तिर्यक आसन: परिवार और सामुदायिकता में लगा परजीवी स्टेट का कीड़ा


4G संस्कृति की दुकानों पर बढ़ती भीड़ से सामुदायिकता की अंतिम कड़ी परिवार का अस्तित्व संकट में है। महानगरों में मोबाइल या टीवी की स्क्रीन आँख और ईयरफोन कान बनता जा रहा है। सिर्फ तकनीकी की दुनिया में रहने वालों को स्क्रीन ने जो दिखा दिया और ईयरफोन ने जो सुना दिया, वही सच है। महानगरों की 4G संस्कृति का दायरा छोटे शहरों तक पहुँच चुका है।

नेता कहते हैं- ‘ये देश युवाओं का देश है। देश का भविष्य युवाओं के कंधे पर हैं।’ ध्यान से देखा जाए तो नेता जिन कंधों पर देश का भविष्य होने का दावा करते हैं, उन कंधों पर मोबाइल टावर लउकेगा। कंधों पर मोबाइल टावर लादे, देश का भविष्य अकेलेपन का अंडमान भोग रहा है। स्क्रिन को आँख और ईयरफोन को कान बना लेने वाले ये नहीं जानते कि उनके कंधे पर सामुदायिकता की बची-खुची ताकत को चट कर जाने वाली दीमक लग चुकी है।

वृहद पैमाने पर सामुदायिकता को चट कर जाने के बाद ‘स्टेट’ नामक परजीवी कीड़ा सामुदायिकता की सबसे छोटी इकाई परिवार में लग चुका है। एकल परिवारों के निर्माण के जाल में फाँसने के बाद परिवार के सदस्यों को भी अकेला बनाकर परजीवी कीड़े ने अलगाववाद को उसके अंतिम लक्ष्य तक पहुँचा दिया है, जहाँ अकेलेपन का अवसाद जीवन को खोखला कर रहा है। एक ही परिवार के सदस्य संदेशों से बात कर रहे हैं। कॉलिंग फ्री होने के बाद भी वे एक-दूसरे की आवाज नहीं सुनना चाहते! अलगाववाद को परिवार तक पहुँचाने का रास्ता बनाने में हमने भी परजीवी कीड़े की मदद की है। अपनी ही दो संतानों में विविध प्रकार से भेद करते हैं। रोजगार और बेरोजगार के बीच समाज भेद करता है। बेरोजगार को अपने परिवार में ही हेय दृष्टि से देखा जाता है। ताने मारे जाते हैं।

एक नेता ने बताया- ‘जन्मदिन से लेकर दाह संस्कार तक जनता हम (जनप्रतिनिधियों) पर निर्भर हो चुकी है।’ नेता का कहना सच है। जनप्रतिनिधियों पर जनता की निर्भरता ने स्टेट के अलगाव, लूट, मुनाफे, शोषण के जाल को और मजबूत बना दिया है। स्टेट चिंतित था, यदि जनता जाति-धर्म, ऊँच-नीच, पितृसत्ता आदि के अलगाव से मुक्त होकर फिर से सामुदायिकता को अपनी सरकार मान बैठी तो स्टेट के चाबुक से चलने वाली जनप्रतिनिधियों की सरकार के अस्तित्व पर संकट उत्पन्न हो जाएगा। स्टेट का जाल जनता की आँखों के सामने आ जाएगा। जनता ‘देश आपके पैसों से ही चल रहा है’ का सच समझ जाएगी- देश नहीं, हमारी चेतना स्टेट के आविष्कारों के इशारे पर नाच रही है।

स्टेट को जब लगता है कि जन की रुचि सत्ता में कम हो रही है, सत्ता के प्रति ऊब बढ़ रही है, वो रुचि बढ़ाने वाला स्टंट दिखाता है। सत्ता परिवर्तन के लिए ही सही, स्टेट मतदान में रुचि बरकार रखना चाहता है। सत्ता से ऊबे लोगों को भी मतदान की कतार में खड़ा करने के लिए नोटा की व्यवस्था की जाती है। सत्ता से ऊबा व्यक्ति किसी को मत नहीं देने के लिए भी मतदान करने शौक से जाता है। वो नोटा का बटन दबाकर अपनी रुचि साबित करता है- मुझे पसंद है, लेकिन इनमें से कोई नहीं। उसका वोट भले ही किसी के खाते में न जाए, पर उसकी अँगुली पर मतदान का सबूत देने वाली स्याही लगाई जाती है। किसी को वोट न देकर भी वो मतदान के प्रतिशत को बढ़ाता है।

‘ट्रांसफर ऑफ़ पावर’ नामक लगान वसूली के सिस्टम के जनतांत्रिक रूप में आने के बाद उत्पादकों का उपहास करने के लिए भव्य समारोह आयोजित किए जाते रहे हैं। राष्ट्रगान की धुन के साथ लाल किले से भी उत्पादकों के स्वावलम्बन-आत्मनिर्भरता-सामुदायिकता को खरीदने के लिए ‘पैकेज’ घोषित किए जाते हैं। मस्तिष्क चौंधिया देने वाले आकर्षक पैकेज अपने पैरों पर खड़ा होने का अर्थ बदल देता है। परजीवियों के मुनाफे और प्रकृति के नाश के लिए अपनी स्वतंत्रता को गिरवी रखना, अपनी बोली लगाना, खुद को बेचना अपने पैरों पर खड़ा होने का पर्याय बन जाता है। 

परजीवी अपने मुनाफे के सिस्टम के अमरत्व को बचाए रखने के लिए नकली घटनाओं को ‘स्पॉन्सर’ करते हैं। खुद को बेचने की मजबूरी के मूल कारण और उसके समाधान से दूरी बनाए रखने के लिए विभिन्न प्रकार की नकली चुनौतियों और माँगों का ‘उत्पादन’ करते हैं। अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से नकली चुनौतियों को असली के रूप में ‘प्रचारित-प्रसारित’ करते हैं जिससे प्रायोजित चुनौतियों का समाधान प्राथमिकता बन जाता है। 

‘माँग’ सभी प्रकार की सत्ताओं का मूल तत्व है। ईश्वरीय सत्ता (जहाँ माँग पूजा, तपस्या, मनौती के रूप में होती है) से लेकर राजनीतिक और परिवार की पितृसत्ता, माँग पर टिकी है। माँग की बैशाखी टिकाए रखने के लिए सभी प्रकार की सत्ताओं के जनक पूँजी के पुजारी अभावों का निरंतर उत्पादन करते रहते हैं।

षड्यंत्रों के विभिन्न जनतांत्रिक पैकेज की चकाचौंध के अँधेरे में परजीवियों ने जन के पैरों में परतंत्रता की जंजीर पहना दी है। जंजीर को अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से और मजबूत करते हैं। जंजीर तोड़ने की चाभी जन के हाथ में ही है। फिर भी चमत्कार के पैकेज की पूजा करने वाला जन सोचता है- कोई अवतार आए और जंजीर तोड़ दे।

शादी के दौरान स्मार्टफोन और लैपटॉप पर व्यस्त वधू, साभार The Tribune

अपने प्रतिनिधियों की सरकार और अपने आविष्कारों पर जनता की निर्भरता देख स्टेट चिंतामुक्त हो गया है। हमारी चेतना पर वो तमाम पट्टियाँ बाँध चुका है। एक पट्टी खुलती है, तब तक राजनीति और धर्म के प्रतिनिधियों के सहयोग से नई पट्टी बाँध देता है। चिंतामुक्त स्टेट खाए जा रहा है, खाए जा रहा है, जनता का गुण गाए जा रहा है, गाए जा रहा है। सामुदायिकता को खा-खाकर स्टेट के पेट का विस्तार पृथ्वी की सरहद को पार चुका है।

सामुदायिकता के दम पर सरकार पर न्यूनतम निर्भरता रखने वाला, न्यूनतम में भी अधिकतम खुश रहने वाला और पूँजी के डंक से मुक्त आदिवासी और अधिकतम आत्मनिर्भर प्राचीन समुदाय स्टेट की आँख में निरंतर चुभने वाले काँटें हैं। इन काँटों की सामुदायिक आत्मनिर्भरता को जड़ से उखाड़ने के लिए स्टेट सरकारी षड्यंत्रों के माध्यम से निरंतर प्रयासरत है।आदिवासी और अधिकतम आत्मनिर्भर प्राचीन समुदायों को सभ्य बनाने की आड़ में पूँजी के डंक से बिलबिला रहे, कागजी आँकड़ों के अनुसार विकसित देश और उनके पिट्ठू, सामुदायिकता की ताकत को मिटाने के लिए विकास का खूनी खेल लगातार खेलते आए हैं।

ये स्टेट नामक परजीवी कीड़े और उसके सहयोगियों की सफलता है, जिसने अपने राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक सहयोगियों के माध्यम से अलगाववाद को सिर्फ अलग राष्ट्र या धर्म आधारित राष्ट्र की माँग तक ही समझने दिया है। कीड़े की वफादार ढाल बनने के लिए राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक सहयोगियों ने ‘बाँटों और राज करो’ को खुद पर आरोपित कर लिया है। उन्होंने ‘अनेकता में एकता’ का आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया है। कमाल ये भी है कि ‘हम सब एक हैं’ के भाषणों में इस उदाहरण की संदर्भ और प्रसंग सहित व्याख्या नहीं की जाती।    

सामुदायिकता के सभी तर्क एक प्रश्न के आगे ध्वस्त हो जाते हैं- इसके बिना रह लोगे? परजीवी कीड़े की सफलता का मंत्र यही प्रश्न है। उसकी पंचलाइन भी है। वो त्यागी है, इसलिए अपनी पंचलाइन का प्रचार नहीं करता। दूसरों को कुछ और सुनाता है, मन में किसी और के नाम का मनका फेरता है। वो लत लगा देता है। लत लगाने के बाद अपने बनाए एप्प मानवों के माध्यम से सर्वे करता है- इसके बिना रह लोगे?

अति किसी भी प्रकार से उचित नहीं होती। ‘अति’ और ‘कुछ भी नहीं’ के बीच संतुलन होना चाहिए। जीवन आसान बनाने वाले आविष्कारों को स्टेट अपने षड्यंत्रों के लिए प्रयोग करता है। स्टेट का सबसे घातक आविष्कार पूँजी है जो किसी को भी लालची, चोर, बेईमान, भ्रष्टाचारी बना देती है। पूँजी के अतिरिक्त स्टेट अपनी सत्ता की अमरता और अखंडता के लिए दूसरों के आविष्कारों का दुरुपयोग करता है। उत्पादन क्षमता शून्य होने के कारण ही वो परजीवी है। 

जीवन आसान बनाने वाली खोजों का दुरुपयोग कर स्टेट नामक परजीवी कीड़े ने हमसे कितनी अतियाँ करायी हैं, अतियों के माध्यम से हमसे क्या-क्या छीना है, इसकी गणना ‘ऑडिटर’ नहीं कर सकते। जो छीना है, उसकी गणना प्रकृति कर रही है।
स्क्रीन को आँख और ईयरफोन को कान समझने वाले एक साहब मोबाइल में खोए हुए चले जा रहे थे। तभी अचानक उन्हें किसी ने लँगड़ी मार दी। साहब गिरते-गिरते बचे। सँभले तो लगे चीखने- किसने धक्का मारा मुझे? कौन है वो बदतमीज जो देखकर नहीं चलता? साहब की चीख सुनकर भीड़ इकट्ठा हो गई, पर कोई नहीं बता पाया कि साहब को लँगड़ी किसने मारी। बताते कैसे? इकट्ठा हुई भीड़ की आँख भी स्क्रीन और कान ईयरफोन थे। ऐसी भीड़ एप के माध्यम से सर्वे करने वालों के बड़े काम आती है। भीड़ ऐसे ही एक सर्वे में पूछे गए सड़क पर चलते समय बरती जाने वाली सावधानियों से संबंधित प्रश्नों का जवाब दे रही थी। इसलिए वो नहीं देख पाई कि साहब को लँगड़ी किसने मारी। 

जहाँ साहब को लँगड़ी लगी, वहीं एक लड़का मूँगफली बेच रहा था। लड़के ने जब देखा कि साहब का तांडव न्यूज चैनल के लिए नई पौराणिक कथा को जन्म देने वाले स्तर पर पहुँच रहा है, तो वो साहब के पास लँगड़ी मारने वाले का नाम बताने गया- साहब गलती उस पत्थर की है जो गलती से आपके रास्ते में आ गया था। क्षमा कर दीजिए उसे। मैं उसे समझा दूँगा कि देख कर चला करे। लड़के की बात सुन साहब का गुस्सा थोड़ा कम हुआ। उन्होंने कहा- हाँ, समझा देना उसे। अगली बार उसने ऐसी गलती की तो मार के फोड़ दूँगा!

प्राचीन समय में जहाँ जिराफ रहते थे, उस क्षेत्र में पेड़ों की ऊँचाई अधिक थी। पेड़ों से भोजन प्राप्त करने की कोशिश में जिराफ अपनी गर्दन उचकाते थे। पीढ़ी-दर-पीढ़ी गर्दन उचकाते-उचकाते सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट की थ्योरी के अनुसार जिराफ लम्बी गर्दन वाले हो गए। आदमी की स्मार्ट फोन प्रजाति जिस तरह बैठे हुए, पैदल चलते हुए गर्दन झुकाकर स्मार्टफोन पर अँगूठा चला रही है, सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट की थ्योरी के अनुसार भविष्य का आदमी बिना गर्दन का हो सकता है। हाथ की दसों अँगुलियों में सिर्फ अँगूठा सक्रिय अंग होगा। बाकी नौ अंगुलिया अवशेषी अंग में गिनी जाएंगी।

इधर एक सर हैं। वे बच्चों को अनुशासन में रखने वाली क्लास लेने के लिए पचास-पचास कोस दूर तक प्रसिद्ध हैं। वे बताते हैं- क्लास में जिस बच्चे को डाँट देता हूँ, उसकी गर्दन क्लास खत्म होने तक झुकी रहती है। सर शायद स्मार्ट शिष्यों के बारे में नहीं जानते। उनकी गर्दन झुकने का कारण स्मार्टफोन भी हो सकता है। बेंच की आड़ में स्मार्टफोन सर जी के अनुशासन का मान रख लेता है।

एक नया भक्त मंदिर जाता। मंदिर में प्रतिमा के सामने आँखें बंद कर, हाथ जोड़ खड़ा होता और आरती पढ़ता। आरती वो मन में ही पढ़ता था पर भक्ति की प्रबलता के कारण उसके होंठ हिलने लगते। मंदिर के पुजारी, जो पुराने हो चुके थे, वे जानते थे- आँख बंद कर ये आरती में लगने वाले समय के बारे में सोच रहा होगा- इतनी देर में तो आरती खत्म हो जाती होगी? अब खोल दूँ आँखें? इसे आरती याद नहीं, तो होंठ हिला रहा है। 

कुछ दिन बाद उस नए भक्त को आत्मग्लानि हुई। उसे ‘टाइप्ड’ घोषित किए जाने का खतरा महसूस हुआ। तो उसका ह्रदय परिवर्तन हुआ। हृदय परिवर्तन के बाद वह मंदिर के एक कोने में ध्यान की मुद्रा में घंटों बैठा रहता। बैठने की अवस्था और जगह ऐसी थी, जहाँ से मंदिर के बाहर से सिर्फ उसकी पीठ दिखाई पड़ती। मंदिर के सामने शीश झुकाकर गुजरने वाले भक्त उसे देखते तो सोचते- इनकी भगवान के साथ लगन लग गई है। मंदिर के अंदर जाने वाले भक्त सोचते- जल्दी से इसके मोबाइल की बैटरी खत्म हो और भगवान को इस स्मार्ट भक्त से मुक्ति मिले।  

संसद में देश की आरती राष्ट्रगान को मन में गाना हो तो वहाँ भी कई स्मार्ट राष्ट्रभक्त मिलेंगे। देशप्रेम की प्रबलता से उनके होंठ भी हिलने लगेंगे। देश की आरती राष्ट्रगान को सिनेमाहाल में फिल्म की आरती बना देने वाले राष्ट्रभक्तों की स्मार्टनेस को पकड़ना आसान नहीं है। वे सबूत ही नहीं छोड़ते हैं। सबूतों से बचने के लिए ताबूत छोड़ते हैं। इनका भी ह्रदय परिवर्तन हुआ है। पहले ताबूत भी नहीं छोड़ते थे।

ऐसा माना जाता है कि एक हजार एक कहने में एक सेकेंड लगता है। वे एक हजार बावन तक गिन देंगे। बावनवें सेकेंड पर आँख खुलेगी। होंठ हिलना बंद हो जाएंगे। जहाँ अनेकता में एकता का ऐसा प्रबल भाव हो, वहाँ से सबूत प्राप्त करने में मानहानि के मुकदमे का सामना करना पड़ सकता है। संसद में कई ऐसे राष्ट्रभक्त भी हैं, जो मानहानि की जगह कॉपीराइट के उल्लंघन का मुकदमा दर्ज करा सकते हैं- इस विधा पर हमारा अधिकार है।

सर्वदलीय एकता में संगीत है। प्रतिनिधियों की ‘एक्स्ट्रा करिकुलम एक्टिविटी’ का विश्लेषण किया जाय तो वे संगीतकार भी हैं। उनके लिए संसद एक ऑर्केस्ट्रा है। अपना वेतन बढ़ाने, राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे से बाहर रखने, राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे को हिसाब-किताब से छूट के प्रावधानों पर समवेत स्वर में मेज थपथपाते हैं। अपनी तरक्की से जुड़े मुद्दों पर वे जब मेज थपथपाते हैं तो अनेकता में एकता की सुर-लय-ताल पैदा होती है- समवेत स्वर में। ऑर्केस्ट्रा के संगीत में खराबी तब आती है, जब जनता से जुड़े मुद्दों पर संगीत देना हो। तब अनेकता में एकता का संगीत भद्दा हो जाता है। लगता है, एक लोटे में कंकडों को रख, लोटे को हिलाया जा रहा हो-कड़कड़कड़कड़…..। जनता से जुड़े मुद्दों पर बिना पेंदी वाले लोटे की तरह टर्न पे टर्न लेने लगते हैं। अपनी सीट पर स्थिर नहीं हो पाते। ऐसे में स्वाभाविक है कि संगीत अच्छा नहीं होगा।

एक जनप्रतिनिधि से मैंने पूछा- ऑर्केस्ट्रा का क्या हाल-चाल है? वे बोले- गलत सम्बोधन का प्रयोग मत करो। वो ऑर्केस्ट्रा नहीं लोटा है। आसानी से टर्न पे टर्न लेने के लिए हमने अपनी पेंदी निकलवा दी है। अब लोटे की पेंदी निकालने के प्रयास में लगे हुए हैं। मैंने पूछा- ये कैसे होगा? उन्होंने बताया- तुम्हें याद होगा, एक बार हमने एक-दूसरे पर माइक चलाई थी। लोकतंत्र में आस्था रखने वालों ने कहा- जनप्रतिनिधियों की ये हरकत लोकतंत्र पर तमाचा है। असल में हम अपनी सींगों की मजबूती परख रहे थे। अपनी सींग से हम लोटे की पेंदी पर लगातार वार पर कर रहे हैं- ठक…ठक…ठक…ठक…। 

पशुपालक जनता ठक-ठक से भली- भाँति परिचित होगी। भैंसों का पेट भर जाता है तो वे चारा नाद के बाहर गिराने लगती हैं। नाद से बाहर गिरा हुआ चारा जरूरतमंदों तक पहुँचने वाली कल्याण योजना का हिस्सा है। नाद के बाहर चारा गिराने के बाद भी कुछ भैंसें बगाती रहती हैं। खूँटे के चारो तरफ घूमती हैं। अपनी सींग से नाद को धक्का देकर नाद भी पलट देती हैं। जब वो आए दिन ऐसा करने लगती हैं, तब नाद को टायर के बीच में रख दिया जाता है। तब भैंस लाचार हो जाती है। इसके बाद वो नया पैंतरा आजमाती है। जिस खूँटे से बँधी रहती है, उसी पर अपनी सींग ठोकती है- ठक…ठक…ठक…ठक…। 

चुनाव जीतने के लिए जनता से किये गए वादों पर जनप्रतिनिधियों के यू टर्न रोकने के लिए उनकी कुर्सी भी टायर के बीच में रखनी होगी। कृषि मंत्री ट्रैक्टर के टायर में। परिवहन मंत्री ट्रक के टायर में। उड्डयन मंत्री हवाई जहाज के टायर में। 

स्मार्टफोन से राजनीति की तरफ बहक गया। राजनीति (प्रतिनिधिवाद) शराब की तरह चढ़ती है। शुरू करने से पहले प्रतिज्ञा रहती है- अपने मार्ग से कभी नहीं हटूँगा। पायदान चढ़ने के साथ ही बहकाना शुरू कर देती है। कई तो देखते ही बहक जाते हैं। खैर… स्मार्टफोन की तरफ चलते हैं। 

जिसने संसद में कार्यवाही के बीच स्मार्टफोन पर पॉर्न देखा वो उप-मुख्यमंत्री बन गया, साभार NDTV

ऐसा नहीं है कि स्मार्टफोन सिर्फ आलोचना का पात्र है। स्मार्टफोन की बहुत सी खूबियाँ हैं। उन खूबियों को स्मार्टफोन निर्माता और करोड़ों रुपए लेने वाले ब्रांड अम्बेसडर सबसे बढ़िया तरीके से बताते हैं। मुफ्त में जो खूबियाँ बताई जा सकती हैं, मैं वही बता सकता हूँ। स्मार्टफोन के आने से सहूलियत भी हुई है। गोष्ठी, चर्चा-परिचर्चा, व्याख्यानमालाओं की सफलता-असफलता को स्मार्टफोन बता देता है। झुकी हुई गर्दनों की गणना कर सफलता-असफलता का ‘स्कोर’ पता किया जा सकता है।

स्मार्टफोन के पहले वक्ता की बातों में ध्यान नहीं लगता था, तो श्रोता इधर-उधर देखने लगते थे। आपस में बात करने लगते थे। अपने वक्तव्य के प्रति श्रोताओं की बेरुखी देख वक्ता का आत्मविश्वास कम होता था। बोलने के इंतजार में बैठे अन्य वक्ताओं के सामने वो हीनभावना का शिकार होता था। स्मार्टफोन आने के बाद वक्ताओं में आत्मविश्वास बढ़ा है। वक्ता की बातों में ध्यान नहीं लगता तो श्रोता इधर-उधर नहीं देखता। वो अपनी गर्दन स्मार्टफोन में झुका लेता है। आगे वाली कुर्सी की आड़ के कारण वक्ता उसके गर्दन झुकाने का असल कारण नहीं देख पाता। वक्ता को लगता है कि श्रोता ध्यानमग्न होकर सुन रहा है। 

संख्या बढ़ाने के लिए बुलाये गए श्रोताओं की गर्दन हमेशा झुकी ही रहती है। वक्ता सार्थक बोल रहा हो, तब भी। स्मार्टफोन में गर्दन झुकाकर सबको ध्यानमग्न होकर सुनने वाले श्रोताओं ने वक्ताओं का आत्मविश्वास सबसे अधिक बढ़ाया है। कई वक्ता तो ऐसे हैं, जिनका आत्मविश्वास इतना अधिक बढ़ गया है कि मनबढ़ हो गए हैं। मैं भी निरर्थक बोलने वाले वक्ता का आत्मविश्वास कम नहीं होने देता। वक्ता की तरफ एकटक देखता रहता हूँ। ध्यान को कहीं और भेज देता हूँ। आयोजक दाद देते हैं- गोष्ठी की सफलता आप जैसे श्रोताओं पर ही निर्भर है। वक्ता पीठ ठोकते हैं- आप जैसे श्रोता ही हमारी सच्ची पूँजी हैं।

सभी संचालकों पर ध्यानमग्न होने का अपना अभिनय नहीं आजमाता हूँ। उन संचालकों को सावधान करता रहता हूँ, जो खुद को बोलने का मौका अधिक देते हैं। आमंत्रित वक्ताओं को कम। 

ऐसे संचालक गोष्ठी की शुरुआत की औपचारिकता निभाने के बाद वक्ता को बुलाएंगे- अब उत्तर प्रदेश से आए अमुक जी अपनी बात रखेंगे। समय कम है। वक्ता अधिक। मैं अमुक जी से आग्रह करूँगा कि वे अपनी बात पाँच मिनट में पूरी करें। अमुक जी अपनी बात तीस मिनट में पूरी कर बैठ गए। अमुक जी के बाद संचालक जी पाँच मिनट बोलेंगे। फिर अगले वक्ता को आमंत्रित करेंगे- अब मध्य प्रदेश से आए तमुक जी अपनी बात रखेंगे। समय कम है। वक्ता अधिक हैं। मैं तमुक जी से आग्रह करूँगा कि वे अपनी बात पाँच मिनट में पूरी करें। तमुक जी अपनी बात पचीस मिनट में पूरी कर बैठ गए। अगले वक्ता को आमंत्रित करने से पहले संचालक जी फिर पाँच मिनट बोलेंगे। फिर वक्ता को बोलने के लिए आमंत्रित करेंगे- अब बिहार से आए जनमुख जी अपनी बात रखेंगे। समय कम है। वक्ता अधिक। मैं जनमुख जी से आग्रह करूँगा कि वे अपनी बात तीन मिनट में पूरी करें। जनमुख जी ने अपनी बात पंद्रह मिनट में पूरी की।

संचालक समय सीमा का उल्लंघन कर रहे वक्ताओं के पास चिट भेजता है- आपका समय समाप्त हुआ। चिट पढ़ने के बाद भी वक्ता अगले दो-ढाई दर्जन मिनट तक बोलता है। वो अप्रत्यक्ष रूप से संचालक को आभास करा देता है- अजी कैसे समाप्त हुआ। मैं सुनने नहीं आया हूँ। सिर्फ बोलने आया हूँ। या हो सकता है, संचालक की लिपि वक्ता न पढ़ पाता हो। वक्ता के आभामंडल से संचालक की कलम काँपने लगती हो। संचालक की लिपि बदल जाती हो। खरोष्ठी हो जाती हो।  

गोष्ठी का समापन करते हुए संचालक जी प्रायश्चित करेंगे- समय की कमी के कारण सभी आमंत्रित वक्ताओं को अपनी बात रखने का अवसर नहीं मिला। आयोजकों की तरफ से मैं जम्मू और कश्मीर, सिक्किम, मणिपुर आदि राज्यों के आमंत्रित वक्ताओं से क्षमा चाहता हूँ। संचालक ने ध्यान आकर्षित करने वाली बात गोष्ठी के समापन की घोषणा करते हुए कही। संचालक ने हिंदी भाषा प्रेमियों का गैर हिंदी भाषा प्रेमियों के प्रति सोच के बारे में बता दिया। 

ऐसे जालिम संचालकों से मेरा अभिनय भंग होता है। संचालक की नजर जब मेरी नजर से टकराती है, तो अपना माथा पीटने लगता हूँ- रहम करो मालिक। उन वक्ताओं को भी मौका दो, जिन्हें सुनते समय ध्यान उनकी बात पर ही होता है। नजर कहीं भी हो। 

निरर्थक बोलने वाले वक्ताओं से बचने के लिए श्रोताओं को स्मार्टफोन में गर्दन झुकाने की जगह मेरी स्मार्टनेस की नकल करनी चाहिए। अपनी वाणी के जादू से प्रफुल्लित वे विशेष समारोह करवा सकते हैं जिसमें ध्यानमग्न होकर सुनने वाले स्मार्ट श्रोताओं को पुरस्कृत किया जा सकता है। पूँजी भी ऐसे ही वक्ताओं की बगलगीर होती है। निरर्थक बोलने वाले अक्सर पूँजी के दुलरुआ होते हैं।


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