मैं अक्सर सोचता हूं कि खबरों का देवता अगर सच में होगा तो वो छत्तीसगढ़ में रहता होगा। डेढ़ दशकों तक भाजपा और अब पिछले 18 माह से कांग्रेस के राज में छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता ने जनपक्षधरता का जो मुकाम हासिल किया है वह अन्य किसी राज्य में देखने को नहीं मिलता।
यह भी सच है कि पूर्व की भाजपा सरकार में पत्रकारों का सर्वाधिक उत्पीड़न भी इसी राज्य में हुआ है। ख़बरों पर सर्वाधिक पहरे भी इसी राज्य में बैठाये गये हैं। अभिव्यक्ति के सर्वाधिक खतरे भी छत्तीसगढ़ के पत्रकारों ने उठाये हैं। मालिनी सुब्रह्मण्यम, आलोक पुतुल, संतोष, प्रभात सिंह, लिंगाराम कोडोपी, कमल शुक्ला के अलावा अन्य पत्रकारों के खिलाफ भाजपा सरकार में दायर किये गये फर्जी मुकदमे इसका प्रमाण हैं। नहीं भूला जाना चाहिए कि उसी भाजपा सरकार में कमल शुक्ला पर केवल फेसबुक पर एक कार्टून पोस्ट करने पर देशद्रोह का मुकदमा कर दिया गया था।
क्या यह है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता?
पिछले 26 सितम्बर से पत्रकारों के एक धड़े ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलकर यह कहना शुरू कर दिया है कि भूपेश बघेल के नेतृत्व वाली मौजूदा सरकार पत्रकार-विरोधी है। ऐसा उस घटना के बाद कहा जा रहा है जब कुछ गुंडों ने जो कांग्रेस पार्टी के समर्थक थे, भूमकाल संचार के सम्पादक कमल शुक्ला को बीच चौराहे पर पीट दिया और पत्रकार सतीश यादव को पीटते हुए सड़क से ले जाया गया। निस्संदेह यह घटना शर्मनाक थी जिसका विरोध बेहद ज़रूरी था और देश भर के पत्रकारों द्वारा उसका विरोध हुआ भी, लेकिन इस घटना के आगे, पीछे और बाद में कई बातें ऐसी थीं जिन पर तो चर्चा नहीं की गयी या फिर जान-बूझ करके उन बातों को नज़रअंदाज किया गया।
किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है कि पत्रकार स्थायी विपक्ष में रहें, लेकिन यह भी तय करना ज़रूरी है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मायने क्या हैं। क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में किसी को भी दलाल कहा जा सकता है? क्या किसी के व्यक्तिगत जीवन को तस्वीरों के साथ सार्वजनिक करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है? क्या किसी के फोन कॉल को सार्वजनिक करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है? यही काम जब टाइम्स नाउ और रिपब्लिक करता है तो जनता उन्हें गाली देती है। अर्नब गोस्वामी और नविका कुमार की पत्रकारिता पर इसीलिए सवाल खड़े किये जाते हैं।
कमल शुक्ला पर हमले को टाला जा सकता था
कमल शुक्ला पर हमले को लेकर यह सवाल बार-बार पूछा जाता है कि क्या इस घटना को रोका जा सकता था? जवाब मिलता है ‘हां’, रोका जा सकता था! इय हमले की जांच के लिए गठित पत्रकारों की उच्चस्तरीय कमेटी की रिपोर्ट कहती है कि दरअसल यह घटना सोशल मीडिया पर छिड़े महीने भर पुराने एक विवाद का परिणाम थी जिस विवाद में कमल शुक्ला, सतीश यादव, कलेक्टर कांकेर और कमल शुक्ला पर हमला बोलने वाले शामिल थे। इस विवाद के दौरान जिस तरह से व्यक्तिगत टिप्पणियां की जा रही थीं, जिस तरह से भ्रष्टाचार के आरोप प्रत्यारोप लगाये जा रहे थे, उससे यह समझ में आने लगा था कि यह विवाद आगे और बढ़ेगा।
रिपोर्ट से पता चलता है कि सतीश यादव ने कुछ दिनों पहले पुलिस के एक अधिकारी की एक महिला के साथ की अन्तरंग तस्वीर फेसबुक पर शेयर कर दी थी। वहीँ कमल शुक्ला अपनी फेसबुक पोस्ट पर लगातार दूसरों को गुंडा, भ्रष्ट बता रहे थे। चौंकाने वाली बात यह है कि किसी ने भी कमल शुक्ला या सतीश यादव से यह नहीं कहा कि अगर विरोध है तो हमें गांधीवादी तरीके अपनाने चाहिए, शब्दों से भी हिंसा नहीं करनी चाहिए। हुआ उल्टा, लोगों ने आग को और भड़काया।
विज्ञापन से शुरू हुआ विवाद बन गया भाषायी आतंकवाद
राज्य सरकार द्वारा गठित पत्रकारों की उच्चस्तरीय जांच कमेटी ने जांच के दौरान बताया कि यह सारा विवाद पांच हजार रुपये के विज्ञापन से शुरू हुआ था, जिसका भुगतान मिलने में कमल शुक्ला को विलम्ब हुआ। इसकी वजह से वे बेहद नाराज़ थे और खुद विज्ञापन को शून्य घोषित करने के बाद लगातार रेत के खनन पर ख़बरें लिख रहे थे। यह भुगतान उसी गफ्फार मेमन नाम के शख्स को करना था जिसने कमल शुक्ला पर अपने साथियों के साथ हमला किया।
जांच रिपोर्ट में एक वॉट्सएप सन्देश का जिक्र हैं। कमल शुक्ला द्वारा गफ्फार को पूर्व में भेजे गये एक वॉट्सएप सन्देश में कहीं न कहीं से धमकी का आभास हो रहा था जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं माना जा सकता । कमल शुक्ला ने कहा कि ‘’कल से मैंने अपना काम कांकेर में शुरू कर दिया है। अब मैं कांकेर के विकास में आप लोगों की भूमिका को मेहनत से पूरे देश में पहुंचाने की कोशिश करूंगा। आज आपने मेरे साथ जो सहयोग किया है वैसा ही सहयोग सुमित्रा मारकोले ने किया था। ऐसा ही सहयोग शंकर ध्रुवा ने किया था।‘’ कमल शुक्ला की यह भाषा आश्चर्य में डालती है, लेकिन इस सवाल का जवाब पाना भी ज़रूरी है कि कमल की भाषा ऐसी क्यों हुई? गौरतलब है कि सुमित्रा मारकोले और शंकर ध्रुवा क्रमशः भाजपा और कांग्रेस के पूर्व विधायक थे, जिनके टिकट काट दिये गये थे।
पूरी जांच रिपोर्ट नीचे पढ़ी जा सकती है:
District-Kankerविवाद खनन का, सवाल पत्रकारिता के
अब सोशल मीडिया पर यह भी कहा जा रहा है कि कमल शुक्ला की पत्रिका और वेबसाइट को लाखों के विज्ञापन मिले हैं। सवाल यह है कि क्या इतने विज्ञापन अन्य वेबसाइट्स और पत्रिकाओं को भी दिये गये? अगर कोई सम्पादक अपनी पत्रिका या वेबसाइट के लिए सरकारी या निजी विज्ञापन लेता है तो इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। सरकारी विज्ञापन नियम के विरुद्ध थे या नियम के अनुकूल थे, यह तो जांच से पता चलेगा।
इसके अलावा यह भी कहा जा रहा है कि सोशल मीडिया पर आरोप-प्रत्यारोप के बीच सरकारी ज़मीन पर कब्जे को लेकर जब कमल शुक्ला और सतीश यादव समेत अन्य पत्रकारों को नोटिस भेजा गया तो मामला और भड़क गया। इन सब दलीलों के बीच सवाल यह उठता है कि इस सारे वाद-विवाद में पत्रकारिता कहां थी?
कांकेर में रेत खनन और उससे जुड़े धन को लेकर विवाद होते रहे हैं। कमल शुक्ला खुद भी इस पर खबर लिखते रहे हैं। कमल शुक्ला ने इसी विवाद के बीच अपनी एक पोस्ट में लिखा कि हमारे साहसी रिपोर्टर ने अवैध खनन-स्थल पर एक गाड़ी की चाबी निकाल ली। यह आश्चर्यजनक है- किसी पत्रकार के ऐसे काम की तारीफ़ कैसे की जा सकती है? न तो जांच कमेटी ने लिखा, न किसी पत्रकार ने यह सवाल खड़ा किया कि इसमें पत्रकारिता कहां थी?
इधर पत्रकारों के घर में खाने के लाले, मगर एक जुम्बिश तक नहीं
छत्तीसगढ़ में लॉकडाउन के दौरान सैकड़ों मीडियाकर्मियों ने अपनी नौकरी खोयी, हजारों पत्रकार ऐसे हैं जिन्हें 30 से 40 फीसदी कम तनख्वाह दी जा रही है, लेकिन किसी भी संगठन ने या प्रेस क्लब ने इस पर सवाल नहीं खड़ा किया। न तो कोई आन्दोलन हुआ, न ही कहीं धरना-प्रदर्शन, न कोई व्यक्तिगत आवाज़ ही उठी। यहां तक कि कमल शुक्ला के आन्दोलन में शामिल तमाम पत्रकारों ने भी हकदारी के इस बड़े सवाल पर अपने मालिकान के सामने अपने होंठ सिल लिए थे।
यह उस वक्त हो रहा था जब तमाम पत्रकारों के घर में भरपेट खाना भी लोगों को उपलब्ध नहीं था। इस आन्दोलन के दौरान ही बड़े मीडिया हाउसों ने 70 से अधिक पत्रकारों को बाहर का रास्ता दिखा दिया। दुखद यह रहा कि इस रिपोर्ट को लिखे जाने से 24 घंटे पहले नवभारत के पत्रकार प्रफुल्ल ठाकुर का स्थानान्तरण 450 किमी दूर कर दिया गया, मगर सारा विरोध सोशल मीडिया तक ही सीमित रहा।
बहती गंगा में हाथ धोते लोग
सतीश यादव और कमल शुक्ला पर हुए हमले के बाद की राजनीति और भी विचित्र है। यह जानना बेहद ज़रूरी है कि भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी इस आन्दोलन में कैसे शामिल हुई। यह आन्दोलन जो पत्रकारों का आन्दोलन था, राजनीतिक कैसे हो गया?
आश्चर्यजनक था कि कमल शुक्ला पर हमले के तत्काल बाद कांकेर में शुरू हुए धरने के बाद भाजपा के सांसद मोहन मंडावी मौके पर जा पहुंचे। यह वही हैं जिन्होंने हाथरस रेप काण्ड को फर्जी करार दिया था। पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह ने भी कमल शुक्ला को लेकर ट्वीट किया था। आम आदमी पार्टी भी मौके पर पहुंच गयी और नारेबाज़ी करने लगी।
सच्चाई यह है कि भाजपा के प्रबल विरोधी कमल शुक्ला ने खुद भी स्वीकार किया है कि भाजपा इस मामले को हिन्दू-मुस्लिम रूप देना चाहती थी। उन्होंने यह बात सार्वजनिक तौर पर कही, लेकिन चाहते न चाहते हुए भी कमल शुक्ला इस पूरे आन्दोलन से उन लोगों को अलग-थलग करने में असफल रहे जो इस आन्दोलन से पहले भाजपा के एजेंडे को आगे बढ़ा रहे थे और आन्दोलन के दौरान कमल शुक्ला के पक्ष में सरकार के खिलाफ खड़े हो गये।
आम आदमी पार्टी, जो कांग्रेस के नेताओं पर लगातार हमले कर रही है उसके लिए भी यह घटना एक अवसर बन गयी। दिलचस्प यह था कि इस आन्दोलन का खात्मा राज्यपाल अनुसुईया उइके को ज्ञापन देकर किया गया, जिन्होंने कांकेर के भाजपा सांसद मोहन मंडावी को इस मामले की जांच का जिम्मा दे दिया था।
कमल की आड़ में निकाली गई दुश्मनियां
मामला यही ख़त्म नहीं हुआ। विभिन्न कारणों से सरकार से नाराज़ चल रहे तमाम लोग इस आन्दोलन में कमल के साथ खड़े हो गये। इनमें पूर्व एडवोकेट जनरल भी हैं जो सरकार के खिलाफ पद से हटाये जाने के बाद काफी मुखर रहे हैं, वो भी कमल शुक्ला के साथ आ गये। ये वो लोग थे जिन्होंने समय-समय पर सरकार के खिलाफ अपने हितों की पूर्ति न होने पर खुन्नस निकाली।
ग्वालियर में बैठे सीपीएम के नेता बादल सरोज, संजय पराते भी इस आन्दोलन में थे लेकिन सीपीएम नहीं थी। पीयूसीएल ने विज्ञप्ति जारी कर दी, लेकिन पीयूसीएल के लोग नहीं थे। छत्तीसगढ़ के तमाम जनतांत्रिक संगठन इस आन्दोलन में या तो खामोश रहे या फिर दूर। लोकतंत्र में विपक्ष को या फिर सरकार के विरोधियों को ऐसे मौकों का इन्तजार रहता है, उसमें कुछ गलत भी नहीं है लेकिन विशुद्ध पत्रकारों के आन्दोलन में जब अपने-अपने स्वार्थ लिए राजनैतिक दल घुस जाते हैं तो आन्दोलन का उद्देश्य भटक जाता है।
पुलिस के कुछ अधिकारियों को हटाकर पुलिस ने नये सिरे से जांच शुरू कर दी है। फिलहाल, सरकार के वरिष्ठ मंत्री टी. एस. सिंहदेव ने कमल शुक्ला से माफ़ी मांग ली है, लेकिन कमल शुक्ला का कहना है कि न्याय अब भी नहीं हुआ है।
कमल शुक्ला से सीधी बात
क्या इस घटना को टाला जा सकता था? आपको नहीं लगता इस सम्बन्ध में आपने कोई कोशिश नहीं की?
बिलकुल टाला जा सकता था। मुझे इस घटना के पीछे कोई त्वरित कारण नज़र नहीं आता, लेकिन जब मैं अपने साथी को बचाने के लिए पहुंचा तो सुनियोजित तरीके से भीड़ इकट्ठा कर ली गयी। 100 से 150 कांग्रेस के समर्थकों ने मुझे घेर लिया। मुझे मारने वाले बहुत से कांग्रेसी पार्षद और नेता था जिनसे मेरा परिचय भी नहीं था। जीतेन्द्र सिंह ठाकुर के खिलाफ मैं शुरू से लिखता रहा हूं। गफ्फार मेमन से मेरा परिचय था लेकिन बहुत ख़ास नहीं था। पुलिस चाहती तो घटना को रोक सकती थी, लेकिन उन्होंने मुझे भीड़ के हवाले कर दिया।आपके ऊपर हुए हमले की घटना में पत्रकारिता कहां थी?
पत्रकारिता को आप खोजने की कोशिश करेंगे तो आपको पत्रकारिता कहाँ मिलेगी?आप मुझे दोषी समझकर सवाल कर रहे हैं। पत्रकार का दायित्व है कि जो भी सच हो जनता के सामने लाए। मैंने तो हमेशा वही कोशिश की है। मेरा किसी से कोई व्यक्तिगत झगड़ा नहीं था।आपने टीआइ की आपत्तिजनक तस्वीरें पोस्ट कीं, फेसबुक पर भी आप अनर्गल लिख रहे थे? आपको नहीं लगता कि आपने जान-बूझ कर विवाद को बढ़ाने की कोशिश की?
हमने जो भी लिखा सच लिखा। टीआइ कोमरे ने अपने से आधी उम्र की लड़की के साथ एक तस्वीर खुद सोशल मीडिया में पोस्ट की थी, मैंने वही तस्वीर लगायी। वह खुद के खिलाफ विभागीय जांच को प्रभावित करने की कोशिश कर रहा था। मैंने जब इसका राजफाश किया वह उत्तेजित हो गया। गणेश तिवारी के साथ मिलकर कोमरे सोशल मीडिया पर मुझे नक्सली और देशद्रोही बता रहा था। साजिश को उद्घाटित करना पत्रकार का काम है।आपको नहीं लगता कि आपका आन्दोलन बीजेपी और ‘आप’ समेत तमाम पार्टियों के आने से राजनैतिक हो गया?
हमने किसी राजनैतिक दल को नहीं बुलाया। जो लोग भी सुन रहे थे आ रहे थे। हमारे लिए आन्दोलन प्रमुख था। विपक्ष तो ऐसे मौकों की तलाश में ही रहता है। कांग्रेस भी बीजेपी के वक्त ऐसे मौके खोजती थी लेकिन मैंने किसी भी राजनैतिक दल का स्वागत नहीं किया। यह सच है कि बीजेपी और कांग्रेस दोनों मेरे आन्दोलन के माध्यम से दंगा कराना चाहते थे।आपने गफ्फार मेमन को धमकी भरे वॉट्सएप संदेश क्यों भेजे?
वो धमकी नहीं थी, मैंने सामान्य भाषा में कुछ लिखा था। आप अपनी तरह से सोच रहे हैं, हम अपनी दृष्टि से देख रहे हैं।गफ्फार मेमन से विज्ञापन का विवाद क्या था?
हमने गफ्फार का विज्ञापन छापा, तस्वीर लगायी। अब वह पैसे देने के नाम पर कह रहा है बिल बनाकर दीजिए, विभागीय भुगतान कराएंगे। सरकारी पैसे के इस दुरुपयोग को मैं कैसे बर्दाश्त करता?आपको नहीं लगता कि आपसे चूक हुई है?
जी नहीं. मुझसे कोई चूक नहीं हुई है। इस हमले के बाद कांग्रेस पार्टी की जो प्रतिक्रिया रही वह बेहद दुखद थी। कांग्रेस नेतृत्व ने मेरे प्रति संवेदना नहीं दिखायी और न ही आरोपियों को सजा दिलायी। उलटे आनन-फानन में पहले पत्रकारों की कमेटी बनायी और अभी पुलिस की जांच कमेटी बनाकर मामले को दो-तीन महीनों के लिए टाल दिया।सरकार से अदावत रखने वाले तमाम लोग आपके साथ इस आन्दोलन में आ गये?
साक्षारकर्ता: आवेश तिवारी
आप उनके नाम बताइए। मुझे नहीं लगता ऐसा कोई मेरे आन्दोलन से जुड़ा था। जो लोग भी आए उनको मेरी विचारधारा और मेरे आन्दोलन का तरीका ठीक लगा।
कांग्रेस प्रवक्ता शैलेश नितिन त्रिवेदी से बातचीत
कमल शुक्ला और सतीश यादव पर हुए हमले के बाद उसकी भर्त्सना में देरी क्यों हुई?
यह कहना गलत है कि देरी हुई। इस हमले की मेरे समेत पार्टी के सबसे बड़ी नेताओं और खुद मुख्यमंत्री भूपेश बघेल जी ने सूचना मिलते ही भर्त्सना की थी। हम सबके लिए यह घटना बेहद दुखद है। घटना के दूसरे दिन सुबह ही मैंने कमल शुक्ला जी से बात करके दुःख व्यक्त किया था। लोकतंत्र में किसी भी पत्रकार या व्यक्ति के साथ इसी किस्म की घटना निंदनीय है। समूची कांग्रेस इस पर एकमत है।
कमल शुक्ला का आरोप है कि उन्हें अब तक न्याय नहीं मिला है?
देखिए, जो न्यायसंगत कार्रवाई थी वो तत्काल हुई। बाकी उस वक्त जो भी पुलिसकर्मी सीधे तौर पर घटना के वक्त मौजूद रहे उनके खिलाफ भी कार्रवाई हुई है। पुलिस आगे की जांच कर रही है। अगर कोई और दोषी मिलता है तो उसके खिलाफ भी कार्रवाई होगी।पत्रकारों की सुरक्षा का मामला बेहद महत्वपूर्ण है। पत्रकार सुरक्षा कानून को अमली जामा पहनाये जाने में विलम्ब क्यों हो रहा है?
आपको बता दें कि पत्रकार सुरक्षा कानून का मसौदा अंतिम चरण में है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल खुद भी इसको लेकर बेहद गंभीर हैं। जो लोग अफवाहें फैला रहे हैं वो वही लोग हैं जो बीजेपी की सरकार में जब पत्रकारों का लगातार उत्पीड़न हो रहा था, तब खामोश थे। जल्द ही इस कानून का क्रियान्वयन होगा।आप पर आरोप लग रहा है कि आपने आरोपियों को कांग्रेसी मानने से इनकार कर दिया?
साक्षारकर्ता: आवेश तिवारी
जिस वक्त हमने कमल शुक्ला पर हमले का वीडियो देखा था, उसमें दो लोग नज़र आए। एक शादाब मेमन थे जो कांग्रेस के खिलाफ निर्दलीय चुनाव लड़ चुके हैं जो गाली-गलौज कर रहे थे। दूसरे गणेश तिवारी थे जो पत्रकार हैं और खुद को इंटक का पदाधिकारी भी बताते हैं, वो कमल शुक्ला को पकड़े हुए थे। आपको बता दें कि छत्तीसगढ़ में चार इंटक हैं। कांग्रेस केवल संजीवा रेड्डी वाले इंटक को मान्यता देती है। कोई क्लेम करे कि वो इंटक का पदाधिकारी है तो उसमें अंतर है। शादाब मेमन पहले से कांग्रेस से निष्कासित थे। हमें बाद में जानकारी मिली कि इसमें विधायक प्रतिनिधि गफ्फार मेमन भी थे।