्रोत (भाग-2), उत्तरांचल व उत्तर प्रदेश की दलित जातियों का दस्तावेज, दलित साहित्य में प्रमुख विधाएं, अन्तहीन बेड़ियां, स्वतंत्रता के बाद लखनऊ की, दलित-शोषित विभूतियां, उत्तर प्रदेश के संदर्भ में चमार जाति का इतिहास, प्रतिशोध, जातियों का जंजाल, दिल्ली की गद्दी पर खुसरो भंगी, राजनीतिक दलों में दलित एजेण्डा, एकलव्य (खण्ड काव्य), दलितों का दर्द. भीम शतक, घुटन, परिचय सतसई, अछूत का बेटा, महादानी राजा बलि (नाटक), धर्म के नाम पर धोखा, उत्तर भारत में दलित चेतना के प्रथम, अग्रदूत स्वामी अछूतानंद हरिहर, तड़प मुक्ति की, वीरांगना झलकारी बाई (नाटक), वीरांगना उदा देवी पासी (नाटक) उनकी आदि प्रमुख रचनायें हैं.

मैं उनके सम्पूर्ण जीवन को नहीं जानता हूँ लेकिन जो सुना, देखा और उनकी किताबों के माध्यम से उनको जाना, उसके विषय में मैंने यह बातें आपसे साझा की हैं। अंतिम बात यही है कि उनका जो भी था वह सार्वजनिक था और उस झोपड़ी में रहने वाले समाज का था उस समाज के लिए अंतिम समय तक समर्पित रहा। अब वह किताबों और लेखन के मध्यम से हमेशा ही उस समाज में मौजूद रहेंगे जिसकी बेहतरी का सपना वे हमेशा देखते रहे।


डॉ.अजय कुमार, शिमला स्थित भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में  फेलो रहे हैं। वह यहाँ पर समाज विज्ञानों में दलित अध्ययनों की निर्मिति परियोजना पर एक फ़ेलोशिप के तहत काम कर चुके हैं।


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