आजादी का भुला दिया गया नायक ‘मास्टर दा’


आज भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक ऐसे उदात्त क्रान्तिकारी और ‘इंडियन रिपब्लिकन आर्मी’ का अधिष्ठापन करने वाले नायक सूर्य सेन की पुण्यतिथि है, जिनसे हमारे समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग अनजान है। इसे हमारे समाज की भूल कहें या दुर्भाग्य कि हमने सदैव ही ऐसे वीरों और उनके द्वारा किए गए उदात्त कार्यों और योगदान को समय के साथ भुला दिया जिन्हें इतिहास में अमरता प्रदान हुई, जबकि उनके योगदान हमारे लिए अविस्मरणीय होने चाहिए थे। 

स्वतंत्रता की लड़ाई में ऐसी न जाने कितनी विभूतियां हुईं जिनके बारे में आज हमारा समाज नहीं जानता, मीडिया में भी उनके बारे में नहीं दिखाया जाता और समय के साथ उनके योगदान और स्मृति पर धूल जमने लगती है। सुदूर क्षेत्रों में भी न जाने कितने ऐसे प्रणेता और आज़ादी के अनुमोदक हुए जिन्होंने जनमानस में क्रांति की लहर को रक्त में संचारित किया, जिनके कारण आज़ादी की लड़ाई में भारतीय समाज का एकीकरण सम्भव हो सका, किन्तु वर्तमान में वे लोग इतिहास के धूल धूसरित पन्नों में दब कर रह गए, साधारण जनमानस उन्हें नहीं जानता।

ऐसे ही इतिहास की किताब पढ़ने के दौरान चट्टोग्राम (जो कि वर्तमान में बांग्लादेश का भाग है) के बारे में और अधिक जानने की इच्छा हुई और यूट्यूब पर जब मैं इस से सम्बंधित वीडियो देख रही थी तब मुझे एक सिनेमा की जानकारी मिली जो कि चट्टोग्राम विद्रोह पर ‘मानिनी चटर्जी’ द्वारा लिखित पुस्तक “Do and Die: The Chittagong Uprising  1930-34” पर आधारित है। 

वह फिल्म आशुतोष गोवारिकर के निर्देशन में 2010 में बनी, इस फ़िल्म का नाम था- ‘खेलें हम जी जान से। दीपिका पादुकोण, अभिषेक बच्चन, विशाखा सिंह सहित दर्जन भर कलाकारों ने इस फिल्म में काम किया है। इस फ़िल्म की कहानी शुरु होती है चट्टोग्राम विद्रोह के नायक सूर्य सेन यानी अभिषेक बच्चन से।

सूर्य सेन एक शिक्षक थे तथा अपने छात्रों में ‘मास्टर दा’ के नाम से भी लोकप्रिय थे।  सूर्य सेन वही नायक हैं जिन्होंने चट्टोग्राम को अंग्रेज़ों से मुक्त कराने के लिये 64 लोगों का एक दल बनाया था। इस दल का नेतृत्‍व सूर्य सेन ने किया था। सूर्य सेन के इसी दल का भाग हैं प्रीतिलता, कल्पना के साथ साथ कई कम उम्र लड़के।

भारत की आज़ादी के लिए जितने लोगों ने बलिदान दिया उन्हें गिना जाना या सबके नाम याद रख पाना भले कठिन प्रतीत होता हो पर सूर्य सेन या मास्टर दा (सुर्जो सेन), कल्पना दत्ता, प्रीतिलता वाडेकर जैसे लोगों के नाम जिन्होंने भारत की आज़ादी का नेतृत्व किया, वर्तमान में ये आज़ादी के नायक-नायिकाओं  की सूची में संभवत: ढूंढने पर ही मिल पाएं। 

फ़िल्म में हर पात्र ने बहुत अच्छा काम किया है। साथ ही उस दौर के सेट तथा साज-सज्जा और संवाद को सही ढंग से निभाया गया है,  हालाँकि फिल्म की कहानी जैसी मैंने पढ़ी थी उससे थोड़ी भिन्न है फ़िर भी मुझे यह फिल्म बेहतरीन लगी।

दीपिका, कल्पना दत्ता के किरदार में जँच रही हैं। बाकी कलाकारों ने भी उत्कृष्ट अभिनय का प्रदर्शन दिया है। मैं ‘प्रीतिलता’ की भूमिका से काफी प्रभावित हुई।

बोयालखाली (वर्तमान बांग्लादेश) में जन्मी तथा कलकत्ता के बेथ्यून कॉलेज से पढ़ी कल्पना दत्त इन्डियन रिपब्लिकन आर्मी की सदस्य थीं। कहते हैं वे क्रान्तिकारियों के लिए न केवल बम बनाती थीं बल्कि सूर्य सेन के नेतृत्व में उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध कई घटनाओं को भी अंजाम दिया। वे हथियार चलाने में भी निपुण थीं। कई बार पुलिस की गिरफ़्त में आ चुकी कल्पना को अंततोगत्वा वर्ष 1933 में अंतिम बार पुलिस ने गिरफ़्तार किया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।

मात्र 14-15 वर्ष के बच्चे भी इस क्रान्ति में न केवल सम्मिलित हुए अपितु वे सभी सुर्जो दा के संग प्रमुख भूमिकाओं के साझेदार थे। उन किशोर उम्र के बच्चों ने बड़े औदार्य का परिचय देते हुए खेल-खिलौनों से ख़ुद को दूर कर लिया और सीखने लगने मस्कट चलाने की कला। दिल में देश प्रेम का जज़्बा लिए ये किशोर बन बैठे एक ऐसी क्रांति का हिस्सा जिसकी परिणति थी केवल और केवल “शहादत”।



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