…जब हमारी खामोशी उन आवाजों से भी ज्यादा ताकतवर साबित होगी जिन्हें तुम आज दबा रहे हो!

कम्युनिज्म को नाकाम ठहराने की ये सारी कोशिशें मजदूर वर्ग के जबर्दस्त डर से पैदा होती हैं। दुनिया भर के क्रांतिकारियों ने रूस, चीन, कोरिया, वियतनाम, क्यूबा और तमाम दूसरे देशों में यह दिखा दिया है कि पूंजीवादी राज सुरक्षित नहीं है। मजदूर जीत सकते हैं।

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भारतीय समाज में सर्वव्याप्त जाति व्यवस्था के विरुध्द संघर्ष

उनके दलित वर्ग के एक सम्मेलन के दौरान दिये गये भाषण ने कोल्हापुर राय के स्थानीय शासक शाहू चतुर्थ को बहुत प्रभावित किया, जिनका आंबेडकर के साथ भोजन करना रूढ़िवादी समाज में हलचल मचा गया।

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सारी विपत्तियों का आविर्भाव निरक्षरता से हुआ: ज्योतिबा फुले

उनको विश्वास था कि छोटी जातियों के लोग सामाजिक समानता के लिए अवश्य संघर्ष करेंगे। ज्योतिबा की तरह और भी वयस्क लोग थे लेकिन ज्योतिबा के पास जो साहस और संकल्प था वह और किसी के पास नहीं था। 21 वर्ष की आयु में ज्योतिबा फुले ने महाराष्ट्र को एक नये ढंग का नेतृत्व दिया।

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पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया में श्रम और पूंजी के अंतर्संबंध

श्रम के स्थान पर पूँजी की मात्रा बढ़ाकर उत्पादन उसी सफलता से चलाया जा सकता है। हाथ से लिखने के स्थान पर कम्प्यूटर के प्रयोग द्वारा अधिक छपाई की जा सकती है। इसलिए श्रमिकों की संख्या कम करके कम्प्यूटर के रूप में पूँजी का अनुपात बढ़ाकर उत्पादन चलाया जा सकता हैं। अब रोबोट का इस्तेमाल भी विभिन्न सेवाओं और उत्पादन क्रियाओं मे़ किया जाने लगा है। आज यह उन्नत प्रौद्योगिकीय पूंजीवाद का मूल सिद्धांत है।

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विष्णुचंद्र शर्मा: अनुभव पकी आंखें और सृजन का निरंतर उत्साह ही उनके जीवन की प्रेरणा रहा

वह कहते थे कि अपनी शर्तों पर जीवन जीने के कारण मैं दिल्ली में एक गुमनाम साहित्यकार बनकर रह गया क्योंकि मैंने कभी किसी की चापलूसी नहीं की, सिर्फ अपने मन की करता था। वे घुमक्कड़ प्रवृत्ति के थे। उनका जन्म काशी में हुआ और आशियाना राजधानी दिल्ली में बनाया। उन्होंने अपनी शर्तों पर बनारस से दिल्ली तक का सफर तय किया था।

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‘संसार से भागे फिरते हो भगवान को तुम क्या पाओगे’: साहिर लुधियानवी की याद में

इत्तफ़ाक ही है कि साहिर का जन्म भी 8 मार्च को महिला दिवस के दिन ही हुआ। साहिर की शायरी और गीत सुनकर ऐसा लगता है मानो वो स्त्री मन को इस क़दर समझते थे कि गीत लिखते हुए वो ख़ुद औरत हुए जाते हों। एक सेक्स वर्कर से लेकर माँ से लेकर महबूबा तक उन्होंने हर औरत की दास्तां उनके नज़रिए से बयां की है।

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धर्मानुग्रही न्यायप्रणाली के दुष्प्रभाव

कुछ सीधे आपराधिक मामलों को छोड़ दें तो न्याय और अन्याय की पहचान का मामला बड़ा जटिल है। कई बार तो उलझन खड़ी हो जाती है। जो बात किसी खास संदर्भ में न्याय लगती है, संदर्भ बदलते ही वह अन्याय प्रतीत होने लगती है।

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चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले…

फ़ैज़ साहब के बारे में ये एक बात बहुत कम लोग जानते हैं। उसे प्रचारित भी नहीं किया गया। जब गांधीजी की हत्या हुई थी तब फ़ैज़ साहब “पाकिस्तान टाइम्स” के संपादक थे। गांधीजी की शवयात्रा में शरीक होने वे वहां से आए थे चार्टर्ड प्लेन से। और जो संपादकीय उन्होंने लिखा था, गांधीजी के व्यक्तित्व का बहुत उचित एतिहासिक मूल्यांकन करते हुए शायद ही कोई दूसरा संपादकीय लिखा गया होगा।

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बसंत पंचमी पर निराला और उनकी कविता की याद…

निराला की मौलिकता, प्रबल भावोद्वेग, लोकमानस के हृदय पटल पर छा जाने वाली जीवन्त व प्रभावी शैली, अद्भुत वाक्य विन्यास और उनमें अन्तनिहित गूढ़ अर्थ उन्हें भीड़ से अलग खड़ा करते हैं। बसंत पंचमी और निराला का सम्बन्ध बड़ा अद्भुत रहा और इस दिन हर साहित्यकार उनके सानिध्य की अपेक्षा रखता था। ऐसे ही किन्हीं क्षणों में निराला की काव्य रचना में यौवन का भावावेग दिखा।

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सब संस्कृतियां मेरे सरगम में विभोर हैं…

शमशेर में जहां नित-नूतनता है वहीं निरन्तर बढ़ाव या उठान भी। नित-नित परिष्कृत होती उनकी शैली अपने वैशिष्ट्य के चलते एक जीवित मिथक गढ़ती है। शमशेर स्थूल के आग्रही किन्हीं विशेष परिस्थितियों में अपवादवश भले रहे हों, मूलतः सूक्ष्म संवेगों की छटी हुई अनुभूतियों का खाका उनकी कविताओं में विद्यमान है।

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