‘संसार से भागे फिरते हो भगवान को तुम क्या पाओगे’: साहिर लुधियानवी की याद में


साहिर लुधियानवी, वो शायर जिसे किसी ने मुहब्बत का शायर कहा तो किसी ने बग़ावत का परचम। किसी ने उसकी नज़्मों को इंक़लाब की तहरीर माना तो किसी ने रूमानियत का झोंका लेकिन हर शक्ल में साहिर लुधियानवी का रंग अपने हमवक़्त शायरों से अलग रहा।

ज़ाती ज़िंदगी की तल्ख़ियों को ग़ज़ल-ओ-नज़्म में पिरोकर दुनिया के नाम कर देने वाले साहिर ने जब लिखना शुरू किया तब इक़बाल, फ़ैज़, फ़िराक आदि शायर अपनी बुलंदी पर थे, पर साहिर ने जो एक विशेष लहज़ा और रुख़ अपनाया, उससे न सिर्फ उन्होंने अपनी अलग जगह बना ली बल्कि वे शायरी की दुनिया पर छा गये। साहिर ने लिखा–

दुनिया ने तजुरबात ओ हवादिस की शक्ल में
जो कुछ मुझे दिया है, लौटा रहा हूँ मैं

साहिर लुधियानवी के पिता चौधरी फजल मोहम्मद का जीवन अय्याशी भरा था। उन्हें पैसे रुपए की कोई कमी नहीं थी। औरत को वो सिर्फ इस्तेमाल किया करते थे। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने अपने जीवन में दस से ज्यादा शादियां कीं। आखिर में उनकी इन्हीं आदतों से नाराज होकर साहिर लुधियानवी की मां ने उन्हें साथ लेकर घर छोड़ दिया। साहिर उस वक्त बहुत छोटे थे। साहिर के अब्बा ने अपनी बीवी से इस बात पर मुकदमा लड़ा कि बेटे को रखने का अधिकार उन्हें दिया जाए। चौधरी फजल मोहम्मद वो मुकदमा भी हार गए। बाद में उन्होंने अपने गुर्गों से धमकियां दिलवाईं कि अगर साहिर को उन्हें नहीं सौंपा गया तो वो उसका कत्ल करा देंगे लेकिन इन धमकियों से बेखौफ साहिर की मां अपनी जिद पर अड़ी रही। उन्होंने अपने बेटे को साथ रखा। साहिर इसी वजह से अपनी मां से बेइंतहा प्यार करते थे।

साहिर के घर परिवार में शेरो-शायरी का दूर-दूर तक कोई चलन नहीं था लेकिन साहिर को शायरी की समझ दी फैयाज हरयाणवी ने। वो खुद भी बड़े शायर थे। साहिर अपने दोस्तों के बीच इसीलिए लोकप्रिय थे क्योंकि उन्हें तमाम बड़े शायरों के कलाम याद थे जिसमें मीर, मिर्जा गालिब समेत कई बड़े शायर थे। साहिर ने 15-16 साल की उम्र में खुद भी शायरी कहनी शुरू कर दी थी। उन दिनों ‘कीर्ति लहर’ नाम की एक पत्रिका प्रकाशित होती थी जिसे अंग्रेजों के डर से चोरी छुपे प्रकाशित किया जाता था। साहिर की तमाम गजलें और नज्में उस किताब में प्रकाशित होती थीं। साहिर लुधियानवी को उनके कॉलेज में जबरदस्त तौर पर पसंद किया जाने लगा था। उनके प्रेम प्रसंग भी काफी चर्चा में रहते थे। उनकी लोकप्रिय रचना ‘ताजमहल’ ने उन्हें जबरदस्त लोकप्रियता दिला दी थी।

इन सारी बातों के बावजूद उन्हें कॉलेज से निकाला गया। कहा जाता है कि कॉलेज से निकाले जाने के पीछे उनके प्रेम प्रसंग ही थे। सन् 1939 में जब वे ‘गवर्नमेंट कॉलेज’ लुधियाना में पढ़ते थे तब प्रेम चौधरी नामक लड़की से उनका प्रेम हुआ जो कि असफल रहा| प्रेम के परिवार वालों को इस पर आपत्ति थी क्योंकि साहिर मुस्लिम थे। बाद में उसके पिता के कहने पर उन्हें कॉलेज से निकाल दिया गया।

इसके बाद साहिर ने लाहौर के दयाल सिंह कॉलेज में दाखिला लिया था। इसके बाद लाहौर के एक और कॉलेज में गए लेकिन तब तक शायरी दिलो-दिमाग में इतना घर कर गई थी कि वो उसी में डूबे रहते थे। लाहौर में रहने के दिनों में वे अपनी शेर-ओ-शायरी के लिए प्रख्यात हो गए थे और मुशायरों में शिरकत करते थे।

हमीद अख़्तर ने अपनी किताब ‘आशनाइयां क्या क्या’ में साहिर लुधियानवी के बारे में लिखा है:

पाकिस्तान की स्थापना के बाद मैं शरणार्थी कैंप के ज़रिए और साहिर हवाई जहाज़ से लाहौर पहुँचे। वह जून 1948 तक लाहौर में रहे। हमने एबट रोड पर एक मकान अलॉट कराया और साहिर, अम्मी और मैं एक साथ रहने लगे। मैं लगभग तीन महीने तक कैंप में रहा। मैं नवंबर में लाहौर पहुँचा और साहिर सितंबर 1947 में पहुँचे थे। साहिर इस पूरे समय में उखड़े-उखड़े से रहे। मेरे आने से उन्हें कुछ हिम्मत तो मिली, लेकिन वह पहले से कहीं अधिक असुरक्षित लग रहे थे। ‘सवेरा’ के संपादन से महीने के 40-50 रुपये मिल जाते थे, लेकिन यह पर्याप्त नहीं थे और इस आमदनी में कुछ इज़ाफ़ा होने के भी कोई आसार नहीं दिख रहे थे।

साहिर लुधियानवी अपनी आत्मकथा ‘मैं साहिर हूँ’ में लिखते हैं:

“मुझे ख़बर मिली कि हमीद को कराची में गिरफ़्तार कर लिया गया है। अब मैं ख़ुद को असुरक्षित और अकेला महसूस कर रहा था। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। एक दिन, जून 1948 की चिलचिलाती गर्मी में, शर्लक होम्स (मफ़लर, ओवरकोट, काले चश्मे और एक अंग्रेज़ी टोपी पहने हुए) के वेश में, मैं भारत आने के लिए निकल पड़ा।”

सूरज इतना गर्म था कि चील तक ने अंडे छोड़ दिए थे। चोटी से एड़ी तक पसीना बह रहा था, मैं गर्मी की वजह से साँस नहीं ले पा रहा था। ज़ाहिर सी बात है इतनी गर्मी में ओवरकोट में लिपटा, एक छोटा सा सूटकेस लिए तांगे पर बैठा, मैं स्पष्ट रूप से दूसरों को बहुत अजीब लग रहा था। मैं इतना सहमा और घबराया हुआ था कि मैं डर के मारे बार-बार इधर-उधर देख रहा था। ज़ाहिर तौर पर, मैं अपनी तरफ़ से शांत और लापरवाह रहने की बहुत कोशिश कर रहा था।

साहिर लिखते हैं- “ये मेरी ख़ुशक़िस्मती थी कि उन दिनों भारत और पाकिस्तान के बीच यात्रा के लिए वीज़ा और पासपोर्ट की ज़रूरत नहीं थी इसलिए मैं बहुत ही ख़ामोशी से लाहौर के वाल्टन हवाई अड्डे से दिल्ली के लिए रवाना हो गया। एक महीने बाद जब हमीद अख़्तर लाहौर वापस लौटे, तो घर ख़ाली देखकर हैरान रह गए। मैं और मेरी मां वहां नहीं थे, जो उनके अनुसार मकान को घर का दर्जा दे चुके थे और सभी दोस्तों की मेहमान नवाज़ी करते थे।”

1943 में ‘तल्ख़ियां’ नाम से उनकी पहली शायरी की किताब प्रकाशित हुई। ‘तल्ख़ियां’ से साहिर को एक नई पहचान मिली। इसके बाद साहिर ‘अदब़-ए-लतीफ़’, ‘शाहकार’ और ‘सवेरा’ के संपादक बने। साहिर ‘प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन’ से जुड़े थे। ‘सवेरा’ में छपे कुछ लेखों से पाकिस्तान सरकार नाराज़ हो गई और साहिर के ख़िलाफ़ वारंट जारी कर दिया दिया। अमृता प्रीतम इनकी प्रशंसक थीं। अमृता प्रीतम ने अपनी किताब ‘रसीदी टिकट‘ में अपने इश्क़ को तफ़्सील से बयां किया है।

अमृता प्रीतम पंजाबी के सबसे लोकप्रिय लेखकों में से एक थीं। पंजाब के गुजराँवाला जिले में पैदा हुईं बचपन बीता लाहौर में, शिक्षा भी वहीं हुई। किशोरावस्था से लिखना शुरू किया: कविता, कहानी और निबंध। अमृता प्रीतम को पंजाबी भाषा की पहली कवयित्री माना जाता है। उन्होंने कुल मिलाकर लगभग 100 पुस्तकें लिखी हैं जिनमें उनकी चर्चित आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ भी शामिल है। बंटवारे के दौरान अमृता प्रीतम गर्भवती थीं और उन्हें सब छोड़कर 1947 में लाहौर से भारत आना पड़ा। उस समय सरहद पर हर ओर बर्बादी के मंज़र था। तब ट्रेन से लाहौर से देहरादून जाते हुए उन्होंने काग़ज़ के टुकड़े पर एक कविता लिखी।

उन्होंने उन तमाम औरतों का दर्द बयान किया था जो बंटवारे की हिंसा में मारी गईं, जिनका बलात्कार हुआ। उनके बच्चे उनकी आँखों के सामने क़त्ल कर दिए गए या उन्होंने बचने के लिए कुँओं में कूदकर जान देना बेहतर समझा। बरसों बाद भी पाकिस्तान में वारिस शाह की दरगाह पर उर्स पर अमृता प्रीतम की ये कविता गाई जाती रही।

साहिर और अमृता दोनों अलहदा शख़्सियत के इंसान थे। दोनों अदब के उस्ताद थे पर जहां साहिर ने अमृता से अपना इश्क़ दुनिया के सामने ज़ाहिर नहीं किया, वहीं अमृता ने कुछ भी न छुपाते हुए ईमानदारी और हिम्मत दिखाई। उन्होंने बेबाकी से साहिर के प्रति अपने इश्क़ को कुछ इस तरह ज़ाहिर किया:

‘साहिर घंटों बैठा रहता और बस सिगरेटें फूंकता रहता और कुछ न कहता। उसके जाने के बाद में उन बचे हुए सिगरेटों के टुकड़े संभालकर रख लेती, फिर अकेले में पीती और साहिर के हाथ और होंठ महसूस करती। जब इमरोज़ के बच्चे की मां बनी तो बच्चे के साहिर के जैसे होने की ख़्वाहिश की।

एक बार किसी इंटरव्यू में उन्होंने कहा भी कि:

अगर इमरोज़ मेरे सर पर छत है तो साहिर मेरा आसमां।

अमृता और साहिर का रिश्ता ताउम्र चला लेकिन किसी अंजाम तक न पहुंचा। इसी बीच अमृता की ज़िंदगी में चित्रकार इमरोज़ आए। दोनों ताउम्र साथ एक छत के नीचे रहे लेकिन समाज के कायदों के अनुसार कभी शादी नहीं की। इमरोज़ अमृता से कहा करते थे- तू ही मेरा समाज है।

और ये भी अजीब रिश्ता था जहाँ इमरोज़ भी साहिर को लेकर अमृता का एहसास जानते थे। साहिर ने शादी नहीं की, पर प्यार के एहसास को उन्होंने अपने नग़मों में कुछ इस तरह पेश किया कि लोग झूम उठते।

जब साहिर दिल्ली पहुँचे तो उन्हें प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका ‘शाहराह’ के संपादन का काम सौंप दिया गया। प्रकाश पंडित ने इस पत्रिका में उनके सहायक संपादक के रूप में काम किया। यहां उन्होंने इस पत्रिका के दो अंक प्रकाशित किए। इसी दौरान उन्होंने सरदार ग़ौर बख़्श की पत्रिका ‘प्रीत लड़ी’ का भी संपादन किया।

दिल्ली में उनकी मुलाक़ात जोश मलीहाबादी, कुंवर महेंद्र सिंह बेदी, अर्श मुलसियानी, बलवंत सिंह, बिस्मल सईदी, जगन्नाथ आज़ाद और कश्मीरी लाल ज़ाकिर से हुई, लेकिन कुछ ही महीने बाद मई 1949 में वे बॉम्बे चले गए, जहां एक उज्जवल भविष्य उनका इंतज़ार कर रहा था। 1949 में फ़िल्म ‘आज़ादी की राह पर’ से फ़िल्मों में उन्होंने कार्य करना प्रारम्भ किया लेकिन यह फ़िल्म असफल रही। साहिर को 1951 में आई फ़िल्म “नौजवान” के गीत “ठंडी हवाएं लहरा के आएं …” से प्रसिद्धि मिली। इस फ़िल्म के संगीतकार एसडी बर्मन थे। इसके बाद गुरुदत्त के निर्देशन में बनी पहली फ़िल्म “बाज़ी” ने उन्हें गीतकार के रूप में प्रतिष्ठा दिलाई जिसका गीत ‘तक़दीर से बिगड़ी हुई तदबीर बना ले’ बेहद लोकप्रिय हुआ। इस फ़िल्म में भी संगीत बर्मन दा का ही था और इस फ़िल्म के सभी गीत मशहूर हुए।

साहिर ने सबसे अधिक काम संगीतकार एन दत्ता के साथ किया। दत्ता साहब, साहिर के जबरदस्त प्रशंसक थे। 1955 में आई ‘मिलाप’ के बाद ‘मेरिन ड्राइव’, ‘लाइट हाउस’, ‘भाई बहन’,’ साधना’, ‘धूल का फूल’, ‘धरम पुत्र’ और ‘दिल्ली का दादा’ जैसी फ़िल्मों में उन्होंने गीत लिखे। उन्होंने ‘हमराज’, ‘वक़्त’, ‘धूल का फूल’, ‘दाग़’, ‘बहू बेग़म’, ‘आदमी और इंसान’, ‘धुंध’, ‘प्यासा’ सहित अनेक फ़िल्मों में यादग़ार गीत लिखे।

साहिर की लोकप्रियता काफ़ी थी और वे अपने गीत के लिए संगीतकारों को मिलने वाले पारिश्रमिक से एक रुपया अधिक लेते थे। इसके साथ ही रेडियो सीलोन पर होने वाली घोषणाओं में गीतकारों का नाम भी दिए जाने की मांग साहिर ने की, जिसे पूरा किया गया। इससे पहले किसी गाने की सफलता का पूरा श्रेय संगीतकार और गायक को ही मिलता था। साहिर वे पहले गीतकार थे जिन्हें अपने गानों के लिए रॉयल्टी मिलती थी।

साहिर ने अपने बचपन में माँ-बाप के बीच झगड़े देखे। उनके पिता पर माँ के साथ मारपीट और दुर्व्यवहार का इल्ज़ाम लगा और मुक़दमा भी चला। इन सब घटनाओं का असर साहिर की तमाम रचनाओं में देखने को मिलता है जहां औरत के हक़ की बात है, उसके दिल की बात है। ये नज़रिया सिर्फ़ ज़ुल्म और दुख दर्द वाले गीतों में नहीं, साहिर प्रेम के कई अन्य रूपों में भी उतारते हैं।

अक्सर जहाँ बिछड़ जाने पर औरत पर तोहमत भरे या बेवफ़ाई वाले गीत सुनने को मिलते थे, वहीं साहिर का हीरो बिछड़ चुकी प्रियतमा के लिए कुछ यूं गाता है –

तार्रुफ़ रोग हो जाये तो उसको भूलना बेहतर,
ताल्लुक बोझ बन जाये तो उसको तोड़ना अच्छा
वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना ना हो मुमकिन,
उसे इक ख़ूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों

निजी ज़िंदगी की बात करें तो कहते हैं कि साहिर एक उलझनदार तबीयत के मालिक़ थे- हज़ारों गुण थे तो कुछ पेचीदगियां भी थीं, लेकिन निजी जीवन की बहस से परे अगर एक शायर और गीतकार की बात करें तो साहिर फ़ेमिनिस्ट लेखकों की फ़ेहरिस्त में ज़रूर शुमार किए जा सकते हैं।

इत्तफ़ाक ही है कि साहिर का जन्म भी 8 मार्च को महिला दिवस के दिन ही हुआ। साहिर की शायरी और गीत सुनकर ऐसा लगता है मानो वो स्त्री मन को इस क़दर समझते थे कि गीत लिखते हुए वो ख़ुद औरत हुए जाते हों। एक सेक्स वर्कर से लेकर माँ से लेकर महबूबा तक उन्होंने हर औरत की दास्तां उनके नज़रिए से बयां की है। ये साहिर ही थे जो फ़िल्म चित्रलेखा में एक नर्तकी/सेक्स वर्कर (मीना कुमारी) और एक योगी (अशोक कुमार) के बीच के नैतिक द्वंद में नर्तकी का साथ देते हुए ये लिखने की ज़ुर्रत कर सकते थे।

“संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पाओगे / इस लोक को भी अपना न सके, उस लोक में भी पछताओगे।”

इतना ही नहीं, नर्तकी योगी को ललकारते हुए ये भी पूछती है…

ये भोग भी एक तपस्या है, तुम त्याग के मारे क्या जानो / अपमान रचयिता का होगा, रचना को अगर ठुकराओगे!

ये भी साहिर ही थे कि फ़िल्म ‘प्यासा’ में एक सेक्स वर्कर (वहीदा रहमान) के लिए वैष्णव भजन लिख डाला- आज सजन मोहे अंग लगा लो…

गीतों और शायरी में औरतों को लेकर जो संवेदनशीलता दिखती है, उसका रिश्ता साहिर के माज़ी या अतीत से भी जोड़ा जा सकता है। बचपन में साहिर को उनकी माँ ने बाप के साए से दूर, मज़बूती और हिम्मत से अकेले, मुश्किल हालात में पाला। इसकी झलक 1978 की फ़िल्म त्रिशूल के उस गाने में देखने को मिलती है जहाँ वहीदा रहमान मज़दूरी कर अकेले अपने बेटे (अमिताभ) को पालती हैं. लेकिन वो जो गीत गाती है उसमें कमज़ोरी नहीं, आक्रोश और हिम्मत है।

मैं तुम्हें रहम के साए में न पलने दूंगी, ज़िंदगी की कड़ी धूप में जलने दूंगी / ताकि तप के तू फौलाद बने, माँ की औलाद बने

हिन्दी फ़िल्मों के लिए लिखे उनके गानों में भी उनका इमोशनल और सेंसिबल व्यक्तित्व झलकता है। उनके गीतों में संजीदगी कुछ इस क़दर झलकती है जैसे ये उनके जीवन से जुड़ी हो। उनका नाम जीवन के विषाद, प्रेम में आत्मिकता की जग़ह भौतिकता तथा सियासी खेलों की वहशत के गीतकार और शायरों में शुमार है। निराशा, दर्द, विसंगतियों और तल्ख़ियों के बीच प्रेम, समर्पण, रूमानियत से भरी शायरी करने वाले साहिर लुधियानवी के लिखे नग़मे दिल को छू जाते हैं। आज दशकों के बाद भी उनके गीत उतने ही ताज़ा लगते हैं, जितने कि जब लिखे गए थे।



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